Tuesday, February 2, 2010

मेरा इलाहाबाद

न तो इलाहाबाद को अपने भीतर जीने वालो की कमी है और न ही ऐसे लोगो की जिनको इलाहाबाद ने अपने भीतर जिलाये रखा है। ये वही लोग है जो इलाहाबाद की पहचान बने और जिन्होंने साहित्य, संस्कृ ति व समाज में इलाहाबाद को पहचान दिलाई। यहां हम ऐसे ही कुछ लोगों के उन वाक्यों को प्रस्तुत कर रहे हैं जो उन्होंने अपनी पुस्तक या फिर किसी साक्षात्कार के दौरान इलाहाबाद के संदर्भ मे कही हैं।

प्यारी-प्यारी शरारतों की बारीक अंतर्धारा
धर्मवीर भारती
इक्कीस बरस पहले गंगाजल, दोस्तियों, छायादार लंबी सडक़ों, कविताओं, धूप-धूप फूलों, बहस-मुबाहसों, साइकिलों, पर चक्कर लगाते छात्र-कवियों और बेलोस गप्पेबाजीयों और महकती फिजाओं का एक शहर हुआ करता था। था इसलिए लिख रहा हूं कि शहर अब भी है पर वह नहीं है जो हुआ करता था, परिमल उस समय छाया हुआ था, निकष और नई कविताओं ने धूम मचा रखी थी पर उस परिमल मंडली के अलावा एक नया लेखक वर्ग क्षितिज पर उग रहा था- अजित, ओंकार, मार्कंडेय, जितेंद्र, कमलेश्वर, दुष्यंत। तब तक यह नहीं हुआ था कि सैद्धांतिक मतभेदों के कारण किसी का कृ तित्व नकारा जाये या व्यक्तिगत कीचड़-उछाल में मुब्तिला हुआ जाये। लोग अपनी श्रेष्ठ उत्कृष्ट रचनाओं के द्वारा स्थापित करने के आकांक्षी थे, और सबसे प्यारी बात यह थी कि सारे जोरदार बहस-मुबाहसों के बीच एक आत्मीय भरे परिहास की, निर्दोष प्यारी-प्यारी शरारतों क ी बारीक अंतर्धारा किांदगी और साहित्य मे एक ताजगी बनाये रखती थी।

पत्रकारिता की प्रारम्भिक शिक्षा यहीं मिली
नेमिचन्द्र जैन
मेरे मन मे इलाहाबाद के लिए बहुत सम्मान और कृतज्ञता का भाव है, क्योंकि जो कुछ मैने यहां हासिल किया उससे मैं आगे के जीवन में अपने-आपको अधिक सार्थक काम में लगा सका। एक बहुत महत्वपूर्ण चीज जो मैंने सीखी, वह थी प्रतीक के दो अंकों, लगभग दो वर्षों में एक साहित्यिक पत्रिका निकालने के लिए किस तरह का दृष्टिकोण होना चाहिए, इसकी बड़ी भारी शिक्षा मुझे मिली। फिर एक व्यावसायिक पत्रिका ंमनमोहन ं को एक वर्ष तक चलाने का अनुभव भी मिला। यह एक तरह की पत्रकारिता संबंधी मेरी प्रारंभिक शिक्षा है, जो इलाहाबाद में उन दिनों में हुई। जिसका बाद में कई रूपों में उपयोग हुआ। मैं निश्चित रूप से कह सकता हूं कि इलाहाबाद के परिवेश में भले ही मेरा अपना सृजन कर्म इतना प्रभूत और विशद न हुआ हो, उतना साफ-साफ स्पष्ट न हुआ हो पर उसके लिए कुछ हद तक मेरी तैयारी यहां हुई और वह बड़ा भारी संयोग था मेरे अपने व्यक्तित्व को निखारने का। बाद की जिंदगी में मैं जो कुछ कर सका उसके लिए इस परिवेश की अपनी जीवंतता और शक्ति थी, जिसने यह मुमकिन बनाया और मैं हमेशा बहुत कृतज्ञ हूं उन दिनों के लिए, जो मैने इलाहाबाद में बिताये।

इलाहाबाद ने ही मुझे प्रश्रय दिया
नरेश मेहता
मैंने इलाहाबाद क्यों चुना? मैं यहां नौकरी करने नहीं आया था। संसार में इलाहाबाद ने ही मुझेे प्रश्र्रय दिया। क्योंकि तब तक का इलाहाबाद आज के इलाहाबाद से तुलनीय नहीं हो सकता। तब के इलाहाबाद में न इतने लोग थे, न इतने मकान थे। यह आधुनिकता वाला लिबरल शहर था। जहां अगर बड़े-बड़े मकान थे तो बड़े-बड़े लोग भी थे। आज लोग ज्यादे हैं, लेकिन लगता है कि लोगों के शायद नाम खो गए हैं। आज के इलाहाबाद के माध्यम से उस समय के इलाहाबाद को, जिसने कि हमें खींचा, नहीं जाना जा सकता है। साहित्य के लिए, अपनी अस्मिता को जानने के लिए, अपनी सर्जनात्मकता को जानने के लिए उस समय इलाहाबाद का बड़ा महत्व था।

असंभव को संभव बनाने की कोशिश
कमलेश्वर
एक पूरा परिवेश जो एक पहचान देता है। वह पहचान शायद बहुत बड़ी पहचान होती है और वही बहुत बड़ी पहचान चाहे वह डा. धर्मवीर भारती के साथ रही हो, चाहे वह यहां से बाहर अन्य लेखकों के साथ रही हो, या उन लेखकों के साथ जो लेखक इलाहाबाद फिर लौट आये और या जिन्होंने इलाहाबाद को ही चुना, तो निश्चित रूप से कहीं न कहीं यहां से लगा था कि इलाहाबाद में जिस तरह से मंै देखता था यूनिवर्सिटी में, हिन्दी विभाग में भी, जबकी हम जाते थे अलग-अलग अपनी क्लासेज के लिए मित्रों से अलग तब भी देखते थे कि इलाहाबाद हमेशा बड़े विचारों क ो लेकर, इलाहाबाद हमेशा किसी न किसी महास्वपनों को लेकर, इलाहाबाद किसी न किसी एक असंभव स्थिति को लेकर जीता है। एक असंभव स्थिति को संभव बनाने की कोशिश में इलाहाबाद ने लेखन की एक शपथ हमसे ली थी।

इलाहाबाद है तो है
भैरव प्रसाद गुप्त
इलाहाबाद संस्कृति का क्षेत्र है, साहित्यिक आंदोलनों का केन्द्र है। छायावाद से लेकर प्रगतिवाद और प्रयोगवाद इलाहाबाद की ही देन है। यह कोई साधारण बात तो नहीं है। किसी भी शहर को यह देखकर जलन होती है, दिल्ली वाले तो और जलते है। वो कहते है कि तुम लोग एक मामूली से शहर मे रहते हो, टाऊन की तरह शहर है वह और तुम लोग कुछ भी करते हो तो आन्दोलन बन जाता है और हम लोग लाख सिर पीटते रहते है, कोई पूछता ही नहीं। क्या बात है? क्या चीज है? इसका जवाब देगा कोई, है उतर किसी के पास ।.. .. .. . इलाहाबाद है तो है। इसके लिए दिल्ली वाला क्या कर लेगा, कानपुर वाला क्या कर लेगा, कलकता वाला क्या कर लेगा, बनारस वाला क्या कर लेगा? यह बना है तो ऐसे ही थोड़े न बन गया है। इसे बनाया गया है, हमारे कवियों ने इसे बनाया है, लेखकों ने बनाया है।

इलाहाबाद आश्रय देता है और पीड़ा भी
अमरकांत
मै यहां परिमल और प्रगतिशील के बीच नोक-झोंक की बात नहीं करूंगा। वस्तुत: अब एक-दूसरे को गाली देने का समय बीत चुका है। वह पीढ़ी लगभग समाप्त है। अब तो बात नौजवान पीढ़ी के पास है। वही साहित्य के मशाल को आगे ले जाएंगे। मुझे इस इलाहाबाद मे बहुत स्नेही मित्रों का साथ मिला है। इस संबंध में कुछ कहने का अवसर नहीं है यह। इलाहाबाद आश्रय देता है और पीड़ा भी। पीड़ा भी जिंदगी को महसूस करने में सहायक है।

जैसा भी हूं इलाहाबाद के कारण हूं
गिरिराज किशोर
आज जैसा भी लेखक मैं हूं, इलाहाबाद के कारण ही हूं। इलाहाबाद मेरे ममत्व का वैसे ही केन्द्र है जैसे किसी के लिए उसका अपना जन्म स्थान होता है। लेखक के रूप में मै यहीं जन्मा। जब मै इलाहाबाद आता हूं तो मेरी आंखों के सामने ये यह इलाहाबाद नहीं होता, वह इलाहाबाद होता है जहां लेखकीय स्वायत्तता त्रिवेणी की चौथी गुप्त धारा की तरह प्रवाहित रहती थी। एनी बेसेन्ट हॉल मे वैचारिकी की गोष्ठी में, पं. सुमित्रानंदन पंत की उपस्थिति में, उनके महाकाव्य लोकायतन के बारे में साही जी ने कहा था- न मैंने लोकायतन पढ़ा है न पढ़ूंगा। उसके बाद पंत जी का जो ओजस्वी भाषण हुआ था वह एक यादगार की तरह है। काश, उसको टेप क्यिा गया होता। जहां तक मुझे याद है उन्होंने कहा था- कोई भव्य मकान हो और किसी को उसका बाथरूम ही अच्छा लगे तो कोई क्या कर सकता है? परिमल की कहानी की गोष्ठी में जिस स्तर का खुला विचार हुआ था, उस स्तर का विचार-विमर्श मंैने बाद की किसी कहानी गोष्ठी में नहीं देखा। परिमलियानों और प्रगतिशील लेखकों के बीच एक मंच पर आकर वैचारिक मतभेद खुलकर व्यक्त करने की जो सदाशयता थी वह मेरे लिए आज भी साहित्य की स्वायत्तता के मानक की तरह है। इलाहाबाद मेरे अंदर आज भी उसी तरह स्पन्दित होता रहता है।

यह शहर मुझे अपने घर सा लगा
हेल्मुत नेस्पिताल
मुझे इलाहाबाद में बहुत प्यार मिला है। मै यहां पहली बार 1968 में आया था। तभी से यह शहर मुझे अपना घर सा लगने लगा। मुझे यहां अच्छे दोस्त मिले। मै बार-बार यहां आकर महादेवी वर्मा, सुमित्रानंदन पंत, इलाचन्द‎्र जोशी, नरेश मेहता, अमृत राय, डॉ. हरदेव बाहरी, रविन्द‎्र कालिया, मार्क ण्डेय, कमलेेश्वर व डॉ. सत्यप‎्रकाश मिश्र से मिलता रहा। इनसे बड़ी सार्थक चर्चायें होती रहीं और इन्हें पढऩे में मजा भी आता है। हां, शहर में बदलाव दिखता है। अब सिविल लाइन्स नहीं रहा। बड़े-बड़े बंगले नहीं रहे, लेकिन, लोगों में कोई बदलाव नहीं है। उनके पास वही पुरानी दोस्ती करने और उसे निभाने को अंदाज बचा हुआ है। इलाहाबाद और उससे जुड़े लोगों के लिए यह बहुत बड़ी बात है।

इलाहाबादी श्रोता जैसे कहीं नहीं
डॉ. एन. राजम
श्रोता अलग-अलग तरह के होते है। कुछ चाहते है कि संगीत की शास्त्रीयता का स्तर बना रहे। वे स्वयं भी शास्त्रीयता को बरकरार रखने में अपना महत्वपूर्ण योगदान देते हैं। इलाहाबाद में ऐेसे श्रोताओं की कमी नहीं है। वे जानते है कि उनकी गंगा-जमुनी संस्कृति को यदि कोई बचाये रख सकता है तो वह है साहित्य और संगीत। यही वजह है कि यहां हमेशा ही साहित्य व संगीत के बड़े व गरिमापूर्ण आयोजन होते रहे और उनमें भाग लेना सुख देता रहा। हां, इधर कुछ वर्षों में कुछ गिरावट आयी है। अब पुराने दिनों की तरह के आयोजन, आयोजक व गुणी श्रोता कम होते जा रहे हैं। साहित्य व संगीत से जुड़ी संस्थाओं का बेहतर संचालन समय व अर्थ की मार झेलने पर मजबूर हो रहा है। फिलहाल विलाप करने से कुछ नहीं होने वाला, कुछ कोशिश करनी होगी।

चौपाटी तुझसे भली, लोकनाथ की शाम
कैलाश गौतम

जबसे आया बंबई, तब से नींद हराम। चौपाटी तुझसे भली, लोकनाथ की शाम।।
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याद तुम्हारी मेरे संग, वैसे ही रहती है। जैसे कोई नदी, किले से सटकर बहती है।। ‏
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असली नकली की यहां, कैसे हो पहचान। जितने है तंबू यहां, उतने है भगवान।।
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तीर्थराज के नाम पर, अच्छी लूट-खसोट। आया था वह सूट में, अब है सिर्फ लंगोट।।

(बरगद पत्रिका से साभार)

Monday, February 1, 2010

सेजिया दान फल गया

राजीव ओझा ने अपने ब्लॉग राजू बिंदास पर कई वर्ष पुरानी एक घटना लिखकर तमाम पुरानी यादें ताजा कर दीं। यही नहीं राजीव ने रजाई और फोल्डिंग खाट की बातें करके मुझे भी एक घटना याद करा दी। बीवी बच्चों से दूर रहने की सहूलियत ने मुझसे हर शहर में सेजिया दान कराया है। चंडीगढ़ ही नहींं, लखनऊ, आगरा, भोपाल सभी जगह सेजिया दान के बाद ही आत्मा मुक्त हुई और भूतों से पीछा छूटा। आगरा अमर उजाला के दिनों में आनंद अग्निहोत्री मेरे मित्र थे। वे आज भी मित्र हैं और इन दिनों देहरादून में हैं। मैं पिछले लगभग 2 वर्ष से कहीं सेटल नहीं हो पा रहा था। कुबेर टाइम्स, पायनियर साप्ताहिक होते हुए जब मैं अमर उजाला आगरा पहुंचा तो थोड़ा बेचैन था। इसी बीच दैनिक भास्कर के लिए प‎्र्रयास किया और चंडीगढ़ पहुंच गया। आगरा से चलने लगा तो आनंद से मैंने कहा कि पंडित जी जीते जी मेरा सेजिया दान लो और अमर उजाला से मेरी आत्मा को मुक्त कराओ। दुआ के नाम पर बस इतना मांगो कि मैं अब जम जाऊं। यायावरी से मेरा पिंड छूटे। आनंद मुस्काए और बोले अगर पैर में शनिश्चर है और मन बिना एडिटरी किए चैन नहीं पा रहा है तो भटकना तो पड़ेगा। गुरू, तुम जमो चाहे न जमो, लेकिन मैं तुम्हारी खाट, रजाई और गद्दे पर जरूर जमूंगा।
यार राजीव, तुम्हारा आर्टिकल पढक़र मुझे लगता है कि आगरा का सेजिया दान मुझे फल गया। आनंद की दुआ कुबूल हुई और मैं दैनिक भास्कर में देखते ही देखते डिप्टी न्यूज एडिटर से न्यूज एडिटर और एक्जीक्यूटिव एडिटर बन गया। यही नहीं दैनिक भास्कर में मैं 6 साल चंडीगढ़ में रहा और पिछले 3 साल से हिसार में हूं। यानी स्थायित्व भी मिल गया।
तुम्हें बहुत-बहुत धन्यवाद। बिंदास फक्कड़पन के अपने तमाम पुराने दिन याद दिलाने के लिए।