Sunday, June 26, 2016

विश्व हिन्दी सम्मेलनः परंपरा की सार्थक पहल




(आकाशवाणी इलाहाबाद द्वारा 14 सितंबर 2016 को प्रसारित मेरी वार्ता)                                  
भोपाल में आयोजित दसवां विश्व हिन्दी सम्मेलन कई मायनों में महत्वपूर्ण है। यह परंपरा का निर्वाह मात्र नहीं है। ना ही इस कारण महत्वपूर्ण है कि यह भारत में हो रहा है और इसका उदघाटन भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी ने किया है। वास्तव में भोपाल में आयोजित यह दसवां विश्व हिन्दी सम्मेलन कई अर्थों में परंपरा की सार्थक पहल है। भोपाल सम्मेलन में हिन्दी के सामने खड़े समकालीन मुद्दों और विषयों पर विचार विमर्श किया जाएगा। यह बात पिछले सम्मेलनों से थोड़ा अलग है। यह ठीक है कि विश्व हिन्दी सम्मेलन का आयोजन भारत में तीसरी बार हो रहा है, लेकिन इससे पहले इस तरह के व्यावहारिक विषयों पर गंभीर चर्चा कम ही हुई है। हिन्दी प्रेम और तदजन्य भावुकता विषयों पर प्रभावी रहती थी, इससे हिन्दी के लिए संस्थागत काम तो बहुत हुए, लेकिन हिन्दी भाषा की समृद्धि उतनी नहीं हो सकी, जितनी होनी चाहिए। इस बार दसवें विश्व हिन्दी सम्मेलन में चर्चा का मुख्य विषय ही हिन्दी के सामने खड़ी नई परिस्थितियां और उसके विकास में आ रही चुनौतियां हैं। स्पष्ट है कि हिन्दी के सामने खड़े इन समकालीन मुद्दों और विषयों पर बात करने से भाषा का विकास होगा। इसी कारण मैं इसे परंपरा की सार्थक पहल कहता हूं।

सन 1975 में प्रथम विश्व हिन्दी सम्मेलन का उद्घाटन करते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने नागपुर में कहा था कि हिन्दुस्तान की चेतना में वसुधैव कुटुम्बकम का भाव है, इसलिए हिन्दी वसुधैव कुटुम्बकम के भाव की वाहक बने। इस पहले सम्मेलन ने हिन्दी प्रेमियों और विद्वानों के बीच इतनी भाव और भावना भर दी कि वह 1993 में मारिशस के पोर्ट लुईस में सम्पन्न चौथे विश्व हिन्दी सम्मेलन तक वसुधैव कुटुम्बकम ही विश्व हिन्दी सम्मेलनों का मूल विचार विन्दु बना रहा। तेज बयार की तरह चली भावनात्मक वसुधैव कुटुम्बकम की इस हवा ने 1996 में टिनीडाड एंड टोबैको के पोर्ट आफ स्पेन में आयोजित पांचवें और 1999 में लंदन में आयोजित छठे विश्व हिन्दी सम्मेलन को भी प्रभावित किया। पांचवें सम्मेलन का मुख्य विचार विन्दु अप्रवासी भारतीय और हिन्दी तथा छठे सम्मेलन का मुख्य विचार विन्दु हिन्दी और भावी पीढ़ी रहा। यानी इन दोनों सम्मेलनों में भी भाषा और उसके सामने आ रही चुनौतियों की चर्चा कम ही हुई। सन 2003 में जब 21वीं शताब्दी के लगभग तीन वर्ष बीत चुके थे, तब सूरीनाम के पारामारिबो में सातवां विश्व हिन्दी सम्मेलन हुआ और तब इस सातवें विश्व हिन्दी सम्मेलन में पहली बार विश्व हिन्दी – नई शताब्दी की चुनौतियां, विषय चर्चा का आधार केन्द्र बना, लेकिन अमेरिका के न्यूयार्क शहर में 2007 में आयोजित आठवें और सन 2012 में दक्षिण अफ्रीका के जोहांसबर्ग में आयोजित नवें विश्व हिन्दी सम्मेलनों में विषय फिर भाषा के प्रचार प्रसार जैसे ही हो गए।

यही कारण है कि इन पिछले हिन्दी सम्मेलनों को देखकर हिन्दी के गंभीर अध्येताओं के बीच यह माना जाने लगा कि विश्व हिन्दी सम्मेलन के कर्ताधर्ताओं के बीच हिन्दी प्रेम की भावना और तदजन्य उसका प्रचार प्रसार प्रमुख है, हिन्दी को एक भाषा के रूप में सहजता से विकसित होने देने और उसका वैज्ञानिक स्वरूप देने में उनकी रूचि नहीं है। यही कारण है कि भोपाल में हो रहे दसवें विश्व हिन्दी सम्मेलन में जब हिन्दी की दशा दिशा के साथ उसके सामने नई प्रौद्योगिकी से खड़ी हुई चुनौतियां और उनके निराकरण के विषय, चर्चा में रखे गए तो हिन्दी प्रेमियों को लगा कि सचमुच यह हिन्दी के विकास के लिए गंभीर और सार्थक प्रयास है। 

भोपाल में आयोजित दसवें विश्व हिन्दी सम्मेलन में हिन्दी के प्रचार प्रसार के साथ हिन्दी भाषा के सामने खड़ी चुनौतियों और उनसे निपटने के लिए किए जाने वाले प्रयासों और रणनीतियां चर्चा का आधार विन्दु बनीं है। निश्चित ही यह सार्थक प्रयास कहा जाएगा। दसवें सम्मेलन के चर्चा के सत्रों में विज्ञान और प्रौद्योगिकी, सूचना और प्रौद्योगिकी, प्रशासन और विदेश नीति, विधि, मीडिया आदि के क्षेत्रों में हिन्दी के सामान्य प्रयोग और विस्तार से संबंधित तौर तरीकों पर चर्चा की जाएगी। दसवें सम्मेलन में विदेशों में हिन्दी की स्थिति और उसके प्रचार प्रसार पर भी चर्चा होगी। इसी कारण दसवें विश्व हिन्दी सम्मेलन की चर्चा का मुख्य आधार विन्दु हिन्दी जगतः विस्तार एवं संभावनाएं है। स्पष्ट है कि एक ओर हिन्दी भाषा को वैश्विक स्तर के लिए तैयार करने की रूपरेखा बनेगी तो दूसरी ओर उसके प्रचार प्रसार की रणनीति तय होगी। भाषा की कमियों, खामियों को दूर किए बिना अथवा उसे समकालीन प्रौद्योगिकी के अनुकूल बनाए बिना हम हिन्दी को दुनिया भर में फैला नहीं सकते। यह सीधी साफ बात है। इसीलिए मैं कहता हूं कि पहली बार भावनाओं से ऊपर उठकर सम्मेलन में व्यावहारिक दृष्टि आई है, जो हिन्दी के लिए हितकर है।

दसवें विश्व हिन्दी सम्मेलन में हिन्दी भाषा की भारत में वर्तमान स्थिति, नई प्रौद्योगिकी के कारण उसके बिगड़ते या कह लीजिए अशुद्ध होते रूप पर भी चर्चा होगी। चर्चा में समस्याओं के कारण और उनके निवारण पर विचार विमर्श होगा। विदेश नीति में हिन्दी को शामिल करने, प्रशासन के कामकाज में हिन्दी को बढ़ाने, विज्ञान क्षेत्र में हिन्दी के प्रयोग, संचार और सूचना प्रौद्योगिकी में हिन्दी की उपस्थिति पर रणनीति बनाई जाएगी। एक सत्र में तो जनता से सीधे जुड़े और उसे सर्वाधिक प्रभावित करने वाले विधि एवं न्याय क्षेत्र में हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं की स्थिति पर विचार विमर्श होगा। इसी सत्र में हिन्दी पत्रकारिता और संचार माध्यमों में भाषा की शुद्धता पर विचार विमर्श किया जाएगा। देश और विदेश में हिन्दी प्रकाशनों की समस्याएँ और उनके निराकरण पर रणनीति बनाई जाएगी। स्पष्ट है कि सम्मेलन में चर्चा के लिए वे ही सारे विषय और मुद्दे रखे गए हैं, जो समकालीन हिन्दी भाषा के सामने चुनौतियां बनकर खड़े हैं। आशा की जानी चाहिए कि सम्मेलन के बाद हिन्दी की चुनौतियां कम होंगी और हिन्दी का भारत में प्रचलन बढेगा और विदेशों में व्यापक प्रचार प्रसार होगा।

वास्तव में विश्व हिन्दी सम्मेलन की अवधारणा में भारतवंशी समाज एवं हिन्दी के बीच एक जीवंत संबंध बनाने का भाव निहित है। इन सम्मेलनों के माध्यम से यह कोशिश की जाती रही है कि विश्व हिन्दी मंच बन सके और हिन्दी का विकास अंतरराष्टीय भाषा के रूप में हो। हम सभी जानते हैं कि यह तभी संभव है, जब समकालीन प्रौद्योगिकी के साथ हिन्दी कदम से कदम मिलाकर चल सके। दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हो पाया। भारत के आम जन की भाषा होने के नाते वैश्विक दौर में हिन्दी को बाजार तो मिल गया, लेकिन उसकी अस्मिता पर प्रश्नचिह्न लगते रहे। पिछले विश्व हिन्दी सम्मेलनों में भाईचारे के नाते भावनात्मक रूप से हिन्दी की अस्मिता की बात तो की गई, लेकिन उसके लिए कोई सार्थक प्रयास नहीं किए गए। पहली बार सही चुनौतियों को पहचान कर, उनके हल निकालने और हिन्दी भाषा की राह सरल कर उसे स्वाभाविक रूप से आगे बढ़ने देने की बात स्वीकारी गई है। स्वाभाविक रूप से हिन्दी को विकसित होने देने की स्थिति बनाने के लिए, देश और विदेश, दोनों जगहों पर जब सार्थक प्रयास होंगे, तभी हिन्दी अंतरराष्टीय भाषा बनेगी। अंतरराष्टीय भाषा बनकर हिन्दी विश्व हिन्दी मंच बनाकर समूचे भारतवंशियों को ही नहीं जोड़ेगी अपितु तमाम दुनिया की विभिन्न संस्कृतियों के लोगों को अपने साथ जोड़ लेगी। कुछ ऐसा ही अभीष्ट है भोपाल में हो रहे दसवें विश्व हिन्दी सम्मेलन का।

भोपाल सम्मेलन की एक और विशेषता यह होगी कि वह स्पष्ट करेगा कि भाषा सिर्फ साहित्य नहीं होती। उससे ऊपर उठकर हिन्दी का प्रचार प्रसार और विस्तार होना चाहिए। सम्मेलन में सरकारी हिन्दी को सरल बनाने और बाल साहित्य को समकालीन बनाने पर भी जोर दिया जाएगा। बाल साहित्य को समकालीन बनाने से बच्चों की हिन्दी के प्रति रूचि बढ़ेगी जो आज और कल दोनों समय काम आएगी। इसी क्रम में विज्ञान और चिकित्सा की पढ़ाई भी हिन्दी में कैसे हो, इस पर विचार किया जाएगा। एक तरह से कहें तो भोपाल में आधुनिकता और परंपरा का सम्मिश्रण देखने को मिलेगा। यही समय की मांग भी है।

Tuesday, June 21, 2016

राष्ट्र निर्माण में बाबा साहब डा. भीमराव अम्बेडकर का योगदान


( आकाशवाणी इलाहाबाद द्वारा बाबा साहब भीमराव अाम्बेडकर की जयंती 14 अप्रैल 2016 को प्रसारित)

            
 सदियों से गुलामी में दबे रहने के कारण विकृतियों से भरे भारतीय समाज को झकझोर कर जगाने वाले, उसे एक सूत्र और एक राष्ट्रीयता में बांधने वाले बाबा साहब भीमराव आंबेडकर का राष्ट्र निर्माण में अप्रतिम योगदान है। गुलामी के लंबे दौर में उत्कृष्ट मानवीय मूल्यों को भुलाकर भारतीय समाज, विभेदों की जिस खाईं में गिर चुका था, उस गर्त से भारतीय समाज को बाहर निकालने का वैचारिक आधार बाबा साहब ने दिया। बाबा साहब की वैचारिक क्रांति इतनी प्रभावकारी थी कि उनके समय के ही नहीं, आज के क्रांतिदृष्टाओं को भी बाबा साहब का जीवन और उनकी सोच अद्भुत लगती है। लोकतंत्र के आधार पर समाज को एकरस बनाने, समाज में समता और समानता लाने, पंथनिरपेक्ष मानवीय मूल्यों को सामाजिक जीवन में समादृत करने में उनकी सोच और उनके प्रयासों का कोई सानी नहीं था। इसीलिए बाबा साहब को भारतीय समाज में राष्ट्र निर्माता के सम्मान का उच्च शिखर प्राप्त हुआ।

बाबा साहब यानी डा.आंबेडकर का ज्ञान असीमित था। उन्होंने अर्थशास्त्र में उपाधियां प्राप्त की थीं। उन्होंने धर्मशास्त्र का गहन अध्ययन किया था। समाज शास्त्र के वे अव्दितीय विचारक थे। विधिवेत्ता थे। देश में जब स्वतंत्रता के लिए आंदोलन चल रहा था तो उसमें उनका शामिल होना तत्कालीन परिस्थितियों की मांग थी। परिणामस्वरूप डा. आंबेडकर स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़े। सामाजिक परिवर्तन की अपनी प्रबल आंतरिक इच्छा के कारण ही थोड़े समय में वे स्वाधीनता आंदोलन के अग्रणी नेताओं की पंक्ति में खड़े दिखने लगे। वे सामाजिक विचारक थे। वह मानते थे कि स्वतंत्रता, भारतीय समाज में बदलाव की बुनियादी जरूरत है। इसलिए वे आजादी की लड़ाई को लगातार वैचारिक आधार देते रहे। स्वाधीनता की लड़ाई ने उनके सामाजिक क्रांतिकारी व्यक्तित्व में एक कुशल राजनयिक का गुण जोड़ दिया। परिणामस्वरूप आजादी के बाद जब डा. आंबेडकर को संविधान निर्मात्री सभा में काम करने का अवसर मिला तो उन्होंने समतामूलक समाज बनाने में अहम योगदान दिया। यह कहना गलत नहीं होगा कि भारतीय संविधान को मानवीय मूल्यों की गरिमा से अलंकृत करने का काम डा. आंबेडकर के प्रयासों से ही संभव हुआ।

डा. आंबेडकर के जीवन और उनके विचारों को देखें तो पता चलता है कि वे प्रखर राष्ट्रवादी थे। राष्ट्र उनके लिए सर्वोपरि था। उनके जीवन में इसके अनेक उदाहरण हैं। आंबेडकर 1942 से 1946 तक केन्द्रीय विधान सभा में श्रम मंत्री थे। इसी अवधि में एक भारतीय सदस्य ने यह प्रस्ताव पेश किया कि दक्षिण अफ्रीका में रहने वाले भारतीयों को रंगभेद नीति के कारण बहुत परेशानी होती है, इसलिए उस सरकार की आर्थिक नाकेबंदी की जानी चाहिए। एक भारतीय द्वारा रखे गए इस प्रस्ताव का सभी योरोपियन सदस्यों ने विऱोध किया। इस पर डा. आंबेडकर को गुस्सा आ गया और उन्होंने टेबल पर हाथ पटकते हुए कहा- यह भारतीय लोगों के स्वाभिमान का प्रश्न है। आंबेडकर की इस मध्यस्थता के कारण ही काउंसिल ने यह बिल मंजूर किया।  

राष्ट्रवादी विचारक होने के ही कारण डा. आंबेडकर राष्ट्र के सबसे बड़े समुदाय हिन्दू समाज में समानता और समरसता चाहते थे। उनका पूरा जीवन हिन्दू समाज की कुरीतियों, मुख्य रूप से अस्पृश्यता से लड़ने में बीता। हिन्दू समाज में जड़ जमा चुके अस्पृश्यता के विरूद्ध आंदोलन खड़ा करते हुए उन्होंने कहा था कि हमें किसी का भी आशीर्वाद नहीं चाहिए। हम अपनी हिम्मत, बुद्धि और कार्यक्षमता के बल पर अपने देश के लिए और अपने लिए पूरी लगन से काम करेंगे। जो भी जागृत है, संघर्ष करता है, उसे अंत में स्थायी न्याय मिल जाता है। बरसों से कुरीतियों पर खड़े हिन्दू समाज में जब उन्हें अपने आंदोलन का असर ज्यादा नहीं दिखा तो उन्होंने हिन्दू धर्म छोड़ने की बात कह दी। हिन्दू धर्म छोड़ने की बात प्रचारित होते ही सिख, ईसाई और मुस्लिम धार्मिक संगठनों ने उन्हें अपने धर्म में शामिल होने का खुला न्योता दिया। डा. आंबेडकर ने उन सभी धर्मों में जारी ऊंच- नीच की व्यवस्था की आलोचना करते हुए उनके प्रस्ताव ठुकरा दिए। दरअसल, डा. आंबेडकर यह समझ गए थे उनकी प्रखरता, बुद्धिमत्ता और ज्ञान को देखते हुए ही तमाम धर्मावलंबी उन्हें हिन्दू धर्म छोड़कर अपने धर्म में आने का तरह- तरह से लालच दे रहे हैं।

डा. आंबेडकर मानते थे कि हिन्दू धर्म और समाज को शुद्ध करने के लिए और इसकी पुनर्रचना के लिए विचारों में परिवर्तन आवश्यक है। बौद्धिक विचार और बुद्धिवाद, इनका संघर्ष स्वरूप को न होकर राजनैतिक और सामाजिक स्तर का है। हिन्दू धर्म और समाज के बारे में ऐसे विचार के ही कारण डा. आंबेडकर तमाम गलत सही आलोचनाओं में घिरने लगे। स्वाधीनता आंदोलन के दौरान 1944 आते आते तो स्थिति इतनी विकट हो गई कि डा. आंबेडकर को कांग्रेसियों के एक आरोप का जवाब देते हुए यह तक कहना पड़ा कि भारत को अगर किसी ने धोखा दिया है तो वह अस्पृश्य समाज ने हरगिज नहीं दिया। अस्पृश्यों ने केवल न्याय का संरक्षण चाहा है और स्वराज की मांग का पूरा समर्थन किया है। दरअसल, गांधी से लेकर नेहरू तक अस्पृश्यता को धार्मिक और सामाजिक मुद्दा मानते थे, लेकिन आंबेडकर ने इसे राजनैतिक मुद्दा माना। डा. आंबेडकर ने कहा कि अस्पृश्यता का सवाल धार्मिक नहीं राजनैतिक है। स्वाधीनता आंदोलन के दौरान आंबेडकर के इस तरह के विचार उन्हें आलोचनाओं के घने घेरे में खींच ले गए।   

डा. आंबेडकर की प्रखर राष्ट्रवादिता उस समय भी खुलकर सामने आई जब संविधान समिति का गठन हुआ। संविधान समिति की बैठक शुरू होने के बाद 13 दिसंबर 1946 को जब संविधान समिति के ध्येयों और उद्देश्यों को स्पष्ट करने वाला प्रस्ताव रखा गया तो एक विधि विशेषज्ञ सदस्य ने उपसूचना प्रस्तुत की कि इस प्रस्ताव को तब तक पारित नहीं किया जाना चाहिए, जब तक मुस्लिम लीग और जमींदारों के प्रतिनिधि बैठक में शामिल नहीं होते। कांग्रेस के तमाम दिग्गज नेताओं ने इस उपसूचना का विरोध किया। संविधान सभा के अध्यक्ष डा. राजेन्द्र प्रसाद थे। उन्होंने उपसूचना का विरोध करने वाले कांग्रेसी दिग्गजों को छोड़कर खामोश बैठे डा. आंबेडकर को इस पर विचार रखने को कहा। तमाम कांग्रेसियों को डा. राजेन्द्र प्रसाद का यह अनुरोध पसंद नहीं आया। वे कानाफूसी करने लगे, लेकिन डा. राजेन्द्र प्रसाद के कहने पर डा. आंबेडकर बोलने खड़े हुए और उन्होंने आधे घंटे तक धाराप्रवाह उपसूचना के विरोध में अपने तर्क दिए। अपने भाषण में डा. आंबेडकर ने कहा कि आज हम भले ही राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से टूट गए हों, फिर भी परिस्थिति और समय अनुकूल होते ही हमारी एकता को कोई रोक नहीं सकेगा। भले ही आज मुस्लिम लीग हिन्दुस्तान के टुकड़े करने के लिए आंदोलन चला रही है, फिर भी एक ऐसा भी दिन उदित होगा जब वह भी महसूस करेंगे कि अखंड भारत ही हम सबके लिए हितकर है। बर्क के वाक्य को उदधृत करते हुए डा. आंबेडकर ने कहा कि शासनाधिकार सौंपना तो सरल बात है, मगर समझदारी देना कठिन है। सबको साथ लेकर आगे बढ़ने और आगे चलकर हमारी एकता बलवान हो, ऐसा मार्ग अपनाने की हममें क्षमता है, शक्ति है तथा बुद्धिमत्ता है। इसे हम अपने व्यवहार से सिद्ध करने का प्रयास करें। कहने की जरूरत नहीं कि अगले दिन के सारे अखबारों की हेडलाइन डा. आंबेडकर की यही लाइन रही कि अखंड हिन्दुस्तान की घोषणा।   

अपने देश और समाज से उत्कट प्यार करने वाले डा. आंबेडकर विदेश से आयातित विचारों के भी विरोधी थे। वे अपने देश और समाज को सुधारना चाहते थे। इसके लिए वह अपने देश और समाज के लोगों को ही तैयार करना चाहते थे। वह मानते थे कि हमारी समस्या हमीं सुलझा सकते हैं। कोई दूसरा या बाहरी हमारी समस्याएं नहीं सुलझा सकता है। उनकी स्पष्ट मान्यता थी कि भारत से उपजी वैचारिक क्रांति ने ही हजारों वर्षों से दुनिया को राह दिखाई है। यही कारण था कि 1945 में अखिल भारतीय दलित फेडरेशन की वार्षिक आम सभा को संबोधित करते हुए डा. आंबेडकर ने अपने सदस्यों को आगाह करते हुए कहा था कि हमारी बहुत प्रगति हो चुकी है। गुड़ की भेली के आसपास चींटे जमा हो जाते हैं। वे गुड़ की रक्षा करने के लिए नहीं आते, गुड़ खाने के लिए पहुंचते हैं। उसी तरह अब ये कम्युनिस्ट वगैरहा, अनेक दल स्नेह संबंध बढाने के लिए हमारे आसपास मंडरा रहे हैं। हमें इनसे सावधान रहना है। आजादी के बाद 1951 में लखनऊ यूनिवर्सिटी के छात्रों की एक सभा को संबोधित करते हुए भी डा. आंबेडकर ने कहा कि यदि देश कम्युनिस्ट हो जाता है तो फिर इस देश का भवितव्य खतरे में पड़ जाएगा।
इस तरह डा. आंबेडकर का पूरा जीवन अपने देश और समाज को मजबूत करने, उसकी कमियों को दूर करने, उसकी बुराइयों को मिटाने के लिए समर्पित रहा। डा. आंबेडकर के विचार उनके असीमित ज्ञान से प्रखरता पाते थे, इसलिए उसमें समझौते की गुंजाइश नहीं थी। वे पूरे समाज को इसी तरह ज्ञान से ओतप्रोत देखना चाहते थे। तेजस्विता से भरना चाहते थे। व्यक्तिपूजा की आड़ लेकर कर्तव्यहीन होने को वे उचित नहीं मानते थे। समय और परिस्थितियों का अध्ययन करते हुए तदजन्य आई समस्याओं से निपटने की योग्यता से वे समाज के हर व्यक्ति को भरापूरा देखना चाहते थे। इसी कारण 30 अक्टूबर 1945 को डा. आंबेडकर ने पुणे में आंबेडकर स्कूल आफ पालिटिक्स का उदघाटन करते हुए कहा था - मेरे मरणोपरांत मेरे विचार या संप्रदाय की संस्था मत बनाइए। जो समाज या संस्था काल और समय के अनुसार अपने विचारों को नहीं बदलती या बदलने को तैयार नहीं होती, वह जीवन के संघर्ष में टिक नहीं सकती।  


डॉ. प्रदीप भटनागर, वरिष्ठ पत्रकार