Sunday, January 23, 2011

इलाहाबाद के संदर्भ में कुछ पंक्तियां

वो सिविल लाइंस की शाम,
वो चौक का जाम,
वो नैनी पुल की हवा,
वो सरस्वती घाट की मस्ती,
वो हीरा हलवाई के समोसे,
वो सीसीडी की कॉफी,
वो कटरा का क्राउड,
वो एसएमसी का गरूर,
वो जीएचएस की फुलझडिय़ां,
वो सिविल लाइंस की सडक़ें,
जहां न जाने से दिल धडक़े।
इलाहाबाद रॉक्स।

आलोक शुक्ला

पूर्वोत्तर के रंग से रंगा सिंहद्वार

सोचिए , राजस्थान की चमकदार संस्कृति पर नॉर्थ ईस्ट की चटकीली लोक संस्कृति के रंग भर जाएं तो कैसा होगा? सचमुच अद्भुत। अविस्मरणीय। अभिभूत कर देने वाला। अवर्णनीय अनुभव वाला। कल्पना से अधिक सुंदर। मादकता भरा। राजस्थान का सिंहद्वार कहा जाने वाला अलवर पिछले दिनों इसी यादगार अनुभव से गुजरा। अवसर था ऑक्टेव-2011 का। उत्तर मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केन्द्र, इलाहाबाद और जिला प्रशासन के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित कार्यक्रम। पूर्वोत्तर के 8 राज्यों के 300 लोक कलाकारों की प्रस्तुति। देश के वरिष्ठ रंगकर्मी बंशी कौल की कोरियोग्राफी। कैसे दो घंटे बीत गए पता ही नहीं चला। लगा जैसे राजस्थान का सिंहद्वार पूर्वोत्तर के रंग से रंग उठा। नीचे के चित्रों में आप भी देखिए, ऑक्टेव-2011 के कुछ रंग।






Saturday, January 22, 2011

Sunday, January 9, 2011

राजस्थान में उतरा बिहार

विजय तेंदुलकर के नाटक घासीराम कोतवाल की पंक्तियां हैं- बावनखड़ी में जी, बावनखड़ी में, मथुराजी उतरी बावनखड़ी में। यकीन मानिए, मैंने यह उस तर्ज पर नहीं लिखा। मेरे दिमाग में मुंबई जरूर रहा है। दरअसल, मुंबई का एक उपनगर है, अंधेरी। आलीशान, आधुनिक और मुंबई की जान। अलवर में भी एक अंधेरी है, लेकिन मुंबई की अंधेरी के ठीक उलट। अलवर की अंधेरी में नाममात्र की धूप आती। चारों ओर पहाडिय़ां और उनके बीच तालाब की तरह बनी इस घाटी में इतने घने वृक्ष है कि सूरज दिखता ही नहीं। इसी कारण इसे अंधेरी कहा जाता है। कहते हैं कुछ वर्ष पूर्व तक यहां दोपहर के 12 बजे भी धूप नहीं आती थी। मुख्य सडक़ से 2 किलोमीटर भीतर जंगल में स्थित है अंधेरी। पहाडिय़ों से बहकर आने वाला बरसाती पानी घाटी में एक नदी भी बनाता है। आसपास कोई बस्ती नहीं। आने जाने का कोई साधन नहीं। सडक़ नहीं। पहाड़ के टूटे पत्थरों से बना पतला सा एक रास्ता। इसी पर चलकर आप पहुंचते हैं, अंधेरी। पिछले कुछ वर्षों से जब से बाइक्स बहुतायत में लोगों के पास आई है, तब से हिम्मती युवा अंधेरी तक आने जाने लगे हैं। इसलिए एक रास्ता सा बन गया है। आश्चर्यजनक यह है कि अंधेरी घाटी में नाथगिरि सम्प्रदाय का एक आश्रम है। आश्रम में 3 समाधि और एक विशाल परिसर वाला छोटा सा मंदिर है। आश्रम में नियमित रूप से कोई नहीं रहता। यदा कदा कोई आ जाता है और थोड़ा समय गुजार कर चला जाता है।

इन्हीं खूबियों के कारण वर्ष 2011 का स्वागत करने के लिए हमने अंधेरी घाटी को चुना। हमने तय किया कि इस बार नए साल की पिकनिक अंधेरी में होगीे। नए साल पर हम नया करते हैं। इस बार हमने पिकनिक की थीम राजस्थान में बिहार रखी। राजस्थानी दाल, बाटी, चूरमा की जगह बिहारी लिट्टी, चोखा पिकनिक का मीनू तय हुआ। बाइक्स पर लिट्टी, चोखा का सामान लादकर हम अंधेरी पहुंचे। रास्ते के रोमांचक अनुभव के बाद सूने आश्रम में अहरा लगा। लिट्टी चोखा बना। सबने अद्भुत बिहारी स्वाद का आनंद लिया। उंगुलियां चाट- चाटकर खाया। बनाते समय जो चोखा ज्यादा लग रहा था, खाते समय कम लगने लगा। हालांकि कम नहीं पड़ा।

कुछ साथी जब लिट्टी, चोखा बना रहे थे, तभी अन्य साथी मनोरंजक कार्यक्रम कर रहे थे। आध्यात्मिक रुचि के एक साथी बरगद के पेड़ पर आसन जमाकर प्रवचन कर रहे थे। शेष नीचे बैठकर जय हो-जय हो, का शोर कर रहे थे। बरगद के पेड़ पर बैठकर प्रवचन देने का तर्क यह था कि तमाम धर्मगुरुओं को बरगद के वृक्ष के नीचे ज्ञान मिला। इसलिए ज्ञानी को पेड़ के ऊपर और अज्ञानियों को पेड़ के नीच बैठना चाहिए। नतीजतन अज्ञानी लोग पेड़ के नीचे बैठकर ज्ञान ले रहे थे। बरसात में तीव्र गति से बहने वाली और इन दिनों सूखी पड़ी नदी के बड़े-बड़े पत्थरों पर बैठकर कुछ साथियों का फोटो सेशन चल रहा था तो कुछ साथी कोलंबस की तरह नई दुनिया की खोज कर रहे थे।

लिट्टी चोखा खाते समय एक कोलंबस ने सूचना दी कि आगे एक पेड़ की डाल नदी के ऊपर पुल की तरह गिरी पड़ी है। तय हुआ वहां कवि सम्मेलन हो। खाना समाप्त करके हम नदी में उतर पड़े। पत्थरों पर चलते, गिरते, बचते हम उस जगह पहुंचे। एक बड़ा पत्थर मंच बना और पुल की तरह नदी पर बिछी डाल श्रोताओं के बैठने की जगह। कवि सम्मेलन इतना जोरदार चला कि डाल बीच से टूट कर नदी में बैठ गई। भला हुआ कि किसी को चोट नहीं आई। डाल के टूटते ही सभी अपने पैरों पर खड़े हो गए और बेचारी डाल को अकेले ही नदी में गिरना पड़ा। कवि सम्मेलन में ना जाने कितने ज्ञात- अज्ञात कवियों, शायरों की रचनाएं सुनी- सुनाई गईं। बहरहाल नए वर्ष का स्वागत विशेष थीम के साथ ही नहीं, विशेष अंदाज के साथ हमने किया। आपने इतने धैर्य से हमारी मस्ती झेली यानी इसे पढ़ा, इसलिए नए वर्ष की शुभकामनाओं पर आपका भी हक बनता है। तो लीजिए, आपको भी नए वर्ष की शुभकामनाएं।

नए वर्ष के कार्यक्रम की कुछ फोटो नीचे देखिए।



Tuesday, January 4, 2011

ज्ञान की गुदड़ी में मिला प्रेम का हीरा

वृंदावन में हम उस स्थान को देखने पहुंचे, जहां ज्ञान हारा और भक्ति जीती। इस प्रसंग ने लोक मानस में यह बैठाया कि ज्ञानार्जन से अधिक ज्ञानानुभव महत्वपूर्ण होता है। बुद्धि से ज्यादा भावनाएं प्रमुख होती हैं। मस्तिष्क से अधिक दिल की बात सुननी चाहिए। इस स्थान को ज्ञान गूदड़ी कहते हैं। लोक में यह प्रसंग उद्धव- गोपी संवाद के रूप में जाना जाता है। भक्तिकालीन कवियों ने इस प्र‎संग से यह स्थापित किया कि भगवान को पाने का सबसे सहज और सरल मार्ग भक्ति का है। शास्त्रों- पुराणों में यह प्रसंग नाममात्र है। महाकवि सूरदास ने इस प्रसंग को विस्तार दिया और बाद में ब्रजभाषा के कवि जगन्नाथदास रत्नाकर ने जन-जन तक पहुंचाया। भक्ति की सगुण विचारधारा से इस मान्यता का जन्म हुआ। कह सकते हैं कि सगुण उपासना की राह पर भक्ति का राजमार्ग बना। अनेक वर्षों बाद जगद्गुरु शंकराचार्य ने भी भज गोविंदं, भज गोविंदं, भज गोविंदं मूढ़मते, गाकर स्थापित किया कि भगवान को पाने का ज्ञानमार्ग से ज्यादा सहज भक्तिमार्ग है।


वृंदावन में हमने देखा भक्ति का यह विजयस्थल एक उजड़े पार्क के रूप में बचा है। किसी कॉलोनी के बीच बने और उपेक्षित पड़े पार्क जैसा। ना कोई मूर्ति, ना स्मृतिचिह्व। हम वहां घूमे। बैठे । हमने आंखें बंद की तो लगा चारों ओर गोपियां हंस रही हैं। उद्धव खीझ रहे हैं। एक स्वप्न सा उद्धव- गोपी संवाद हमें दिखने लगा। बीच- बीच में श्रीकृष्ण की मुस्कुराहट हमें दिखती रही। श्रीकृष्ण का उद्धव से परिचय मथुरा में हुआ। उद्धव सुंदर युवा थे। तेजस्वी व्यक्तित्व के स्वामी। शास्त्रों के गहन अध्येता। वृष्णि कुल के शिखर पुरुष। अद्बैतवादी उद्धव को नीतियां रटी थीं। हर संदर्भ में वे नीतियों का सहारा लेते। परिणामस्वरूप उनसे बात करने वाला निरुत्तर रह जाता। उनके गहन अध्ययन और विद्बता से प्र‎भावित लोग उन्हें देवताओं के गुरु वृहस्पति का शिष्य मानते। पहले परिचय में ही उद्धव ने अपनी ज्ञानपूर्ण बातों से श्रीकृष्ण को प्र‎भावित किया। श्रीकृष्ण को यह अनुभूति भी हुई कि उद्धव को ज्ञान का गर्व है।


कंस वध के बाद श्रीकृष्ण मथुराधिपति बन गए। कंस के राज्यकाल की अनेक अराजकता स्वयं समाप्त हो गई। श्रीकृष्ण मथुरा की व्यवस्था के पुननिर्माण में लग गए। उनकी इच्छा थी कि मथुरा में नए प्रकार की आधुनिक शासन व्यवस्था स्थापित हो। एक तरह से समता और समानता की। परस्पर सम्मान की। व्यवस्था ऐसी, जहां शासक में सेवक का भाव हो। सेवा धर्म हो। आचरण हो। नित्य का व्यवहार हो। इसके लिए वे विद्वानों से विभिन्न शासकों की राज्य व्यवस्था के बारे में जानकारी लेते और उसके औचित्य अनौचित्य पर विचार करते। खूबियां समझ में आते ही उसे लागू करते। इस प्रयास में देश के कोने-कोने से मथुरा आने वाले विद्वानों से उनकी भेंट हुई। उद्धव से भी इसी क्रम में उनका परिचय हुआ, जो बाद में उद्धव की विद्वता के कारण मित्रता में बदल गया।


जीवन और जगत के विषय में उद्धव की ज्ञानपूर्ण बातें सुनकर श्रीकृष्ण के मन में कई प्रकार के प्रश्न भी उठते। श्रीकृष्ण सोचते क्या ज्ञान से मानव जीवन की समस्याएं समाप्त हो जाती हैं? क्या ज्ञान सचमुच सारी समस्याओं का निदान है? अगर ऐसा है तो ज्ञान व्यक्ति को अहंकारी क्यों बनाता है? अभिमान और अहंकार से शांति कैसे मिल सकती है? गर्वित व्यक्ति के कार्य समाजोपयोगी कैसे हो सकते हैं? फिर ज्ञान की क्या उपयोगिता है? उद्धव के ज्ञानमार्ग और मेरे प्रेममार्ग में क्या कोई संबंध हो सकता है? मानव आखिर प्रेम क्यों करता है? प्रेम यदि जीवन का सार है, उसका सर्वोच्च प्रप्य ‎है तो प्रेम के मार्ग में इतने कष्ट, इतनी अशांति क्यों है? श्रीकृष्ण ने मन ही मन उत्तर ‎खोजने शुरू किए। उधर, उद्धव को भी श्रीकृष्ण रोचक लगे। समझदार, लेकिन तनावरहित। चिंतामुक्त। श्रीकृष्ण के चेहरे पर सदैव रहने वाली मोहक मुस्कान देख उद्धव ने उन्हें लापरवाह भी माना। कुछ अगंभीर। दोनों मित्र तो हो गए, लेकिन एक दूसरे की चिंतन शैली और वैचारिक पथ पर संदेह से घिरे हुए। समय के साथ मित्रता बढ़ती गई पर सोच का शक भी गहराता गया।


शंका निवारण के लिए श्रीकृष्ण ने युक्ति निकाली। एक दिन उन्होंने उद्धव से बात करते हुए कहा कि मैं मानता हूं कि ज्ञान का मार्ग सर्वोत्तम है। ज्ञान से व्यक्ति के मोहपाश खुल जाते हैं। माया के बंधनों से उसे मुक्ति मिल जाती है। इस तरह मोह-माया उसे दुख नहीं पहुंचाते। उद्धव को अपनी बात गंभीरता से सुनते देख मंद-मंद मुस्काते हुए श्रीकृष्ण बोलते रहे- आपके संपर्क में आकर मैं भी अपने भीतर परिवर्तन अनुभव करता हूं। इसके बाद भी मुझे मां यशोदा का निश्छल प्यार, नंदबाबा का दुलार और गोपियों का प्रेम विचलित करता है। मुझे अपनी गायों और उनके प्यारे बछड़ों की याद आती है। आंखें मूंदते ही सिर पर मटकी रखे इठलाकर चलती गोपियां दिखने लगती हैं।


श्रीकृष्ण ने बात जारी रखी। वे बोले- गोपियां ही नहीं, ब्रज की गलियां, पक्षी, लताएं और वृक्ष सब मुझे याद हो आते हैं। यमुना हजारों-हजार लहरों के जरिए मुझे बुलाती लगती है। मथुरा के इतने सुखों के बीच भी मैं ब्रज को भूल नहीं पा रहा हूं। राधा की भीगी आंखें, उसका मनुहार, उसका मान मुझे बेचैन कर देता है। गोपियों का सौंदर्य, उनके साथ यमुना के तट पर, कुंज कुटीरों में और वन में खेले गए खेलों की याद मुझे सोने नहीं देती। गोपियों का रूठना, उन्हें मनाना, जब मुझे याद आता है तो मैं भाव विह्वल हो उठता हूं। एक मीठी पीड़ा सा यह सब मुझे टीसता है। बहुत गंभीर होकर श्रीकृष्ण ने कहा- उद्धव, ब्रज में मिला प्यार मुझे आजीवन विचलित करता रहेगा। ब्रज की स्मृतियां मुझे इतना विह्वल कर देती हैं कि मेरा मन रुदन करने को हो जाता है। उद्धव ने देखा श्रीकृष्ण की आंखें नम हो गई हैं।


श्रीकृष्ण कुछ क्षण रुके और गहरी सांस ली। संयत होते हुए फिर अपनी मोहक मुस्कान के साथ बोले- आपके साथ रहकर मैं तो माया मोह से मुक्त हो जाऊंगा, लेकिन गोपियों को कैसे समझाएं। वे अब भी मेरा नाम रट रही हैं। सुधबुध खो बैठी हैं। घर-परिवार ही नहीं पूरे संसार की चिंताओं से मुक्त हो गई हैं। खाना- पीना, सोना- जागना, उठना- बैठना सभी अनिश्चित हो गया है। तपस्विनियों की भांति जर्जर काया के साथ गोपियां मेरे नाम की माला जप रही हैं। यह जानते हुए भी कि मैं अब वहां नहीं हूं। और मेरा लौटना भी संभव नहीं। उनकी रट, जिद, व्यथा, कष्ट, मुझे विगलित करता है।


गंभीर लंबी सांस लेकर श्रीकृष्ण ने कहा- उद्धव जी, क्या यह संभव है कि आप ब्रज जाकर गोपियों को समझाएं। उन्हें बताएं कि दुनिया का सार ज्ञान है, प्रेम नहीं। ज्ञान से प्रप्ति होती है, भावनाओं से नहीं। ज्ञान से शांति मिलती है, जबकि प्रेम अशांत करता है। ज्ञान दुखों से ऊपर उठाता है और प्रेम दुखों में डुबोता है। ज्ञान समस्याओं का अंत है और प्रेम दुखों का आरंभ। ज्ञान और नीतियों के सहारे आप गोपियों को समझा सकते हैं कि प्रेम निरा पागलपन है। श्रीकृष्ण की बात सुनकर उद्धव के भीतर ज्ञानजन्य गर्व हिलोरे लेने लगा। उन्होंने ब्रज जाकर गोपियों को समझाने की बात मान ली। उन्होंने श्रीकृष्ण को आश्वासन दिया कि वे गोपियों को समझाकर कुछ दिन में ही लौट आएंगे। श्रीकृष्ण की योजना उद्धव समझ नहीं पाए। वह ब्रज जाने को तैयार हो गए।


श्रीकृष्ण का संदेश लेकर उद्धव वृंदावन पहुंचे। उद्धव के आगमन का समाचार पूरे ब्रज में फैल गया। श्रीकृष्ण का परम मित्र उनका संदेश लेकर आया है। समूचे ब्रज में उद्धव की चर्चा होने लगी। आबाल वृद्ध सभी उद्धव से मिलने को व्याकुल हो उठे। गोपियों के बीच भी चर्चा छिड़ गई। कुछ खुश थीं तो कुछ निराश। कुछ इस आशा से फूली नहीं समा रहीं थीं कि उद्धव के जरिए मनमोहन ने उनकी सुध ली। कुछ ने कहा हमें उद्धव से मिलना चाहिए। उनका समुचित सत्कार करना चाहिए, जबकि कुछ का कहना था कि यह प्रेम की अवमानना है। हमारी उपेक्षा है। स्वयं नहीं आकर महज संदेश भिजवाना, हमारे साथ अन्याय है। गोपियों ने राधा से परामर्श किया। मानिनी राधा ने कहा कि हम किसी से मिलने कहीं नहीं जाएंगे। हम वृंदावन की उन्हीं लताओं, कुटीरों में रहेंगे, जहां रसिया हमें छोड़ गए हैं। हमसे जो मिलना चाहे यहीं आ सकता है।


वृंदावन पहुंचकर उद्धव सबसे पहले नंदबाबा से मिले। उन्हें नंदबाबा थके और उदास से लगे। उद्धव ने उन्हें प्र‎णाम किया तो वे कृष्ण के सखा को देखकर खिल उठे। उद्धव को देखकर उनकी आँखों में चमक आ गई। उद्धव के आगमन की प्रसन्नता वे छिपा नहीं पा रहे थे। थकान भरे शरीर के बाद भी वे उत्साहित हो उठे। नंदबाबा ने उद्धव का यथोचित सत्कार किया। आंगन में बैठाकर उन्हें जलपान कराया। नंदबाबा से पुत्र की भांति प्यार पाकर उद्धव निहाल हो गए। उद्धव ने नंद के विशाल भवन पर दृष्टि डाली तो उन्हें पूरा भवन शांत और श्रीहीन लगा। दीवारों पर वर्षा जल की काली लकीरें खिंची थीं। सब कुछ धूसर- धूमिल। रंगहीन। उद्धव नंद के भवन पर दृष्टिपात कर ही रहे थे कि मां यशोदा आ गईं। पुत्र के लिए विह्वल । सौंदर्य की प्रतिमूर्ति यशोदा पुत्र वियोग में सूख गईं थीं। असामान्य आचरण करने लगी थीं। मथुरा से कोई आया, यह सुनकर वे जैसे थीं, वैसे ही उद्धव के सामने आ गईं।


मां यशोदा की व्याकुलता देखकर उद्धव विगलित हो गए। यथोचित प्रणाम करके उन्होंने मां के स्वास्थ्य के बारे में जानकारी ली और मां के आग‎‎‎्रह पर श्रीकृष्ण का संदेश सुनाना शुरू कर दिया। अधीर मां ने उद्धव की बातें बीच में ही काटकर पूछा- मेरा पुत्र खाना खाता है या नहीं? उसे कौन खाना खिलाता है? क्या उसे वहां नित्य मिसरी माखन मिल जाता है? उद्धव ने मां के प्रश्नों का उत्तर दिया। श्रीकृष्ण के कुशलक्षेम को लेकर विह्वल यशोदा सब तुरंत जान लेना चाहती थीं। उद्धव की बातों में उनकी कोई रुचि नहीं थी। इसलिए उनके प्रश्न बढ़ते रहे और उद्धव उनका उत्तर ही देते रहे। कई घंटों की बातचीत के बीच भोर हो गई। नंदबाबा और यशोदा से जो ज्ञानपूर्ण बातें करने उद्धव आए थे, वह हो ही नहीं पाई, फिर भी उद्धव संतुष्ट थे। उनका लक्ष्य नंद- यशोदा थे भी नहीं।


यद्बपि उद्धव अपनी ज्ञानभरी बातों के साथ नंदबाबा और यशोदा को बताना चाहते थे कि श्रीकृष्ण के मित्रों में अब गाय चराने वाले गंवार नहीं अपितु मेरे जैसे ज्ञानवान लोग हैं। श्रीकृष्ण भी अब गोपालक नहीं रहे, अपितु मथुरा के अधिपति बन गए हैं। वे नंदगांव से कहीं ज्यादा सुख- सुविधा सम्पन्न नगर मथुरा के प्रथम पुरुष हैं। श्रीकृष्ण मथुरा में भदेस गोपियां से भी घिरे नहीं रहते। उनकी सेवा में संभ‎‎‎‎्रांत युवतियां लगी हैं, लेकिन वे यशोदा के प्रश्नों के उत्तर ही देते रह गए। पूरी रात बीत गई और वे अपनी बात नहीं कह पाए। श्रीकृष्ण का कुशलक्षेम जान नंदबाबा और मां यशोदा प्रसन्न हो उठे। सुबह होती देख उद्धव ने नंदबाबा से विदा ली। नंद के भवन से बाहर आकर वे यमुना तट पर गए। नित्यकि‎‎्रया और स्नान करके लौट आए।


उद्धव वृंदावन के अन्य लोगों से मिले और सबके प्रश्नों का उत्तर देते- देते थक से गए। हरेक के मन में श्रीकृष्ण के बारे में अधिक से अधिक जानने की जिज्ञासा थी। प्रत्येक स्त्री-पुरुष अपने प्रश्न का उत्तर पहले चाहता था। उद्धव इससे खीझ गए। उनकी बात सुनने की जगह लोगों में अपने प्रश्नों का उत्तर सुनने की लालसा अधिक थी। इसलिए उद्धव जब भी कुछ बोलना शुरू करते प्र‎श्नों से घिर जाते। वे अपनी एक भी बात पूरी नहीं कर पाए। किसी से भी ज्ञानपूर्ण बातें नहीं कर पाए। उन्हें लगा सचमुच ज्ञान गंवारों के लिए नहीं होता। श्रीकृष्ण का हालचाल जानकर पूरे गांव में उल्लास छा गया। वृंदावन के लोग उद्धव की प्रशंसा करने लगे। हर जगह उद्धव की सराहना होने लगी। सर्वत्र अपनी प्र‎शंसा सुनकर उद्धव आत्ममुग्धता से भर उठे। उन्हें स्वयं पर गर्व हो उठा। उन्हें लगा कि ग‎‎्रामीणों ने भले ही उनकी ज्ञानपूर्ण बातें नहीं सुनीं, लेकिन उनकी वक्तृता शैली ने धाक जमा दी। सबका मन मोह लिया। बातों के बल पर उन्होंंने पूरा गांव जीत लिया। नंदबाबा के घर कुछ समय बिताने के बाद उद्धव गोपियों से मिलने पहुंचे।


उद्धव ने देखा गोपियां बेहाल हैं। उनके शरीर पर ना तो उचित वस्त्र हैं और ना ही आभूषण। मुख श्रृंगार तो जैसे वे जानतीं ही नहीं। बाल उलझे हैं। कुछ गोपियों के बाल लट जैसे हो गए हैं। कुछ के चेहरे पर आंखों से बहे आंसू चिपके हैं। हाथ-मुंह धोने, नहाने और वस्त्राभूषण धारण करने, श्रृंगार करने का किसी को होश नहीं है। गोपियों की मुखमुद्रा प्रमाणित कर रही है कि वे कई दिनों से सोई नहीं हैं। श्रीकृष्ण की स्मृति में बेसुध, बेहाल गोपियों को देखकर उद्धव मुस्कुराए। प्यार की निस्सारता और प्रेमियों की मूर्खताओं पर उन्हें हंसने का मन हुआ। उन्होंने सोचा हर व्यक्ति जानता कि प्यार सिर्फ रोने गाने का नाम है। प्यार का सुख मछली के कांटे के आगे लगे चारे जैसा ही थोड़ा सा होता है। बाकी पूरा का पूरा कांटा ही होता है, जो जीवन भर दुख देता है। प्रेम में मिलन की प्रसन्नता कम और विछोह का दर्द ज्यादा होता है। यह सब जानता हुआ भी मानव प्रेम जाल में फंसता है। अपने रोने को दुनिया का सबसे बड़ा दुख बताता है। विछोह को अन्याय मानता है और चाहता है कि उसकी मूर्खता पर सभी सहानुभूति जताते हुए उसका पक्ष लें। सब कुछ जानने के बाद भी यदि इंसान प्रेम में फंसता है तो सचमुच माया के आगे प्राणी विवश है, लाचार है।


उद्धव ने देखा गोपियां विक्षिप्तों की तरह आचरण कर रही हैं। कोई किसी लता को पकड़ उससे झूलती एकालाप कर रही है तो कोई किसी वृक्ष से चिपटी उसे चूमे जा रही है। कुंज कुटीर में बैठी कुछ गोपियां श्रीकृष्ण के गाए गीत दोहरा रही हैं तो कुछ खामोश बैठी आकाश की ओर निहार रहीं हैं। कुछ कृष्ण-कृष्ण कहती भूमि पर बेसुध पड़ी हैं तो कुछ बदहवास इधर उधर टहलकर ना जाने क्या खोज रही हैं। उद्धव को यह सब विचित्र लगा। गोपियों की दशा पर वे मन ही मन मुस्कुरा उठे। ज्ञान गर्व से पीडि़त हो उन्होंने आंखें मूंद ली। उन्हें कृष्ण-कृष्ण की तेज आवाजें सुनाई पडऩे लगी। घबराकर उन्होंने आंखें खोली। उद्धव को लगा वह किसी मायावन में आ गए हैं। पूरा वृंदावन श्रीकृष्ण संकीर्तन से भरा था। उन्हें लगा वृंदावन की स्थिति तो विचित्र है। वह वृंदावन को श्रीकृष्ण की क‎‎्र‎ीड़ास्थली समझकर आए थे, लेकिन यह तो विक्षिप्त आचरण वालों की आश्रयस्थली लगता है। ज्ञानजन्य अभिमान से उद्धव मुस्कुरा उठे। उन्होंने मन ही मन कहा- प्रेम सचमुच मूर्खतापूर्ण कृत्य है।


आगे बढऩे पर उन्हें सखियों से घिरी राधा दिखीं। अपूर्व सौंदर्य। गौरवर्ण। घने काले बाल। बड़ी-बड़ी काली आंखें। सुर्ख गुलाबी पतले होठ। नम और उदासी से भरा कांतियुक्त चेहरा। राधा का चेहरा कुम्हलाया था। पूर्णिमा का उगता हुआ चांद ग‎‎्रीष्म की शाम जैसे पीला दिखता है, राधा का चेहरा वैसा ही आभायुक्त किन्तु पीला था। केश खुले और बिखरे थे। आंखों की नमी गुलाबी कपोलों पर अद्भुत छटा बिखेर रही थी। राधा के वस्त्र अस्त-व्यस्त थे। शरीर पर आभूषण नाममात्र थे। इसके बावजूद उनका सौंदर्य अनुपम था। शृंगार नहीं करने के बाद भी राधा में अद्भुत आकर्षण था। सखियों के संग वह ऐसे खड़ी थीं, मानो दीपक के बीच लौ। कल्पना से भी अधिक सुंदर। राधा के सौंदर्य ने उद्धव को अभिभूत कर दिया। वे गोपियों के बारे में जो धारणा बना बैठे थे, वह भूल गए। वे सोचने लगे यह राधा का सौंदर्य है या वृंदावन की माया। राधा के सौंदर्य और उनकी दशा में उद्धव खो गए। अद्भुत आनंद से भर गए। उन्हें राधा सौंदर्य और आनंद की देवी लगी। अचानक एक मोर कूकता हुआ उनके समीप से उड़ा तो उनकी तंद‎‎‎‎‎्र‎ा टूटी। उनकी ज्ञानचेतना जाग उठी। सजगता लौटते ही वे गंभीर मुद‎्रा में चलते हुए राधा के समीप पहुंचे। गोपियों ने उद्धव को घेर लिया।


सौंदर्य से अभिभूत उद्धव ने अपने को कृष्ण सखा बताकर राधा को प्रणाम किया। उद्धव ने राधा को बताते हुए कहा कृष्ण मथुरा में आनंदपूर्वक हैं। वहां उनकी सुख-सुविधा की अच्छी व्यवस्था है। सकुशल रहते हुए वे आप सबका कुशल क्षेम जानना चाहते हैं। उन्होंने मुझे इसीलिए यहां भेजा है। उद्धव की बातों पर राधा ने कोई उत्सुकता नहीं दिखाई। जैसे कुछ सुना ही नहीं। उद्धव ने बात आगे बढ़ाते हुए कहा कि मैं आपके लिए उनका संदेश लाया हूं। थोड़ी देर रुककर किंचित गंभीरता से उद्धव फिर बोले- श्रीकृष्ण चाहते हैं कि आप सब उनकी चिंता छोडक़र वृंदावन में आनंदपूर्वक रहें। वे मथुरा के कामों से मुक्त होते ही यहां आ जाएंगे। राधा में फिर कोई प्रतिकि‎‎र‎या नहीं दिखी तो उद्धव को खराब लगा। वह सोच रहे थे कि श्रीकृष्ण का संदेश सुनते ही गोपियां, मां यशोदा और नंदबाबा की तरह आनंद से भर उठेगीं। उनका सत्कार करेंगी। वृंदावन के अन्य लोगों की तरह उत्साहपूर्वक घेरकर उनकी बातें सुनेंगी। उनसे कुछ पूछेंगी, कुछ बताएंगी, लेकिन गोपियां तो लगता है मद में हैं। उन्हें किसी की चिंता ही नहीं।


उद्धव ने सोचा गोपियां रूपगर्विता हैं, संभवत: इसलिए उन्हें महत्व नहीं दे रहीं हैं। यह भी संभव है कि इन गंवारों को उनकी बात ही समझ में ना आई हो। उद्धव ने मन ही मन कहा- और यदि, बुद्धिहीन, रूपगर्विता गोपियां बात नहीं सुनना चाहतीं तो इन्हें समझाने की जरूरत ही क्या है? वैसे भी प्रेम में डूबकर रोती हुई स्त्रियों से सहानुभूति दिखाना सिर्फ समय खराब करना होता है। प्रेम सर्वप्रथम विवेक हर लेता है। सोचने समझने की शक्ति नष्ट कर देता है। दिग्भ‎‎‎‎‎्रम में फंसाता है। प्रेमी के मस्तिष्क में अनुभवों की आँधी उठती है, कोई विचार नहीं पनप पाता। उसको कुछ समझाना बंजर भूमि पर वर्षा की तरह निरर्थक होता है। अर्थहीन सा। उद्धव ने मन ही मन कहा- मैं तो आना ही नहीं चाहता था, श्रीकृष्ण के अनुरोध पर चला आया। श्रीकृष्ण को भी नहीं मालूम होगा कि इन जड़बुद्धियों से बात करना या इन्हें समझाना व्यर्थ समय गंवाना है। अच्छा है, मैं मथुरा लौट जाऊं। उद्धव के अभिमान ने करवट ली। उनके मन ने कहा- अपने ज्ञान से वे कितने मूर्खों का जीवन बदल चुके हैं। फिर ये गोपियां क्या हैं? आखिर हैं तो स्त्रियां हीं। प्रेम ने इनका मस्तिष्क दूषित कर दिया है। इनसे हार मानकर लौटना उचित नहीं।


उद्धव ने एक बार फिर बात शुरू करने का प्रयास किया। उन्होंने कहा कि आपको श्रीकृष्ण के पास मथुरा कोई संदेश भेजना हो तो बताइए। इस पर राधा बोल पड़ीं- उद्धव जी हमारे ह्नदय प्रेम से भरे हैं। इसलिए हमें किसी संदेश या संदेशवाहक की आवश्यकता नहीं। प्रेम संदेश तो ह्नदय से ही ह्नदय सुन लेता है। एक उच्छवास छोड़ते हुए राधा ंने कहा- फिर हमारे पास ऐसी कोई भाषा और शब्द नहीं हैं, जिसके माध्यम से हम अपना प्रेम संदेश गढ़ सकें। हम तो नित्य अपने मनमोहन को अपना संदेश सुनातीं और उनका सुनतीं हैं। उद्धव को लगा राधा विक्षिप्त हो चुकी हैं। इसीलिए ऐसी निरर्थक बातें कर रहीं हैं। फिर उन्हें लगा प‎‎‎‎्रेम में डूबा व्यक्ति बहकी- बहकी बातें करता ही है। उन्होंने गोपियों की ओर मुड़ते हुए कहा- श्रीकृष्ण आवश्यक कार्यवश मथुरा में हैं और कार्य समाप्त होते ही ब‎‎‎‎्र‎ज लौट आएंगे। गोपियों ने कहा उद्धव जी हम आजीवन उनकी प‎‎्र‎तीक्षा करेंगे। हम तो उनके दर्शन के लिए तड़प रहे हैं। वह हमारे ह्नदय में हैं। हमारा कन्हैया हमारे पास ही है। बस सामने नहीं आता। दिखाई नहीं देता। वह सुनो, कदम्ब की डाल पर बैठकर वह बांसुरी बजा रहा है। क्या तुम्हें मुरली की धुन सुनाई नहीं पड़ रही?


उद्धव मुस्कुरा पड़े। तभी एक गोपी ने कहा वह कन्हैया को नित्य माखन खिलाती है। कन्हैया कहता भी है- तेरा माखन ना खाऊं तो चैन नहीं पड़ता। दूसरी बोली- यमुना तट पर जल से भरी मटकी सिर पर रखने में कान्हा नित्य मेरी सहायता करता है। मार्ग में मेरे आगे-आगे चलता और बात करता रहता है। एक अन्य गोपी ने कहा कि हम तो जब भी किसी काम के लिए अपने कन्हैया को बुलाते हैं, वह दौड़ा चला आता है और काम निपटाकर चला जाता है। संयत और सधे स्वर में एक अन्य गोपी बोली- हमारा कान्हा तो वृंदावन के हर लता, वृक्ष, कुंज और गलियों में है। उद्धव ने सोचा- प्रेम में पागल होना सुना तो था, लेकिन देखा आज ही। मन ही मन उन्होंने कहा- प्रेम दीवानी युवतियों को समझाना पानी में पत्थर तैराने जैसा ही असंभव होता है। प्रेम बुद्धि को कुंद कर देता है। दिगभ‎‎‎‎्रम का शिकार बना देता है।


उद्धव की खीझ बढ़ गई। उन्होंने कहा जितना प्रेम तुम श्रीकृष्ण से करती हो, उतना परम ब‎‎्रह्म से करतीं तो तुम्हारा कल्याण हो जाता। तुम्हें दुख नहीं भुगतना पड़ता। परम ब‎‎्रह्म निर्गुण निराकार है। वह अपने भक्तों के साथ सदैव रहता है। मानवीय प्रेम दुख देता है, जबकि ईश्वरीय प्रेम आनंद। विवेक की आंखें खोलो। परम ब‎‎्रह्म सृष्टि का नियंता है। उसका निर्माता और पालक भी। आनंद ही नहीं, वह परमानंद प्रदाता है। वह हर स्थान पर उपस्थित है। इसीलिए उसे पाने के लिए इधर-उधर भटकने की भी आवश्यकता नहीं। वह पृथ्वी, आकाश, वायु, जल, वृक्ष, लता, लकड़ी, पत्थर, सब जगह है। जड़ चेतन हर स्थान पर ईश्वर विराजमान है। यहां तक कि हमारे और तुम्हारे भीतर भी वह उपस्थित है। उसे पाने के लिए बस शांतचित्त आंख मूंदकर बैठने, ध्यान लगाने की जरूरत है। उद्धव को लगा बोलते-बोलते वह हांफ गए। किंचित मौन रहकर उन्होंने सांस लिया और गोपियों की ओर देखा। गोपियां मौन अपने कार्यव्यापार में व्यस्त थीं। उद्धव ने फिर कहना शुरू किया- ब‎‎्रह्म का आकार नहीं होता। ना उसके हाथ हैं ना पैर। उसके मुंह और पेट भी नहीं होता। वह जन्म नहीं लेता। उसका कोई पिता नहीं, ना ही कोई उसकी माता होती है।


उद्धव की अंतिम बातें सुनकर गोपियों के चेहरे आश्चर्य से भर गए। जिज्ञासा से भरी एक गोपी सवाल कर बैठी- तुम्हारे ब‎‎्रह्म के जब मुंह- पेट ही नहीं हैं तो वह माखन कैसे खाएगा? और फिर बांसुरी कैसे बजाएगा? दूसरी ने सवाल उठाया- जब उसके हाथ- पैर ही नहीं हैं तो वह हमारे साथ नाचेगा कैसे? और फिर इन्द‎‎‎‎‎्र के नाराज होने पर गोवर्धन पर्वत कैसे उठाएगा? संकट से हमें कैसे बचाएगा? देखादेखी एक अन्य गोपी बोल पड़ी- तुम्हारे ब‎‎्रह्म के मां-बाप ही नहीं है। वह पैदा ही नहीं होता तो किसी का प‎‎्रेमी कैसे हो सकता है? उद्धव को लगा उनका ज्ञान काम कर गया। गोपियों ने बोलना तो शुरू किया। सवाल तो उठाए। बातचीत तो बढ़ी। उद्धव ने गंभीर मुद‎‎‎‎‎‎्रा बनाते हुए कहा- निर्गुण निराकार ब‎‎्र्रम्ह किसी का कुछ नहीं खाता। वह सबको खिलाता है। वह किसी के साथ नाचता नहीं, सृष्टि उसके संकेत पर नाचती है। वह परम पिता परमात्मा है। हमारा जन्मदाता, रखवाला और उद्धारक। अनन्त प्रेम से भरा वह सच्चिदानंद है। वह सब को आनंद देता है। इसलिए ब‎‎्रह्म ज्ञानी के पास दुख नहीं आता।


उद्धव की बात सुनकर गोपियों के चेहरे मुरझा गए। उनके चेहरे पर उभरी जिज्ञासा लुप्त हो गई। उन्होंने कहा उद्धव जी, ऐसे ब‎‎्र्रम्ह के साथ हमारी पटरी नहीं बैठ सकती। जो समूची सृष्टि को तो नचाएगा पर स्वयं नहीं नाचेगा। वो हमें देता तो रहेगा, लेकिन हम उसे कुछ नहीं दे पाएंगे। इस तरह तो हम याचक और वह दाता हो जाएगा। वह स्वामी और हम सेवक बन जाएंगे। हमारा स्थान निम्न और उसका उच्च होगा। उद्धव जी, प्र्रेम और सम्मान का संबंध तो बराबरवालों में ही चलता है। ऊंच- नीच का यह संबंध कितने दिन निभेगा? हमारे और कान्हा के बीच तो बराबरी का संबंध है। ना कोई ऊंचा ना नीचा। ना स्त्री, ना पुरुष। बिना भेदभाव के कान्हा हमारे कार्यों का सहभागी होता है। हम खाना बनाती हैं और उसका भोग लगाती हैं। वह प्रेम से भोजन कर लेता है। हम कहीं जाती हैं तो उससे निवेदन कर लेती हैं, वह हमारे साथ चल देता है। हम तो हर काम से पहले उसे बुला लेतीं है और वह कभी मना नहीं करता। जन्म- मृत्यु से लेकर शादी- विवाह तक हमारे सारे काम वह निर्विघ्न सम्पन्न करा देता है। हम नित्य सुबह उठते ही उसे बुलाती हैं और फिर वह दिनभर हमारे साथ रहता है।


गोपियों की बातें सुनकर उद्धव को लगा वास्तव में इन अनपढ़ गंवार स्त्रियों को समझाना सरल नहीं है। इनकी बुद्धि पर प्रेम का आवरण पड़ा है। विवेक प्रेम के अतिरेक का शिकार है। उन्होंने दूसरा तर्क गढ़ते हुए फिर बात आगे बढ़ाई। ईश्वर के बनाए पंचतत्वों से सबका शरीर बनता है। इसलिए सब एक जैसे ही होते हैं। ना स्त्री, ना पुरुष। ना कोई ऊंच ना नीच। अज्ञानता के कारण हम एक दूसरे में भेदभाव करते हैं। एक दूसरे को अलग मानते हैं। हम भेद करके देखते हैं, जबकि अलगाव है ही नहीं। ज्ञान की आंखों से देखो तो कृष्ण और तुम एक ही हो। यही नहीं, ईश्वर के साथ भी हमारा ऐसा ही नाता है। बूंद और समुद‎‎्र की तरह। जल समान है और अन्त में समुद‎‎्र में ही मिल जाना है। इसलिए प्रणियों में ही नहीं ईश्वर के साथ भी अलगाव की भावना मूलत: गलत है।


उद्धव ने गोपियों को समझाने की दृष्टि से कहा- तुम्हारा मन चंचल और सांसारिक हैं। माया के अधीन है, इसलिए तुम अपने को कृष्ण से अलग मान रही हो। चंचल मन शारीरिक और मानसिक विकार उत्पन्न करता है। मन की चंचलता तनाव का कारण होती है। तन और मन को दुर्बल करती है। मन को एकाग‎‎्र करो। उसे निर्गुण निराकार ब‎‎्रह्म में लगाओ। इससे मनस्थिति ठीक होगी। ऋषि मुनि इसे योग कहते हैं। योग मानसिक शांति देता है। इसी से ध्यान लगता है। योगीजन ध्यान के माध्यम से ही ईश्वर की प‎‎्राप्ति करके परमानंद पाते हैं। मोक्ष और स्वर्ग पाते हैं। उद्धव आगे कुछ कहते तभी एक गोपी बोल पड़ी- उद्धव जी, हम समझ नहीं पा रहे हैं कि आप हमें क्या समझा रहे हैं। प्रेम वियोग में हमारे शरीर तप रहे हैं और आप योगियों की धूनी की गरम राख हमें मलने की सलाह दे रहे हैं। प्यारे श्रीकृष्ण के दर्शन के लिए हम अपनी आंखें रात दिन खोले रखते हैं और तुम हमें आंख मूंदकर ध्यान लगाने की सीख दे रहे हो। हमें मानसिक शांति का पाठ पढ़ा रहे हो।


एक अन्य गोपी बोल पड़ी- उद्धव, तुम हमें योगी बनने का पाठ क्यों पढ़ा रहे हो। हम सर्वांग सुंदरी हैं। श्रीकृष्ण को हमारा सौंदर्य और हमारी सौंदर्यपि‎‎्र‎यता भाती है। फिर हम योगियों की तरह अपना शरीर सुखाकर ईश्वर पाने की कोशिश क्यों करें? हमारे पास इतने सुंदर वस्त्र, आभूषण हैं। हम योगी बन गए तो उनका क्या होगा? हम कोमलांगीं हैं। इतनी कठोर साधना कैसे कर पाएंगीं? तुम्हारे ईश्वर को क्या सुंदरता बिल्कुल पसंद नहीं? वह क्या हमें इसी रूप में नहीं अपना सकता? हम योगी बन गए तो संसार से हमारा नाता टूट जाएगा। फिर हमारे घर-परिवार और गायों की देखभाल कौन करेगा। हमारे अन्य सांसारिक काम कैसे होगें? एक अन्य गोपी बोली- उद्धव जी, हमें और हमारे आराध्य को रूप, रस, गंध और रंग प‎‎‎‎्रय है। हमें भी उसी में आनंद मिलता है। रूप, रस, रंग, गंधहीन का ध्यान लगाकर हमें कैसे आनंद मिल सकता है?


उद्धव निरुत्तर हो गए। गोपियों के आगे वह ठगे से खड़े रहे। जीवन में अब तक उनसे इस तरह की बातें किसी ने नहीं की थीं। वे सोचने लगे श्रीकृष्ण के प्रेम में गोपियां इस तरह बिंधी हैं जैसे कांटे में मछली। गोपियों को श्रीकृष्ण के प्रेम से निकालना कठिन है। समझाने की दृष्टि से उन्होंने अंतिम प्रयास करते हुए कहा- ईश्वर की ओर मन लगाने से धन, रूप, ईश्वर और मुक्ति, तुम जो चाहोगी, तुम्हें मिल जाएगा। उद्धव आगे कुछ बोलते कि गोपियां बोल पड़ीं- उद्धव जी, हमें ना तो धन संपदा चाहिए और ना ही मुक्ति। हम स्वर्ग भी नहीं चाहते और ना ही हमें भोग विलास चाहिए। हम तो चाहते हैं कि जन्म जन्मांतर तक मनमोहन के प्रति हमारा प्रेम इसी तरह बना रहे। हम तो बार-बार जन्म लेकर भी उनके प्रेम में ही डूबे रहना चाहते हैं।


एक गोपी ने कहा- उद्धव जी, हम सरल सीधी युवतियां हैं। मनमोहन को अपने ह्नदय में हमने नहीं बसाया। वह तो स्वयं हमारे ह्नदय में आ बसा और हमारा सुख चैन लूट ले गया। सोचो, अब हम फिर किसी दूसरे को ह्नदय में बसाएंगे तो हमारी दशा क्या होगी? इसके अलावा जो दिखता है, हम उसे ही सच मानतीं हैं। जिसको देखा ही नहीं, उस पर कैसे विश्वास कर सकतीं हैं? और रही मन की बात। हमारे पास एक ही मन था, वह भी मनमोहन के साथ चला गया। अब हम दूसरा मन कहां से लाएं? हमारे पास कोई दस-बीस मन तो हैं नहीं। एक अन्य गोपी बोली- उद्धव जी, हमें अपने सुख की चिंता नहीं है। हम जिसे प्रेम करते हैं, उसका सुख ही हमारा सुख है। हम अपने लिए नहीं, अपने प‎‎‎‎्रय के सुख के लिए चिंतित रहती हैं। एक अन्य ने कहा कि उद्धव जी जैसे सुख के दिन कट गए, वैसे ही हमारे यह दुख के दिन भी कट जाएंगे। मनमोहन कभी तो दर्शन देंगे। कभी तो आएंगे।


उद्धव को लगा गोपियों की प्रेम बयार में उनका ज्ञान तिनके की तरह उड़ रहा है। तर्क शक्ति जवाब देने लगी है। सारा ज्ञान वंध्या की तरह निष्फल हो उठा है। उद्धव ने सोचा श्रीकृष्ण के प्रेम में गोपियां इस तरह डूबी है कि इन्हें संसार का ज्ञान ही नहीं रह गया। सांसारिक आचरण से यह ऊपर हो गई हैं। गोपियां प्रतिक्षण श्रीकृष्ण का ध्यान, भजन कर रही हैं। श्रीकृष्ण का प्रेम ही उनका ज्ञान, ध्यान, धर्म और कर्म बन गया है। उद्धव के भीतर गोपियों के प्रति ‎‎धन्यता का भाव जागने लगा। उन्हें लगा बड़े-बड़े योगी और साधु, समाधि लगाकर संसार को भुलाने और अपने आराध्य में ध्यान लगाने की कोशिश करते हैं, लेकिन सफल नहीं हो पाते। उनकी वृत्तियां प्रभुमय नहीं हो पातीं, जबकि गोपियां स्मृति कराने पर भी संसार को याद नहीं कर पातीं। उनका ध्यान एक पल भी श्रीकृष्ण से अलग नहीं होता। गोपियों के प्रेम के प्रति उद्धव के मन में आदरभाव पनप उठा। ज्ञान से बंजर हुए मस्तिष्क में प्रेम का अंकुर फूट पड़ा। ज्ञान की गूदड़ी में उन्हें प्रेम का हीरा मिल गया। उद्धव शांत हो गए। उन्हें लगा कि उन्होंने ज्ञानार्जन तो बहुत किया, लेकिन ज्ञानानुभव आज ही हुआ। उनका मन श्रद्धा से भर उठा। मस्तक वृंदावन की प्रेम भूमि पर नत हो गया।


श्रद्धावनत उद्धव के हाथ राधा के पैरों पर जा टिके। राधा के पैरों पर उद्धव के हाथ देख गोपियां हतप्रभ रह गईं। गोपियां आश्चर्य से भर उठीं। उनकी आंखें प्रेम से बड़ा ज्ञान और ह्नदय से बड़ी बुद्धि बताने वाले तत्वज्ञानी की दशा देखकर आश्चर्य से भर उठीं। उद्धव प्रेम में डूबे थे। उनका ह्नदय प्रेमसागर में गोते लगा रहा था। उन्हें अपनी दशा का ज्ञान नहीं रह गया। बुदबुदाते हुए उद्धव ने कहा जन्म-जन्मांतर वृंदावन में ही मेरा जन्म हो। कृष्ण के प्रति मेरा प्रेम भी गोपियों जैसा ही रहे। मानव रूप में जन्म ना मिले तो भी वृंदावन के पशु-पक्षी, लता- वृक्ष के रूप में जन्म लेता रहंू। मुझे मुक्ति नहीं चाहिए। राधा ने उन्हें उठाया। उद्धव की आंखों से प्रेम के अश्रु बह रहे थे। वे वृंदावन की धूल में लोट गए।