(आकाशवाणी इलाहाबाद द्वारा 14 सितंबर 2016 को प्रसारित मेरी वार्ता)
भोपाल
में आयोजित दसवां विश्व हिन्दी सम्मेलन कई मायनों में महत्वपूर्ण है। यह परंपरा का
निर्वाह मात्र नहीं है। ना ही इस कारण महत्वपूर्ण है कि यह भारत में हो रहा है और
इसका उदघाटन भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी ने किया है। वास्तव में भोपाल
में आयोजित यह दसवां विश्व हिन्दी सम्मेलन कई अर्थों में परंपरा की सार्थक पहल है।
भोपाल सम्मेलन में हिन्दी के सामने खड़े समकालीन मुद्दों और विषयों पर विचार
विमर्श किया जाएगा। यह बात पिछले सम्मेलनों से थोड़ा अलग है। यह ठीक है कि विश्व
हिन्दी सम्मेलन का आयोजन भारत में तीसरी बार हो रहा है, लेकिन इससे पहले इस तरह के
व्यावहारिक विषयों पर गंभीर चर्चा कम ही हुई है। हिन्दी प्रेम और तदजन्य भावुकता
विषयों पर प्रभावी रहती थी, इससे हिन्दी के लिए संस्थागत काम तो बहुत हुए, लेकिन
हिन्दी भाषा की समृद्धि उतनी नहीं हो सकी, जितनी होनी चाहिए। इस बार दसवें विश्व
हिन्दी सम्मेलन में चर्चा का मुख्य विषय ही हिन्दी के सामने खड़ी नई परिस्थितियां
और उसके विकास में आ रही चुनौतियां हैं। स्पष्ट है कि हिन्दी के सामने खड़े इन
समकालीन मुद्दों और विषयों पर बात करने से भाषा का विकास होगा। इसी कारण मैं इसे
परंपरा की सार्थक पहल कहता हूं।
सन
1975 में प्रथम विश्व हिन्दी सम्मेलन का उद्घाटन करते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री
श्रीमती इंदिरा गांधी ने नागपुर में कहा था कि हिन्दुस्तान की चेतना में वसुधैव
कुटुम्बकम का भाव है, इसलिए हिन्दी वसुधैव कुटुम्बकम के भाव की वाहक बने। इस पहले
सम्मेलन ने हिन्दी प्रेमियों और विद्वानों के बीच इतनी भाव और भावना भर दी कि वह 1993
में मारिशस के पोर्ट लुईस में सम्पन्न चौथे विश्व हिन्दी सम्मेलन तक वसुधैव
कुटुम्बकम ही विश्व हिन्दी सम्मेलनों का मूल विचार विन्दु बना रहा। तेज बयार की
तरह चली भावनात्मक वसुधैव कुटुम्बकम की इस हवा ने 1996 में टिनीडाड एंड टोबैको के
पोर्ट आफ स्पेन में आयोजित पांचवें और 1999 में लंदन में आयोजित छठे विश्व हिन्दी
सम्मेलन को भी प्रभावित किया। पांचवें सम्मेलन का मुख्य विचार विन्दु अप्रवासी
भारतीय और हिन्दी तथा छठे सम्मेलन का मुख्य विचार विन्दु हिन्दी और भावी पीढ़ी
रहा। यानी इन दोनों सम्मेलनों में भी भाषा और उसके सामने आ रही चुनौतियों की चर्चा
कम ही हुई। सन 2003 में जब 21वीं शताब्दी के लगभग तीन वर्ष बीत चुके थे, तब सूरीनाम
के पारामारिबो में सातवां विश्व हिन्दी सम्मेलन हुआ और तब इस सातवें विश्व हिन्दी
सम्मेलन में पहली बार विश्व हिन्दी – नई शताब्दी की चुनौतियां, विषय चर्चा का आधार
केन्द्र बना, लेकिन अमेरिका के न्यूयार्क शहर में 2007 में आयोजित आठवें और सन
2012 में दक्षिण अफ्रीका के जोहांसबर्ग में आयोजित नवें विश्व हिन्दी सम्मेलनों
में विषय फिर भाषा के प्रचार प्रसार जैसे ही हो गए।
यही
कारण है कि इन पिछले हिन्दी सम्मेलनों को देखकर हिन्दी के गंभीर अध्येताओं के बीच
यह माना जाने लगा कि विश्व हिन्दी सम्मेलन के कर्ताधर्ताओं के बीच हिन्दी प्रेम की
भावना और तदजन्य उसका प्रचार प्रसार प्रमुख है, हिन्दी को एक भाषा के रूप में
सहजता से विकसित होने देने और उसका वैज्ञानिक स्वरूप देने में उनकी रूचि नहीं है। यही
कारण है कि भोपाल में हो रहे दसवें विश्व हिन्दी सम्मेलन में जब हिन्दी की दशा
दिशा के साथ उसके सामने नई प्रौद्योगिकी से खड़ी हुई चुनौतियां और उनके निराकरण के
विषय, चर्चा में रखे गए तो हिन्दी प्रेमियों को लगा कि सचमुच यह हिन्दी के विकास
के लिए गंभीर और सार्थक प्रयास है।
भोपाल
में आयोजित दसवें विश्व हिन्दी सम्मेलन में हिन्दी के प्रचार प्रसार के साथ हिन्दी
भाषा के सामने खड़ी चुनौतियों और उनसे निपटने के लिए किए जाने वाले प्रयासों और
रणनीतियां चर्चा का आधार विन्दु बनीं है। निश्चित ही यह सार्थक प्रयास कहा जाएगा।
दसवें सम्मेलन के चर्चा के सत्रों में विज्ञान और प्रौद्योगिकी, सूचना और
प्रौद्योगिकी, प्रशासन और विदेश नीति, विधि, मीडिया आदि के क्षेत्रों में हिन्दी
के सामान्य प्रयोग और विस्तार से संबंधित तौर तरीकों पर चर्चा की जाएगी। दसवें
सम्मेलन में विदेशों में हिन्दी की स्थिति और उसके प्रचार प्रसार पर भी चर्चा
होगी। इसी कारण दसवें विश्व हिन्दी सम्मेलन की चर्चा का मुख्य आधार विन्दु हिन्दी
जगतः विस्तार एवं संभावनाएं है। स्पष्ट है कि एक ओर हिन्दी भाषा को वैश्विक स्तर
के लिए तैयार करने की रूपरेखा बनेगी तो दूसरी ओर उसके प्रचार प्रसार की रणनीति तय
होगी। भाषा की कमियों, खामियों को दूर किए बिना अथवा उसे समकालीन प्रौद्योगिकी के
अनुकूल बनाए बिना हम हिन्दी को दुनिया भर में फैला नहीं सकते। यह सीधी साफ बात है।
इसीलिए मैं कहता हूं कि पहली बार भावनाओं से ऊपर उठकर सम्मेलन में व्यावहारिक
दृष्टि आई है, जो हिन्दी के लिए हितकर है।
दसवें
विश्व हिन्दी सम्मेलन में हिन्दी भाषा की भारत में वर्तमान स्थिति, नई
प्रौद्योगिकी के कारण उसके बिगड़ते या कह लीजिए अशुद्ध होते रूप पर भी चर्चा होगी।
चर्चा में समस्याओं के कारण और उनके निवारण पर विचार विमर्श होगा। विदेश नीति में
हिन्दी को शामिल करने, प्रशासन के कामकाज में हिन्दी को बढ़ाने, विज्ञान क्षेत्र
में हिन्दी के प्रयोग, संचार और सूचना प्रौद्योगिकी में हिन्दी की उपस्थिति पर
रणनीति बनाई जाएगी। एक सत्र में तो जनता से सीधे जुड़े और उसे सर्वाधिक प्रभावित
करने वाले विधि एवं न्याय क्षेत्र में हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं की स्थिति पर
विचार विमर्श होगा। इसी सत्र में हिन्दी पत्रकारिता और संचार माध्यमों में भाषा की
शुद्धता पर विचार विमर्श किया जाएगा। देश और विदेश में हिन्दी प्रकाशनों की
समस्याएँ और उनके निराकरण पर रणनीति बनाई जाएगी। स्पष्ट है कि सम्मेलन में चर्चा
के लिए वे ही सारे विषय और मुद्दे रखे गए हैं, जो समकालीन हिन्दी भाषा के सामने
चुनौतियां बनकर खड़े हैं। आशा की जानी चाहिए कि सम्मेलन के बाद हिन्दी की
चुनौतियां कम होंगी और हिन्दी का भारत में प्रचलन बढेगा और विदेशों में व्यापक
प्रचार प्रसार होगा।
वास्तव
में विश्व हिन्दी सम्मेलन की अवधारणा में भारतवंशी समाज एवं हिन्दी के बीच एक
जीवंत संबंध बनाने का भाव निहित है। इन सम्मेलनों के माध्यम से यह कोशिश की जाती
रही है कि विश्व हिन्दी मंच बन सके और हिन्दी का विकास अंतरराष्टीय भाषा के रूप
में हो। हम सभी जानते हैं कि यह तभी संभव है, जब समकालीन प्रौद्योगिकी के साथ
हिन्दी कदम से कदम मिलाकर चल सके। दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हो पाया। भारत के आम जन
की भाषा होने के नाते वैश्विक दौर में हिन्दी को बाजार तो मिल गया, लेकिन उसकी अस्मिता
पर प्रश्नचिह्न लगते रहे। पिछले विश्व हिन्दी सम्मेलनों में भाईचारे के नाते
भावनात्मक रूप से हिन्दी की अस्मिता की बात तो की गई, लेकिन उसके लिए कोई सार्थक
प्रयास नहीं किए गए। पहली बार सही चुनौतियों को पहचान कर, उनके हल निकालने और
हिन्दी भाषा की राह सरल कर उसे स्वाभाविक रूप से आगे बढ़ने देने की बात स्वीकारी
गई है। स्वाभाविक रूप से हिन्दी को विकसित होने देने की स्थिति बनाने के लिए, देश
और विदेश, दोनों जगहों पर जब सार्थक प्रयास होंगे, तभी हिन्दी अंतरराष्टीय भाषा बनेगी।
अंतरराष्टीय भाषा बनकर हिन्दी विश्व हिन्दी मंच बनाकर समूचे भारतवंशियों को ही
नहीं जोड़ेगी अपितु तमाम दुनिया की विभिन्न संस्कृतियों के लोगों को अपने साथ जोड़
लेगी। कुछ ऐसा ही अभीष्ट है भोपाल में हो रहे दसवें विश्व हिन्दी सम्मेलन का।
भोपाल
सम्मेलन की एक और विशेषता यह होगी कि वह स्पष्ट करेगा कि भाषा सिर्फ साहित्य नहीं
होती। उससे ऊपर उठकर हिन्दी का प्रचार प्रसार और विस्तार होना चाहिए। सम्मेलन में
सरकारी हिन्दी को सरल बनाने और बाल साहित्य को समकालीन बनाने पर भी जोर दिया
जाएगा। बाल साहित्य को समकालीन बनाने से बच्चों की हिन्दी के प्रति रूचि बढ़ेगी जो
आज और कल दोनों समय काम आएगी। इसी क्रम में विज्ञान और चिकित्सा की पढ़ाई भी
हिन्दी में कैसे हो, इस पर विचार किया जाएगा। एक तरह से कहें तो भोपाल में
आधुनिकता और परंपरा का सम्मिश्रण देखने को मिलेगा। यही समय की मांग भी है।