Friday, July 30, 2010

हम उम्मीद से हैं....

इन दिनों लगभग रोज प्रेमी युगल किसी न किसी टीवी स्क्रीन पर दिखते हैं। लगता है देश में प्रेम की गंगा बह रही है। सभी नहा रहे हैं। जो भी फुरसत में हैं, प्रेम गंगा की लहरों का लुत्फ ले रहा है। न्यूज चैनलों पर छा जाने का बोनस अलग पा रहा है। प्रेमी युगलों से दुनिया और समाज की शिकाएतें सुनकर मेरा विश्वास दृढ़ हो जाता है कि दुनिया अभी तक नहीं बदली। जमाना वैसे का वैसे जालिम है और प्यार करने वाले मासूम और निर्दोष। इन मासूमों को इतिहासबोध तक नहीं है। अन्यथा इन्हें इतना तो पता ही होता कि लैला-मजनू, शीरी-फरियाद, हीर-रांझा से लेकर अकबर-सलीम- अनारकली तक, यानी किसी जमाने के मां-बाप ने प्रेम में डूबी अपनी लडक़ी की डोली नहीं उठाई। जब भी कोई लडक़ी दुनिया के सबसे सुंदर और प्यारे लडक़े को प्यार करती है, (लडक़े प्यारे और सुंदर होते ही हैं, वरना लड़कियां उन्हें पाने का इतना जोखिम क्यों उठातीं) मां-बाप विरोध की अपनी ऐतिहासिक भूमिका में आ जाते हैं।

जमाना बदलने के भ्रम में पड़े भोले प्रेमी युगल प्यार की रासलीला में कंस से सुदामा की भूमिका की उम्मीद करते हैं। टीवी स्क्रीन पर पढ़े-लिखे और बुद्धिजीवी जैसे दिखने वाले लोग जमाना बदल जाने के इनके भ्रम को और बढ़ाते हैं। पूरे प्रकरण को कॉमेडी सरकश की तरह एन्ज्वॉय करते हुए बुद्धिजीवी टाइप के ये लोग अंत में यह राज खोलते हैं कि जमाना तो बदल गया, लेकिन लोग जाहिल के जाहिल रह गए।

प्रोग्राम देखने के बाद मेरे मन में भी यह शक आने लगता है कि दुनिया बदल गई, लेकिन थोड़ी ही देर में जाहिल मन (जैसा टीवी वालों ने बताया) चिल्ला-चिल्लाकर कहने लगता है कि कुछ नहीं बदला। ना समाज और ना दुनिया। दुनिया और जमाना बदलने के भ्रम में कई पीढिय़ों ने अपनी जवानी बर्बाद कर डाली। मेरी पीढ़ी को भी यह भ्रम था कि हमारी आवारागर्दी दुनिया बदल देगी। समाज बदलने के लिए हमने कितनी दारू पी। सिगरेट बीड़ी से लेकर चरस सुल्फा तक का रसास्वादन किया। कंधे पर झोला लटकाकर चिकने कागजों पर छपी दुनिया भर की क्रांति की किताबों को फटी चिथड़ी किताबों में तब्दील किया। कितनी लड़कियों के साथ स्त्री विमर्श किया। फिर भी कमबख्त समाज नहीं बदला। जस का तस ही रहा। दुनिया, नहीं बदली तो नहीं बदली।

प्रेमी युगलों की बातें सुनकर मुझे अनायास अपनी गुणी पीढ़ी याद आ जाती है। गुणी शब्द पर आपको ऐतराज हो तो आप समझदार या अक्लमंद शब्द रिप्लेस कर सकते हैं। इसके बावजूद आपका गुस्सा काबू में नहीं आए तो आप पूछ सकते हैं कि आपकी पीढ़ी ने ऐसा क्या तीर मारा? जब आप कुछ बदल ही नहीं पाए तो आपकी बकवास क्यों सुनें? हर हिंदुस्तानी अपने कारनामों को महान मानकर अपनी जीवन नैया खेता रहता है और उसकी कोई नहीं सुनता। आपके इस तीखे सवाल पर मेरा विनम्र जवाब यह है कि भले ही हमारी पीढ़ी दुनिया नहीं बदल पाई, लेकिन हमारी भूमिका और कारनामों पर सार्वजनिक बहस नहीं हुई। भइए, हमारी पीढ़ी को हलके में मत लो। हम पढ़े लिखे इंटलैक्चुअल टाइप के युवा थे। हम विचारों से लैस थे। सब कुछ विचारों के तहत करते थे, इसलिए हो हल्ला नहीं मचता था। सब कुछ स्वीकार्य हो जाता था। महिमा मंडित रहता था। जैसे, वैदिकी हिंसा, हिंसा न भवति।

मेरे एक दोस्त हैं। इलाहाबादी हैं। आप उन्हें सेक्स कुंठित कह सकते हैं। प्रेम करने में बोल्ड और बाप-चाचा से डरे सहमे प्रेमी प्रेमिका जब भी उन्हें टीवी पर दिखते हैं, वे भडक़ उठते हैं। वे भड़भड़ाकर बोलने लगते हैं कि आधुनिकता का मतलब निर्लज्जता हो गया है। समाज मूल्यहीन हो गया। जीवन में आदर्शों की जगह नहीं रह गई। पता नहीं कौन सा पुराना दर्द उन्हें टीस जाता है और वे कराह उठते हैं। उफ, जमाना कितना बदल गया। आदि, आदि।

मैं उनको कभी नहीं समझा पाया कि मित्र, आज भले ही सब कुछ सीधा सपाट है। स्पष्ट है। साफ है। कोई घुमाव नहीं। कोई छिपाव नहीं। सब कुछ पारदर्शी। आदर्श की खोट नहीं। नैतिकता की चोट नहीं। अपना काम बनना चाहिए, जुगाड़ चाहे जो करना पड़े। इसके बावजूद समाज वहीं का वहीं है। कुछ भी नहीं बदला है। इसलिए नई पीढ़ी को अपने जमाने के किस्से सुनाकर उससे सबक लेने की प्रेरणा दो।

समाज ने किसी भी जमाने में खुली साफ बातें नहीं समझी। उसे हमेशा मूल्यों, आदर्शों में दबी छिपी बातें ही समझ में आईं। सीधी सपाट बातों और उनके करने वालों का हमेशा समाज ने विरोध किया। इसलिए ज्ञानी और विद्वान लोगों ने मूल्यों, आदर्शों की आड़ में ही समाज को समझाया। उसे उल्लू बनाते हुए अपना लल्लू सीधा किया। मैं उन्हें उनकी और अपनी साझा स्टूडेंट लाइफ की याद दिलाता हूं तो वे और भडक़ उठते हैं, लेकिन अहा, क्या दिन थे वे भी। इस पूंजीवादी और सामंती देश को विचारधारा से लैश करके आगे बढ़ाने का टेंडर हमारे नाम खुला था। विचारधारा के साथ राष्ट्र को अखंड और मजबूत बनाने का दायित्व हमारे कंधों पर था।

राइट और लेफ्ट सभी इस काम में लगे थे। यूनिवर्सिटी खुलते ही सभी तरह के विचार कैंपस में सक्रिय हो जाते थे। नई लड़कियों को देखने के सुख के साथ उन्हें अपनी विचारधारा से जोडऩे की होड़ लग जाती थी। राइट खेमे में कितनी लड़कियां गईं और लेफ्ट की ओर कितनी आकर्षित हुई, इसका हिसाब किताब रोज होता था। उस सुंदर लडक़ी ने मेंबरशिप फार्म क्यों नहीं भरा? नीता दूसरे खेमे में कैसे चली गई? परिणीता को कैसे पटाकर फॉर्म भरवाया, इस चर्चा में रात कट जाती थी। इसके साथ ही पुरानी खड़ूस लड़कियों की जगह नई सुंदर लड़कियों के कंधों पर जिम्मेदारी डालने का काम शुरू होता था।

नई लडक़ी को विचारधारा से जोडऩे का जिम्मा हर लडक़े के कंधे पर आ जाता था। सीनियर गोलाई में लड़कियों को बैठाकर स्टडी सर्किल जैसे खेल शुरू कर देते। नए लडक़े विचारधारा से जुड़े रहे, इसलिए उन्हें लड़कियों को घर पहुंचाने आदि का काम सौंप दिया जाता। नए लडक़ों पर यह जिम्मेदारी भी रहती थी कि वे लड़कियों पर नजर रखें ताकि वे दुश्मन के खेमे में न जाने पाएं। उसी दौर में हमें यह ज्ञान हुआ कि लडक़ी और पानी ढाल (सुविधा) की तरफ बहते हैं। और लडक़ी तो बेल (लता) होती है, सूखा बांस हो या हरा पेड़, जो भी उसके पास होगा, वह उसी पर लिपट जाएगी। इसलिए हर लडक़ी के साथ अपनी विचारधारा का एक लडक़ा लगा दिया जाता। यह ज्ञान सौ फीसदी खरा उतरता और लडक़ी फिर कहीं नहीं जाती। रिश्तेदारी या मोहल्ले का प्रेमी कहीं बात करता दिख जाता तो उसकी इस कदर धुनाई की जाती कि वह तुरंत पूर्व प्रेमी बन जाता। इस तरह पूरी सोच समझ के साथ हमारे जमाने में नई पीढ़ी को विचारधारा से लैश करने का काम होता।

सितंबर-अक्टूबर आते-आते सभी खेमों को कैंपस की चारदीवारी के बीच एक अदद छत की जरूरत महसूस होने लगती। हर खेमे के सीनियर्स गंभीर विचार विमर्श करते। जूनियर्स को समझाया जाता कि क्योंं जरूरी है कैंपस में अपनी विचारधारा की मजबूत छत। कैंपस की चारदीवारी के बीच विचारधारा की मजबूत छत बन जाए तो देश और समाज, दुश्मनों से, राष्ट्रविरोधियों से, फासीवादियों से, गद्दारों से, लंपटों से, प्रतिक्रियावादियों से, विदेशी ताकतों से, सामंतों से, स्थानीय गुंडों से, साम्प्रदायिक ताकतों से, जातिवादी ताकतों से बच जाएगा।

नतीजतन कैंपस को वैचारिक छत से ढकने का काम शुरू हो जाता। विचारधारा की छत मजबूत बनाने के काम में न्युकमर लडक़ों को लगा दिया जाता। विचारधारा की छत के नीचे न्युकमर लड़कियों के साथ भावनाएं पैदा करने के काम में सीनियर्स जुट जाते। न्युकमर लडक़े कंधों पर झोला लटका लेते। उनकी दाढ़ी बेतरतीब हो उठती। वे चिंतित दिखने लगते। उन्हें लगता कि सचमुच अब दुनिया बदल कर ही रहेगी। हद तो यह होती उन्हें पक्का विश्वास हो जाता कि वैचारिक छत की आड़ में उनके सीनियर्स दुनिया बदलने का जोखिम उठा रहे हैं।

कैंपस में उत्साही न्युकमर्स विचार पर विचार उलट रहे हैं। विचार खा रहे हैं। विचार की उल्टी कर रहे हैं। मलमूत्र भी विचारों का ही हो रहा है। विचार की छत मोटी और मजबूत होती जा रही है। देखते ही देखते विचारधारा की छत इतनी पक्की हो जाती है कि नीचे का रोना गाना ऊपर या बाहर से नहीं सुनाई पड़ता। भीतर से ना तो बाहर का कुछ दिखता और ना ही बाहर से भीतर का। अब लडक़े आ रहे हैं। जा रहे हैं। लड़कियां आ रही हैं। जा रही हैं। क्रश और बेतरतीब कपड़े भीतर हो रही क्रांति की रिहर्सल की कहानी बताते। देशभक्तों को याद करने का सबूत देते। लडक़े लड़कियों का झुंड विचारधारा की च्यूंगम मुंह में दबाए एक दूसरे को देख मुस्कुराते आते जाते रहते। दिन, दिन नहीं रह जाते। रात, रात नहीं रह जाती। सबको लगता सचमुच विचारों के बिना जीना भी कोई जीना है, यारों। जीने का मजा तो विचारधारा से जुडक़र ही आता है।

नवंबर- दिसंबर तक भीतर के कमरों में क्रांति शुरू हो जाती। राष्ट्र की पुरातनता हटाई जाने लगती। नई संभावनाएं टटोली जाने लगती। उभरते नए मूल्यों को सहलाया मसला जाने लगता। बुर्जआ वृत्ति अनावृत होती। सामंती मानसिकता तार तार होती। सिसकियों के बीच देशभक्ति के किस्से दोहराए जाते। राष्ट्र के लिए सब कुछ न्योछावर कर दिया जाता। नए उभरते भारत को देखकर सभी दंग रहते। सब को यह विश्वास हो जाता कि ऐसी क्रांति सिर्फ वे ही कर सकते थे। उनसे पहले की पीढ़ी ऐसा सोच भी नहीं सकती थी और आने वाली पीढ़ी में तो दम ही नहीं है। सब एक दूसरे को समझाते, विचारधारा के प्रति समर्पण तो करना ही पड़ता है। तुमने ही किया तो क्या हुआ। धीरे-धीरे सबको विश्वास हो जाता कि मेरे जैसा समर्पित कोई दूसरा नहीं। इतनी निष्ठा किसी के पास नहीं। यह काम तो सिर्फ वे ही कर सकते थे। अकेले उन्होंने ही किया। यदा कदा सिसकियां भी अगल-बगल वाले सुनते। नए समाज का बीजारोपण हो जाता।

क्रांति करने और राष्ट्र के लिए सब कुछ न्योछावर करने का शपथ लेने वाली अचानक पुराने भारत की शोषित औरतों जैसी दिखने लगतीं। साथ-साथ जीने मरने की बात करने लगतीं। लडक़े उनसे चिढक़र दूर भागते। इसे अपने खिलाफ बुर्जुआ साजिश करार देतेे। उन्हें समझाते तुम मां- बाप और समाज की चिंता करके क्रांति की धारा को कुंद कर रही हो। जीवन तुम्हारा है। इसपर तुम्हारा हक है। तुम्हारे मां-बाप का नहीं। मां-बाप के सामने झुककर तुम देश को समतावादी और आधुनिक बनने से रोकने का ओछा कर्म कर रही हो। राष्ट्र की सनातन धारा को तोड़ रही हो। यह देश और समाज के प्रति अपराध है। तुम लंपट हो। तुम्हारी सोच अपरिपक्व और पुरातनपंथी है। तुम भारत की सड़ी गली परंपराओं से पोषित दकियानूस हो। क्रांति के रास्ते से हटकर रोने गाने के कारण तुम्हें इतिहास कभी माफ नहीं करेगा। जयचंद की तरह युगों-युगों तक तुम्हें अखंड राष्ट्र कोसेगा।

क्रांति कर होश में आ चुकी लड़कियों की बुद्धि कुंद हो जाती। वे लंपट और राष्ट्रविरोधी होने के आरोपों से सहमी रहतींं। आत्महत्या की बातें करने लगतीं। ऐसे में चारों तरफ स्त्री विमर्श तेज हो जाता। साफ सफाई की बातें होने लगतीं। कहा जाने लगता कि देश और समाज लड़कियों की इसी जाहिलियत के कारण कभी नहीं बदल सकता। वह सुबह पता नहीं कब आएगी, जब लड़कियां देश और समाज के लिए क्रांति को जन्म देंगी।

आंसुओं की लड़ी जब वैचारिकता के भवन से बाहर निकलकर सार्वजनिक होने लगती तो विचारधारा से जुड़े डॉक्टरों की तलाश शुरू होती। सांत्वना बंटने लगतीं। दुश्मनों की साजिश के विरुद्ध लंबे संघर्ष के भाषण दिए जाने लगते। सीनियर्स के दबाव में कुछ न्युकमर लडक़े शादी को तैयार हो जातेे। नए समाज के निर्माण के लिए वे कुछ भी त्याग करने की भावना से लबरेज हो उठते। कभी-कभी कोई सीनियर भी विचारधारा की रक्षा के लिए दूसरी या तीसरी शादी कर लेता तो कोई लडक़ी किसी की तीसरी बीवी बन जाती। शेष के लिए चंदा किया जाता। हफ्ते दस दिन में दो चार हजार इक्ट्ठा करके डॉक्टर को गुपचुप सौंपकर छुट्टी पाई जाती। दुश्मन के खेमे से आए घुसपैठिया से मुक्ति पाकर बचे पैसों की दारू पार्टी होती।

इस तरह समाज और दुनिया बदलने के ना जाने कितने उपक्रम हमने किए, लेकिन ना तो दुनिया बदली और ना ही समाज। आज भी वही रोना गाना है। आज भी भ्रूण हत्या से लेकर हत्या और आत्महत्या है। क्रांति की, बदलाव की, लंबी चौड़ी बातें सब करते हैं, लेकिन जैसे ही क्रांति गर्भ में आती है, सब डर जाते हैं। घुटने टेक देते हैं। क्रांति को कोई जन्म नहीं देता। इसलिए हमारे जमाने से लेकर आज तक ना तो दुनिया बदल पा रही है और ना ही समाज। हमारे उस स्वर्णिम युग के कितने जोड़े तलाक लेकर या आपसी मारपीट के बीच आज भी सुखी जीवन जी रहे हैं।

हम आशावादी लोग हैं। इसलिए अभी भी उम्मीद से हैं। हमारी उम्मीद राजनीतिक विचारधाराओं की जगह धार्मिक विचारधारा फैलाने वालों पर टिक गई है। देश में तमाम संत, साधू, संन्यासी समाज बदलने के काम में जुट गए हैं। वे धार्मिक विचारों के जरिए दुनिया बदलने की कोशिश कर रहे हैं। समाज में विचार फैलाए जा रहे हैं। विचारों की छत डाली जा रही है। राजनीतिक विचारकों से दुखी होकर दुनिया उनकी शरण लेने लगी है। उन्हें दंडवत प्रणाम कर रही है। अब बाबा जी टाइप के लोगों के आश्रम में युवक आ रहे हैं। जा रहे हैं। युवतियां आ रहीं हैं। जा रहीं हैं। सभी चाह रहे हैं कि नया समाज जन्म ले। दुनिया बदल जाए। जाहिर है कि इसका फल समाज को मिलेगा। एक दिन दुनिया बदलेगी। एक दिन नया समाज जरूर पैदा होगा। फिलहाल तो सड़े समाज में ही हमें रहते हुए अपने मां-बाप को कोसना है।

1 comment:

Unknown said...

bahut mahini katti hai..sanketon me bahuton ko yaad kiya..padh kar apni university yaad ho aai..agli vyangya ka intezaar..

Kalpana Sahai