जनवरी के अंतिम सप्ताह में इलाहाबाद गया था। संगम तट पर माघ मेला चल रहा था। बहुत कोशिश के बाद भी माघ मेला नहीं पहुंच पाया। यह कहकर संतोष करता रहा कि – बिन हरिकृपा मिलहिं नहीं संता। लेकिन कानों में रामचरित मानस का पाठ अभी भी गूंज रहा है। यही नहीं मानस के अखंड पाठ के चित्र आंखों के सामने नाच रहे हैं। ससुराल में रामचरित मानस का अखंड पाठ था। मंडली बुलाई गई थी। मुझे सिर्फ ड्राइंग रूम में बैठना था, मोहल्ले, पड़ोस के लोगों और मेहमानों के साथ। इच्छा हो तो मानस पाठ में भी। सबको चाय नाश्ता और प्रसाद मिल जाए, इस पर नजर रखनी थी। भव्य आयोजन था। अपने घर से लेकर दोस्तों और रिश्तेदारों के घरों तक मैं सैकड़ों बार रामचरित मानस के पाठ में शामिल हो चुका हूं, लेकिन इस पाठ का अनुभव अनोखा और अदभुत था। पिछले सारे अनुभवों से अलग। आनंददायी। सुखद और अविस्मरणीय। चकित करने वाला।
इस अनुभव से मुझे पता चला कि रामचरित मानस आनंददायिनी ही नहीं धनदायिनी भी होती है। इससे पहले मैं यही जानता था कि तुलसी कृत रामचरित मानस पुण्य देने वाली, पाप हरने वाली और विज्ञान सम्मत भक्ति प्रदान करने वाली है। मैं मानता था कि इसी कारण लोग भक्ति भाव से रामचरित मानस का पाठ करते हैं। मानस का पाठ कुछ लोगों की दिनचर्या में शामिल है तो कुछ लोग विशेष अवसरों पर इसका पाठ करते हैं। पाठ भी अलग तरह से किए जाते हैं। कोई महज सुंदर कांड पढ़ता है तो कुछ नवान्ह के अनुशासन का पालन करते हुए मानस का आद्योपांत पाठ करते हैं। रामचरित मानस का सामूहिक अखंड विशेष अवसरों पर घर परिवार के लोगों के बीच हमेशा से होता रहा।
अस्सी के दशक में इसका रूप सामूहिक से सार्वजनिक हो गया। मंदिरों से लेकर घरों तक में गाजे-बाजे के साथ मानस पाठ होने लगे। लाउडस्पीकर लगने लगे। हर गली, मोहल्ले में पाठ करने वाली मंडलियां गठित होने लगीं। अखंड पाठ के लिए मंडलियां बुलाई जाने लगीं। भव्य राम दरबार सजाया जाने लगा। प्रसाद में विविधता आने लगी। चढ़ावा बढ़ने लगा। चाय-पान की व्यवस्था होने लगी। मानस पाठ के बाद कई लोग तो दावत भी करने लगे। दोहों, चौपाइयों की परंपरागत धुनों पर फिल्मी गीतों की धुनें चढ़ने लगीं। मानस का अखंड पाठ, हरियाणा- पंजाब में होने वाले देवी जागरण का रूप लेने लगा। लाउडस्पीकर के तेज शोर में रात भर रामचरित मानस का अखंड पाठ गूंजने लगा।
नब्बे के दशक में यह दौर थमा। रामचरित मानस का सामूहिक और सार्वजनिक अखंड पाठ समाप्त तो नहीं हुआ, लेकिन धीमा पड़ने लगा। उसकी भव्यता, उसकी सार्वजनिकता, उसकी सामूहिकता घटने लगी। भीड़ कम होने लगी। मानस पाठ में दिखने वाली सुरुचि सम्पन्नता गायब होने लगी। शोर कम होने लगा। पाठ की सूचनाओं में अंतराल बढ़ने लगा। वर्ष में एकाध बार ही मानस पाठ की सूचना मिलने लगी। इसीलिए ससुराल में अखंड मानस पाठ के आयोजन की सूचना मिली तो सुखद आश्चर्य हुआ। मैं पहुंचा। मंडली आई हुई थी। यह सुनकर चकित हुआ कि मंडली वालों ने पारिश्रमिक नहीं मांगा था। मंडली वालों का कहना था कि धर्म के प्रसार के लिए वे यह काम निशुल्क करते हैं। आने- जाने और वाद्य यंत्रों के रखरखाव के लिए वे महज चढ़ावा और आरती का पैसा लेते हैं। एक तरह से यह उनकी शर्त थी कि चढ़ावा और आरती का पैसा उनका होगा। घर के पंडित जी को मानस पाठ के चढ़ावे और आरती से कुछ नहीं मिलेगा। घर के पंडित जी को आप अपना भुगतान कीजिए।
सीधी सरल इस शर्त को मानने में कोई एतराज नहीं था। इसलिए घर में पूजा पाठ कराने वाले पंडित जी को समझा दिया गया। वे भी मान गए। मंडली के लोग ढोलक, हारमोनियम, मंजीरा और करताल आदि लेकर आए। निश्चित समय पर मानस पाठ प्रारंभ हुआ। धूमधाम से बाजे- गाजे के साथ पहले आरती हुई। आरती की सुमधुर धुनों ने लोगों का मन मोह लिया। शंख और घंटे की आवाज से पूरा वातावरण धर्ममय हो गया। आरती में लोग झूम उठे। प्रसन्न हो गए। भव्य आरती हुई। पहला ही काम लोगों का दिल जीतने वाला रहा। परिणामस्वरूप जब लोगों के बीच आरती घुमाई गई तो सभी ने दिल खोलकर रुपए चढ़ाए। आरती का थाल रुपयों से भर गया। आरती के थाल में पांच सौ तक के नोट देखकर हम भी खुश हुए। सोचा चलो मंडली वालों को अच्छी रकम मिल गई, उन्हें कोई शिकायत नहीं होगी।
आरती समाप्त होते- होते सभी रिश्तेदार और पड़ोसी आ चुके थे। सुर, ताल, लय के साथ मानस पाठ शुरू हो गया। भक्तजनों की भीड़ देखकर मंडली वाले जोश से भर उठे। घरेलू गीतों और लोकधुनों पर चौपाइयों, दोहों का जोरशोर से पाठ होने लगा। मंडली वाले तो कुशलतापूर्वक सभी धुनों पर गा लेते, लेकिन एकत्र लोग अटकते- अटकते चौपाइयां पढ़ पाते। मंडली वालों के साथ लोग गा भले नहीं पा रहे हों, लेकिन आनंद में सभी डूबे थे। कुछ घंटों बाद मंडली वालों ने फिर आरती की बात की। राम जन्म का प्रसंग आने वाला था। उत्साहित घर वाले फिर आरती सजाने लगे। रामलला के जन्म पर सोहर की धुनों पर चौपाइयां गाई जाने लगीं। महिलाएं उत्साह और आनंद से भर उठीं। मंडली वालों ने महिलाओं से कहा- रामलला का जन्म है। नाचिए। गाइए। महिलाएं तो मानो इसी का इंतजार कर रहीं थीं। पहले लड़कियां उठकर नाचने लगीं। फिर बहुएं नाच में शामिल हो गईँ। देखते देखते बच्चियां और वृद्धाएं भी नाचने लगीं। घर और पड़ोस की बहू- बेटियों को नाचते देख रिश्तेदारों ने न्योछावर शुरू कर दिया। मंडली वाले लपक- लपक कर न्योछावर के नोट थामने लगे। देखते- देखते दो ढाई हजार रुपए न्योछावर हो गए। न्योछावर का सारा रुपया मंडलीवालों ने ले लिया।
राम जन्म का प्रसंग समाप्त हुआ। मंडली वालों ने रामलला की आरती शुरू कराई। घंटे, घड़ियाल, शंख और ढोल- मजीरों की तेज आवाज में रामलला की आरती हुई। आनंद में सराबोर उपस्थित लोगों के बीच फिर आरती घुमाई गई। लोगों ने आरती की लौ पर हाथ फिराकर उसे माथे पर लगाया। पर्स से नोट निकाल कर आरती के थाल में चढ़ाया। आरती का थाल पहले की तरह फिर नोटों से भर गया। इसी तरह का उल्लास राम सीता के विवाह के समय छाया। महिलाएं नाचीं। रिश्तेदारों ने उन पर रुपए न्योछावर किए। मंडली वालों ने न्योछावर के रुपए लपके। सीताराम विवाह के बाद फिर आरती हुई। आरती में फिर लोगों ने श्रद्धापूर्वक रुपए चढ़ाए। मंडली वालों ने आरती के रुपए अपने पास रख लिए। इस तरह राम वनवास, दशरण मरण, चित्रकूट में भरत मिलाप, सीता, राम और लक्ष्मण चित्रकूट निवास, राम विरह, सीता की खोज, हनुमान जी का राम से मिलना, बजरंगबली का सीता को खोजना, राम- रावण युद्ध, लंका विजय और अयोध्या में राजतिलक जैसे हर प्रसंग पर अवसरानुकूल लोकधुनों पर चौपाइयां गाई और पढ़ी गईं। हर प्रसंग के बाद आरती हुई। हर कांड की समाप्ति पर तो आरती होती ही रही। इस तरह 24 घंटे के अखंड पाठ में कुल 14 बार आरती हुई। आधा दर्जन प्रसंगों पर महिलाएं नाचीं और रिश्तेदारों ने न्योछावर के नोट लुटाए। यह अलग बात है कि बाद में आरती और न्योछावर के रुपयों की संख्या मं क्रमशः कमी आती गई।
पूर्णता के उल्लास, उत्साह और आनंद के बीच मानस पाठ संपन्न हुआ। समापन आरती की तैयारियां होने लगीं। शंख, घंटा, घड़ियाल, ढोल, मजीरे गूंजने लगे। रामचरित मानस के साथ कई देवताओं की आरती गाई गई। परिणामस्वरूप आरती लंबी चली। आरती इतनी लंबी खिंची की समापन के बाद पहुंचने वाले चतुर सुजान भी आरती में शामिल हो गए। पाठ कक्ष लोगों से भर गया। खचाखच भरे हॉल में लोगों के बीच आरती घुमाई गई। आरती का थाल इस बार सबसे ज्यादा नोटों से भर उठा। कुल मिलाकर सारा कार्यक्रम हर्षोल्लास से संपन्न हुआ। घर वाले आनंद विभोर। रिश्तेदार नातेदार प्रसन्न। पड़ोसी खुश। सभी मंडली वालों की ताऱीफ कर रहे थे। मंडली वाले विनम्रता से दोहरे हुए जा रहे थे। हर तारीफ पर हाथ जोड़कर और सिर झुकाकर भगवतकृपा कहते। धर्म से विनम्रता कैसे आती है, लोग यह समझ रहे थे। कोई यह नहीं समझ पा रहा था कि मंडली वालों को 24 घंटों में 14-15 हजार रुपए मिल चुके हैं। और विनम्रता धर्म से नहीं धन से आती है।
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