Sunday, April 10, 2011

सपने में देखा सपनी...

बीती रात सपनों में खोया था, तभी एक सपनी आ गई। सपनी में पहले तो बॉबी फिल्म का गीत हम तुम जंगल से गुजरें और शेर आ जाए, सुनाई पड़ा। इसके बाद जो दिखाई पड़ा वह रोमांचित करने वाला और यादगार था। बियाबान जंगल हैं। अंधेरी रात है। सिर से सिर जोडक़र पेड़ इस तरह खड़े हैं कि आकाश का एक भी तारा नहीं दिख रहा। रास्ता सूझ नहीं रहा। उजाले पर रोक है। शांति इतनी कि अपनी बातचीत भी शोर लगे। नीरवता भयावह हो उठी। खामोशी खाने को दौड़ रही। थोड़ी सी भी आवाज शरीर को थरथरा देती। डर से भरे पूरे माहौल में किसी भी तरफ से बाघ, तेंदुए से लेकर लोमड़ी और लकड़बग्घे के निकलकर सामने आ जाने का खतरा।

पूरी सपनी में हम ऐसे ही भयमिश्रित रोमांच से गुजरे। हम किसी हॉरर फिल्म की शूटिंग नहीं देख रहे थे। ना ही किसी सस्पेन्स में फंसे थे। हम सरिस्का अभ्यारण्य में थे। यह बात अलग है कि हम जहां थे, वह किसी हॉरर या सस्पेन्स फिल्म की शूटिंग के लिए उपयुक्त जगह थी। सरिस्का में हम बाघ देखने गए थे। बाघ की लोकेशन जानने के लिए हमारे साथ एंटीना था। दिन में हम खुली जिप्सी में घूमते रहे। रात को हमने बोलेरो ले ली। जंगल दिन में जितने खूबसूरत होते हैं, रात में उतने ही भयावह। यह सच उसी रात हमने जाना। जरा सी सरसराहट पर हम चौंक पड़ते और देखते गाड़ी के अगल-बगल भागती लोमडिय़ां और लकड़बग्घे।

रात हमने एक वन चौकी पर गुजारी। दो पहाडिय़ों के बीच एक झील और झील के किनारे बनी तीन मंजिली पत्थर की पुरानी इमारत। महाराजा जयसिंह की शिकारगाह। अब वन विभाग की सुरक्षा चौकी। किसी भुतहा किले जैसी। महज तीन वनकर्मियों वाली। रहस्यपूर्ण और खामोश। वन चौकी तक पहुंचने के लिए पहाड़ को काट कर बनाई गई चौड़ी सीढिय़ां। झील की तरफ बने इमारत के खुले छज्जे और छत। इन्हीं से कभी जानवरों का शिकार किया जाता था, आज यहीं से जानवरों की गतिविधियों पर नजर रखी जाती है। जंगल के जानवर दूर-दूर से पानी पीने यहां आते हैं। इसीलिए महाराजा जयसिंह से लेकर बाघ और तेंदुओं तक के लिए यह आदर्श शिकारगाह रही। झील के बीच बेतरतीबी से खड़े खजूर के पेड़ जल पक्षियों के आश्रय स्थल। खजूर के इन पेड़ों पर पक्षी विश्राम भी करते हैं और यहीं से मछलियों का शिकार भी। कुल मिलाकर शिकार और शिकारी दोनों के लिए आदर्श जगह।

बाघ की तलाश में हम दिन में खुली जिप्सी में जंगल में घूमे। हिरण, बारहसिंघा, चीतल, नीलगाय, लोमड़ी, लकड़बग्घे, साही, बंदर, लंगूर, मोर, तीतर, बटेर, तोते और ना जाने कितने जानवर और पक्षी हमने देखे, लेकिन नहीं दिखा तो सिर्फ वह जिसे हम देखने गए थे। शाम होने पर हमने बोलेरो ले ली। विशेष डिजाइन वाली इस गाड़ी के पीछे खुली जगह थी, जहां एंटीना लिए वनकर्मी खड़े हो गए। वे लगातार एसटी-2, एसटी-4 और 5 की टोह ले रहे थे। उनकी लोकेशन देख रहे थे। किसी बाघ की लोकेशन नहीं मिली। रात ज्यादा होने पर हमने सोचा बाघ तो अब दिखेगा नहीं, एक बार एंटीना की बीप ही सुन ली जाए। हम जंगल में भटकते हुए बाघ तलाशते रहे और बाघ गुफा में घुसकर आराम से सोते रहे। गुफा इसलिए कह रहे हैं कि वनकर्मियों ने हमें यही बताया कि गुफा के भीतर चले जाने पर बाघों के रेडियो कॉलर संकेत नहीं दे पाते।

अंत में थक हारकर हम वनचौकी आ गए। वनकर्मियों ने चूल्हे पर हाथ से बनी मोटी-मोटी रोटियां खिलाईं। अद्भुत स्वाद वाली लहसुन- टमाटर की चटनी के साथ। तीसरी मंजिल के कमरे में हम सोने गए। चूंकि, पूरा भवन पहाड़ी पर है, इसलिए तीसरी मंजिल के कमरे भी पहाड़ी के कुछ हिस्सों से जुड़ते हैं। इसलिए हमें निर्देश मिला कि हम खिडक़ी-दरवाजे अच्छी तरह से बंद करके ही सोएं। कुछ देर अंधेरे से रोमांस करने के बाद हम सो गए। अगली सुबह हमारी आंख जल्दी खुल गई। हमने खिडक़ी खोलकर देखा तो सुबह सचमुच रोमेंटिक थी। सामने की पहाड़ी पर उगते सूरज की हल्की लालिमा बिखरी थी। नीचे झील से मदिधम उजाले में हल्का-हल्का कोहरा उठ रहा था। पेड़ों के बगल से गुजरती हवा उन्हें गुदगुदा रही थी। पेड़ रह रहकर सिहर उठते।

अद्भुत रूप से खूबसूरत प्रकृति हमारे सामने थी। ओस से भीगी। मस्ती में डूबी। रससिक्त। मादक और अल्हड़। जागकर अलसाई नवपरिणीता सी। आनंदमयी और अनुपम। मोहक उड़ानों और किलोलों से रूपगर्विता को खुश करते पक्षी। कलरव में प्रणय गीत गाते हुए। भावविभोर हम। आश्चर्यचकित। रात में जो भयावह लग रही थी, सुबह अलौकिक सौंदर्य से भरी थी। रूप की रानी थी। प्रकृति के स्वर्गिक सुख में डूबे हमारी तंद्रा तब भंग हुई, जब साथी वनकर्मी ने कहा- सर, बकरी के दूध की चाय है। पी लीजिए। यहां और किसी का दूध नहीं मिलता। हम लौटने की तैयारी में जुट गए। जीवन में कभी न भूल सकने वाली रात और सुबह हमारे दिलोदिमाग पर छा चुकी थी। हमारी सपनी खतम हो चुकी थी।

नीचे सपनी के कुछ चित्र आप भी देखिए।

2 comments:

Anonymous said...

शब्दों की जादूगरी देख हुआ मन मोर

जंगल में मंगल करे लेखन मन चितचोर

घना, सरिस्का एक से बस शब्दों का फेर

डोर बंधी अंजान सी खीचे अपनी ओर

शब्दों के जादूगर को शत-शत नमन

धीरेन्द्र गुप्ता "धीर"

Anonymous said...

शब्दों की जादूगरी देख हुआ मन मोर

जंगल में मंगल करे लेखन मन चितचोर

घना, सरिस्का एक से बस शब्दों का फेर

डोर बंधी अंजान सी खीचे अपनी ओर

शब्दों के जादूगर को शत-शत नमन

धीरेन्द्र गुप्ता "धीर"