पिछले दिनों इलाहाबाद जाना हुआ। हालॉकि जाना पड़ा था, एक दुखद संदर्भ में। फिर भी सभी से मेल मुलाकात हो गई। कर्नलगंज से लौट रहा था तो देखा किशोर उम्र के कुछ लडक़े गली में खेल रहे हैं। मैं दरवाजे पर खड़ा विदाई ले रहा था कि एक अधेड़ उम्र का आदमी चिल्लाता हुआ आया और खेल रहे एक लडक़े से मुखातिब होते हुए बोला- अबे सुनाई नहीं देत का। एक घंटा से माई गोहार रही है।
उस आदमी का चिल्लाना सुनकर लडक़ों का खेल थम गया, लेकिन 13-14 साल का एक लडक़ा आगे बढक़र गुस्से में चिल्लायाा- आईत थी ना। एक घंटा से चिल्लाय रहे हो। अबहिन गरियाय-ओरियाय देबै तो सबसे कहबो मोर बेटवा गरियावत है।
यह दृश्य देख-सुनकर मेरा विश्वास और दृढ़ हो गया कि सचमुच इलाहाबाद नहीं बदला।