Saturday, August 28, 2010

अलवर की कचौरी जो भर दे मुंह में पानी

जोधपुर की प्याज की कचौरी ने भले मशहूरी पा ली हो, लेकिन अलवर की कचौरी और सब्जी स्वाद में कम नहीं। यह लोगों की यादों में बसती है। कचौरी का नाम आते ही मुंह में पानी भरने लगता है। गाड़ी खुद-ब-खुद होप सर्कस की ओर मुडऩे लगती है और देखते ही देखते दो-चार कचौरी पेट में पहुंचकर आत्मा को तृप्त कर देती है।

अलवर भी इलाहाबाद जैसा पुराना शहर है। इसलिए शहरवासियों की दिनचर्या काफी कुछ एक जैसी ही है। सुबह नाश्ते में जलेबी-कचौरी और शाम को रबड़ी-इमरती। अलवर में कचौरी के रसिया तमाम ऐसे लोग हैं, जिनकी सुबह कचौरी की दुकान से ही होती है। शहर वाले तो होप सर्कस की कचौरियों का लुत्फ लेते ही हैं, घर आए मेहमानों को भी इसका स्वाद चखाकर वाहवाही लूटते हैं। बाहर से यहां आने वालों का तो नाश्ता और खाना यह कचौरी होती ही हैं।

आपने सुना होगा जरूरत इजाद की मां होती है। इस कहावत को आंखों से देखना हो तो आप घनश्याम की साइकिल पर चलती-फिरती कचौरी की दुकान में देख सकते हैं। घनश्याम शहर में कहीं भी कचौरी खिलाते मिल जाएंगे और वह भी बिना किसी तामझाम और एकस्ट्रा पेमेंट के। मालाखेड़ा बाजार स्थित धन्ना की उड़द की दाल से निर्मित कचौरी छोले का स्वाद लाजवाब है तो अशोक टाकीज के पास कुम्हेर सोमवंशी की कचौरी और चटनी का स्वाद अद्भुत। कढ़ी के साथ कचौरी का स्वाद लेना है तो आपको नयाबास चौराहा स्थित नरेश मिष्ठïान भंडार पर पहुंचना होगा। गरमागरम आलू की सब्जी के साथ दाल की कचौरी का स्वाद चाहिए तो आपको होपसर्कस पर मथुरा कचौरी वाले तक जाना होगा। यहीं पर गणेश मंदिर के पास श्याम सुंदर सैनी मथुरा की स्पेशल सब्जी के साथ कचौरी खिलाते मिल जाएंगे। श्याम सुंदर का दावा है कि उनकी जैसी सब्जी कोई नहीं बनाता और उनकी बेड़ी खाने तो दूर-दूर से लोग वर्षों से उनके पास आ रहे हैं। होप सर्कस पर आपको और भी कई कचौरी वाले मिल जाएंगे, लेकिन याद रखिए कि स्वाद का यह कारोबार यहां सुबह ६ से १० बजे तक ही चलता है।

धन्ना कचौरी के मालिक श्याम सुंदर बताते हैं कि हम छोले और चटनी के साथ ग्राहकों को कचौरी देते हैं। कुंहेर कचौरी के मालिक कुंहेर सोमवंशी कहते हैं कि विशेष साइज की होने के कारण उनकी कचौरी ग्राहक पसंद करते हैं। नरेश मिष्ठïान भंडार के मालिक अमित नधेडिय़ा बताते हैं कि उनकी कचौरी तो ग्राहकों के दिल में बसती है, वो तो केवल सेवा करते हैं। मथुरा कचौरी वाले राकेश गोयल बताते हैं कि ४० साल से उनकी ठेली अलवरवासियों की सेवा कर रही है। पहले उनके परिवार की ओर से एक ही ठेली लगती थी। अब उनके परिवार के अन्य सदस्यों की ओर से दो और ठेलियां लगाई जाती हैं। कुल मिलाकर राजस्थान का ऐतिहासिक शहर अलवर अन्य कारणों के अलावा इलाहाबादियों को कचौरी के लिए भी पसंद आएगा।

Wednesday, August 11, 2010

चली गई मुनिया, उजड़ गा टोला

ऑफिस को निकला तो सामने मकान मालकिन मिल गईं। गमगीन सी। देखते ही बोलीं- मुनिया नहीं रही। मेरे मुंह से अचानक निकल गया, ओह, तभी रात में गली खाली और मोहल्ला शांत था। अचानक मुझे लगा कि मैं गलत बोल गया। आदमी को सोच समझकर बोलना चाहिए। दुखी मकान मालकिन मुनिया के कृतित्व से ज्यादा मेरे व्यक्तित्व पर क्या सोच रही होंगी। खैर, जो होना था, वह तो हो चुका था। मुंह से निकली बात वापस तो ली नहीं जा सकती थी।

डैमेज कंट्रोल की गरज से मैंने बात आगे बढ़ाई। कैसे हुआ? वो बोलीं- पता नहीं। कोई बता रहा था, ट्रक के नीचे आ गई। दुख प्रकट करते हुए मैंने कहा कि इन दिनों हर सडक़ पर कुत्ते मरे पड़े मिलते हैं। वाक्य पूरा होते ही मुझे लगा कि मैं सुधर नहीं सकता। बिना सोचे समझे फिर बोल गया। मुनिया की मौत से संवेदित मकान मालकिन का दुख मेरी बात सुनकर और बढ़ गया होगा। मुझे उनके दुख का भागीदार बनना चाहिए था। एक अच्छे इंसान के नाते उनका दुख बांटना चाहिए था, लेकिन ना जाने क्यों, मैं उनकी संवेदना से जुड़ नहीं पा रहा था। प्यारी मुनिया की दिवंगत आत्मा के लिए दुख प्रकट नहीं कर पा रहा था। शोक का कोई संदेश मेरे मुंह से नहीं निकल रहा था।

दरअसल, इन दिनों बारिश रुकी नहीं कि झुंड के झुंड कुत्ते सडक़ पर आ जाते हैं। वे आपस में मिलकर ऐसा समां बांधते हैं कि सडक़ पर चलना मुश्किल हो जाता है। स्पीड में कार चलाना तो छोडि़ए सडक़ से सकुशल गुजरना कठिन हो जाता है। रात को तो स्थिति यह होती है कि या तो आप कहीं भिडि़ए या कुत्तों पर चढ़ा दीजिए। इसलिए सडक़ पर कुत्तों को मरना, मुझे संवेदित नहीं करता, लेकिन यहां मामला कुत्तों का नहीं, मुुनिया का था। मुनिया, यानी हमारी मकान मालकिन की प्यारी बिच।

मुनिया मुहल्ले की स्ट्रीट बिच थी। मकान मालकिन के प्यार को देखते हुए मैं मुनिया को गली की कुतिया नहीं कह सकता। कुत्ता शब्द तो वो सुन लेती हैं, लेकिन कुतिया शब्द उनसे बर्दाश्त नहीं होता। मकान मालकिन से मुनिया का बस इतना रिश्ता था कि वो गेट पर दिन में दो एक बार आ जाती। उनकी दी हुई रोटी खाती और फिर गली में गुम हो जाती। वह कहां सोती। किसके साथ घूमती। गर्मियों की दोपहरी और जाड़ों की रात कहां काटती, कोई नहीं जानता। बस, बारिश के इन दिनों उसकी धूम मच जाती। वह मोहल्ले की हीरोइन होती। इतराती घूमती। पेड़ों, घरों, कोठियों के चक्कर लगाती। उसकी अदाओं पर कुत्ते मर मिटते। ना रात-रात रहती, ना दिन-दिन। गली सडक़ हर जगह मुनिया ही मुनिया होती। लोगों का चलना फिरना, उठना बैठना मुश्किल हो जाता। चू्ंकि मुनिया का कोठी के भीतर घुसना प्रतिबंधित था। इसलिए वह अपने साथियों के साथ गेट तक आती, रोटी खाती और लौट जाती। उसका कोई साथी भी नियम तोडऩे की कोशिश नहीं करता। मुनिया समझदार थी, अपनी हद जानती थी। इसलिए उसने कभी कोठी के खूबसूरत लॉन को अपना प्रेम मैदान बनाने की जिद नहीं की। वह अनुशासित थी। शायद इसीलिए मकान मालकिन को मुनिया प्यारी लगती थी।

लेकिन गली सडक़ वाले दुखी रहते। वे हताशा में बड़बड़ाते इन्होंने जीना हराम कर दिया है। मैं भी उनमें से एक हूं। मजबूरी के मारे, मुझे रोज रात को कार ड्राइव करते हुए घर लौटना पड़ता है। इन दिनों बारिश के बाद सडक़ के दोनों किनारे तो काफी देर तक गीले बने रहते हैं, जबकि बीच का हिस्सा जल्दी सूख जाता है। रात में बीच सडक़ के इसी हिस्से पर प्रेमी कुत्तों की महफिल सजती है। थोड़ी-थोड़ी दूर पर चारों ओर बेतरतीबी से बिखरकर बैठे आधा दर्जन कुत्ते। इंच भर हिलने को राजी नहीं। तेज आता वाहन भले ऊपर चढ़ जाए। कोई भी भगोड़ा साबित होने को तैयार नहीं। प्रेमियों की यह दिलेरी वाहन चालकों को सडक़ किनारे चलने या नीचे उतरने को मजबूर करती है। जब भी कोई दिलजला डरकर अपनी जगह छोड़ता है तो वह अमर हो जाता है। सुबह उसकी लाश जमादार घसीटते हैं।

रात में ऑफिस से घर लौटते हुए रोज मेरा विश्वास पक्का होता है कि खुल्लमखुल्ला प्यार करेंगे हम दोनों, जैसे फिल्मी गीत इन्हीं को देखकर लिखे, गाए और फिल्माए गए होंगे। ना जाने कितनी प्रेम कहानियों का जन्म इन्हें देखकर हुआ होगा। प्रेम कहानियों में विलेन घुसेडऩे के आइडिया भी फिल्म वालों ने यहीं से सीखे होंगे। अन्यथा प्रेम में डूबे दो इंसानों के बीच तीसरे की गुंजाइश कहां? मेरा तो यह भी विश्वास है कि धर्मेन्द्र ने इन्हीं को देखकर, कुत्ते मैं तेरा खून पी जाऊंगा, डायलॉग गढ़ा होगा। मुझे तो यहां तक विश्वास होने लगा है कि रात में सडक़ पर घूमते हुए फिल्मकारों और साहित्यकारों को ही नहीं, संतों को भी प्रेम, उसके विविध रंग और उसमें अन्तर्निहित जोखिम का ज्ञान इन्हीं से मिला होगा। तभी तो हमारा रीतिकाल ही नहीं, भक्तिकाल भी प्रेम की गरिमा और महिमा से भरा है। रात को सडक़ों पर इन प्रेमियों की हिम्मत, दिलेरी, निष्ठा और समर्पण देखकर मन अनायास अध्यात्म की गलियों में भटकने लगता है। प्रेम की ताकत का अहसास होने लगता है। अपना जन्म अकारथ लगने लगता है। लगता है, सबने इनसे सीखकर काम चलाया। नाम कमाया। पैसा बनाया। उल्लू तक बनाया, लेकिन रे मन मूरख, तूने तो केवल जनम गंवाया।

प्यारी मुनिया के जाने के बाद हमारा मोहल्ला उजड़ सा गया है। अजीब सी खामोशी छा गई है। मुनिया की मौत पर दुख प्रकट करने का मौका गंवाने के बाद मैं यह शोक संदेश लिखकर प्रायश्चित कर रहा हंू। मकान मालकिन को कैसे बताऊं कि मैं भी मुनिया के जाने के बाद सूने और उदास मोहल्ले को देखकर दुखी हूं। पता नहीं उन्हें यह सब सुनकर अच्छा लगेगा या नहीं?

Sunday, August 1, 2010

फैक्ट फाइल

सन 1936 में अली अकबर खां साहब ने पहली बार एकल प्रस्तुति दी। उस समय उनकी उम्र महज 14 साल थी। एकल वादन की पहली प्रस्तुति का मंच बना था, इलाहाबाद। इसके दो वर्ष के भीतर अली अकबर खां साहब का नाम पूरे देश में जाना जाने लगा। लोग कहते हैं कि अली साहब का सरोद वादन ऐसी अवस्था में जा पहुंचता था, जहां वह नाद और ब्रम्ह के बीच स्वरों का एक सेतु निर्मित कर देता था। वहां केवल एक अलौकिक आनंद तैरता था। अली अकबर खां का जन्म 14 अप्रैल 1922 को त्रिपुरा के शिवपुर गांव में हुआ था। वे अलाउद्दीन खां की तीसरी संतान थे। अली साहब का निधन 87 साल की उम्र में 19 जून 2009 को अमेरिका में हुआ।

Friday, July 30, 2010

हम उम्मीद से हैं....

इन दिनों लगभग रोज प्रेमी युगल किसी न किसी टीवी स्क्रीन पर दिखते हैं। लगता है देश में प्रेम की गंगा बह रही है। सभी नहा रहे हैं। जो भी फुरसत में हैं, प्रेम गंगा की लहरों का लुत्फ ले रहा है। न्यूज चैनलों पर छा जाने का बोनस अलग पा रहा है। प्रेमी युगलों से दुनिया और समाज की शिकाएतें सुनकर मेरा विश्वास दृढ़ हो जाता है कि दुनिया अभी तक नहीं बदली। जमाना वैसे का वैसे जालिम है और प्यार करने वाले मासूम और निर्दोष। इन मासूमों को इतिहासबोध तक नहीं है। अन्यथा इन्हें इतना तो पता ही होता कि लैला-मजनू, शीरी-फरियाद, हीर-रांझा से लेकर अकबर-सलीम- अनारकली तक, यानी किसी जमाने के मां-बाप ने प्रेम में डूबी अपनी लडक़ी की डोली नहीं उठाई। जब भी कोई लडक़ी दुनिया के सबसे सुंदर और प्यारे लडक़े को प्यार करती है, (लडक़े प्यारे और सुंदर होते ही हैं, वरना लड़कियां उन्हें पाने का इतना जोखिम क्यों उठातीं) मां-बाप विरोध की अपनी ऐतिहासिक भूमिका में आ जाते हैं।

जमाना बदलने के भ्रम में पड़े भोले प्रेमी युगल प्यार की रासलीला में कंस से सुदामा की भूमिका की उम्मीद करते हैं। टीवी स्क्रीन पर पढ़े-लिखे और बुद्धिजीवी जैसे दिखने वाले लोग जमाना बदल जाने के इनके भ्रम को और बढ़ाते हैं। पूरे प्रकरण को कॉमेडी सरकश की तरह एन्ज्वॉय करते हुए बुद्धिजीवी टाइप के ये लोग अंत में यह राज खोलते हैं कि जमाना तो बदल गया, लेकिन लोग जाहिल के जाहिल रह गए।

प्रोग्राम देखने के बाद मेरे मन में भी यह शक आने लगता है कि दुनिया बदल गई, लेकिन थोड़ी ही देर में जाहिल मन (जैसा टीवी वालों ने बताया) चिल्ला-चिल्लाकर कहने लगता है कि कुछ नहीं बदला। ना समाज और ना दुनिया। दुनिया और जमाना बदलने के भ्रम में कई पीढिय़ों ने अपनी जवानी बर्बाद कर डाली। मेरी पीढ़ी को भी यह भ्रम था कि हमारी आवारागर्दी दुनिया बदल देगी। समाज बदलने के लिए हमने कितनी दारू पी। सिगरेट बीड़ी से लेकर चरस सुल्फा तक का रसास्वादन किया। कंधे पर झोला लटकाकर चिकने कागजों पर छपी दुनिया भर की क्रांति की किताबों को फटी चिथड़ी किताबों में तब्दील किया। कितनी लड़कियों के साथ स्त्री विमर्श किया। फिर भी कमबख्त समाज नहीं बदला। जस का तस ही रहा। दुनिया, नहीं बदली तो नहीं बदली।

प्रेमी युगलों की बातें सुनकर मुझे अनायास अपनी गुणी पीढ़ी याद आ जाती है। गुणी शब्द पर आपको ऐतराज हो तो आप समझदार या अक्लमंद शब्द रिप्लेस कर सकते हैं। इसके बावजूद आपका गुस्सा काबू में नहीं आए तो आप पूछ सकते हैं कि आपकी पीढ़ी ने ऐसा क्या तीर मारा? जब आप कुछ बदल ही नहीं पाए तो आपकी बकवास क्यों सुनें? हर हिंदुस्तानी अपने कारनामों को महान मानकर अपनी जीवन नैया खेता रहता है और उसकी कोई नहीं सुनता। आपके इस तीखे सवाल पर मेरा विनम्र जवाब यह है कि भले ही हमारी पीढ़ी दुनिया नहीं बदल पाई, लेकिन हमारी भूमिका और कारनामों पर सार्वजनिक बहस नहीं हुई। भइए, हमारी पीढ़ी को हलके में मत लो। हम पढ़े लिखे इंटलैक्चुअल टाइप के युवा थे। हम विचारों से लैस थे। सब कुछ विचारों के तहत करते थे, इसलिए हो हल्ला नहीं मचता था। सब कुछ स्वीकार्य हो जाता था। महिमा मंडित रहता था। जैसे, वैदिकी हिंसा, हिंसा न भवति।

मेरे एक दोस्त हैं। इलाहाबादी हैं। आप उन्हें सेक्स कुंठित कह सकते हैं। प्रेम करने में बोल्ड और बाप-चाचा से डरे सहमे प्रेमी प्रेमिका जब भी उन्हें टीवी पर दिखते हैं, वे भडक़ उठते हैं। वे भड़भड़ाकर बोलने लगते हैं कि आधुनिकता का मतलब निर्लज्जता हो गया है। समाज मूल्यहीन हो गया। जीवन में आदर्शों की जगह नहीं रह गई। पता नहीं कौन सा पुराना दर्द उन्हें टीस जाता है और वे कराह उठते हैं। उफ, जमाना कितना बदल गया। आदि, आदि।

मैं उनको कभी नहीं समझा पाया कि मित्र, आज भले ही सब कुछ सीधा सपाट है। स्पष्ट है। साफ है। कोई घुमाव नहीं। कोई छिपाव नहीं। सब कुछ पारदर्शी। आदर्श की खोट नहीं। नैतिकता की चोट नहीं। अपना काम बनना चाहिए, जुगाड़ चाहे जो करना पड़े। इसके बावजूद समाज वहीं का वहीं है। कुछ भी नहीं बदला है। इसलिए नई पीढ़ी को अपने जमाने के किस्से सुनाकर उससे सबक लेने की प्रेरणा दो।

समाज ने किसी भी जमाने में खुली साफ बातें नहीं समझी। उसे हमेशा मूल्यों, आदर्शों में दबी छिपी बातें ही समझ में आईं। सीधी सपाट बातों और उनके करने वालों का हमेशा समाज ने विरोध किया। इसलिए ज्ञानी और विद्वान लोगों ने मूल्यों, आदर्शों की आड़ में ही समाज को समझाया। उसे उल्लू बनाते हुए अपना लल्लू सीधा किया। मैं उन्हें उनकी और अपनी साझा स्टूडेंट लाइफ की याद दिलाता हूं तो वे और भडक़ उठते हैं, लेकिन अहा, क्या दिन थे वे भी। इस पूंजीवादी और सामंती देश को विचारधारा से लैश करके आगे बढ़ाने का टेंडर हमारे नाम खुला था। विचारधारा के साथ राष्ट्र को अखंड और मजबूत बनाने का दायित्व हमारे कंधों पर था।

राइट और लेफ्ट सभी इस काम में लगे थे। यूनिवर्सिटी खुलते ही सभी तरह के विचार कैंपस में सक्रिय हो जाते थे। नई लड़कियों को देखने के सुख के साथ उन्हें अपनी विचारधारा से जोडऩे की होड़ लग जाती थी। राइट खेमे में कितनी लड़कियां गईं और लेफ्ट की ओर कितनी आकर्षित हुई, इसका हिसाब किताब रोज होता था। उस सुंदर लडक़ी ने मेंबरशिप फार्म क्यों नहीं भरा? नीता दूसरे खेमे में कैसे चली गई? परिणीता को कैसे पटाकर फॉर्म भरवाया, इस चर्चा में रात कट जाती थी। इसके साथ ही पुरानी खड़ूस लड़कियों की जगह नई सुंदर लड़कियों के कंधों पर जिम्मेदारी डालने का काम शुरू होता था।

नई लडक़ी को विचारधारा से जोडऩे का जिम्मा हर लडक़े के कंधे पर आ जाता था। सीनियर गोलाई में लड़कियों को बैठाकर स्टडी सर्किल जैसे खेल शुरू कर देते। नए लडक़े विचारधारा से जुड़े रहे, इसलिए उन्हें लड़कियों को घर पहुंचाने आदि का काम सौंप दिया जाता। नए लडक़ों पर यह जिम्मेदारी भी रहती थी कि वे लड़कियों पर नजर रखें ताकि वे दुश्मन के खेमे में न जाने पाएं। उसी दौर में हमें यह ज्ञान हुआ कि लडक़ी और पानी ढाल (सुविधा) की तरफ बहते हैं। और लडक़ी तो बेल (लता) होती है, सूखा बांस हो या हरा पेड़, जो भी उसके पास होगा, वह उसी पर लिपट जाएगी। इसलिए हर लडक़ी के साथ अपनी विचारधारा का एक लडक़ा लगा दिया जाता। यह ज्ञान सौ फीसदी खरा उतरता और लडक़ी फिर कहीं नहीं जाती। रिश्तेदारी या मोहल्ले का प्रेमी कहीं बात करता दिख जाता तो उसकी इस कदर धुनाई की जाती कि वह तुरंत पूर्व प्रेमी बन जाता। इस तरह पूरी सोच समझ के साथ हमारे जमाने में नई पीढ़ी को विचारधारा से लैश करने का काम होता।

सितंबर-अक्टूबर आते-आते सभी खेमों को कैंपस की चारदीवारी के बीच एक अदद छत की जरूरत महसूस होने लगती। हर खेमे के सीनियर्स गंभीर विचार विमर्श करते। जूनियर्स को समझाया जाता कि क्योंं जरूरी है कैंपस में अपनी विचारधारा की मजबूत छत। कैंपस की चारदीवारी के बीच विचारधारा की मजबूत छत बन जाए तो देश और समाज, दुश्मनों से, राष्ट्रविरोधियों से, फासीवादियों से, गद्दारों से, लंपटों से, प्रतिक्रियावादियों से, विदेशी ताकतों से, सामंतों से, स्थानीय गुंडों से, साम्प्रदायिक ताकतों से, जातिवादी ताकतों से बच जाएगा।

नतीजतन कैंपस को वैचारिक छत से ढकने का काम शुरू हो जाता। विचारधारा की छत मजबूत बनाने के काम में न्युकमर लडक़ों को लगा दिया जाता। विचारधारा की छत के नीचे न्युकमर लड़कियों के साथ भावनाएं पैदा करने के काम में सीनियर्स जुट जाते। न्युकमर लडक़े कंधों पर झोला लटका लेते। उनकी दाढ़ी बेतरतीब हो उठती। वे चिंतित दिखने लगते। उन्हें लगता कि सचमुच अब दुनिया बदल कर ही रहेगी। हद तो यह होती उन्हें पक्का विश्वास हो जाता कि वैचारिक छत की आड़ में उनके सीनियर्स दुनिया बदलने का जोखिम उठा रहे हैं।

कैंपस में उत्साही न्युकमर्स विचार पर विचार उलट रहे हैं। विचार खा रहे हैं। विचार की उल्टी कर रहे हैं। मलमूत्र भी विचारों का ही हो रहा है। विचार की छत मोटी और मजबूत होती जा रही है। देखते ही देखते विचारधारा की छत इतनी पक्की हो जाती है कि नीचे का रोना गाना ऊपर या बाहर से नहीं सुनाई पड़ता। भीतर से ना तो बाहर का कुछ दिखता और ना ही बाहर से भीतर का। अब लडक़े आ रहे हैं। जा रहे हैं। लड़कियां आ रही हैं। जा रही हैं। क्रश और बेतरतीब कपड़े भीतर हो रही क्रांति की रिहर्सल की कहानी बताते। देशभक्तों को याद करने का सबूत देते। लडक़े लड़कियों का झुंड विचारधारा की च्यूंगम मुंह में दबाए एक दूसरे को देख मुस्कुराते आते जाते रहते। दिन, दिन नहीं रह जाते। रात, रात नहीं रह जाती। सबको लगता सचमुच विचारों के बिना जीना भी कोई जीना है, यारों। जीने का मजा तो विचारधारा से जुडक़र ही आता है।

नवंबर- दिसंबर तक भीतर के कमरों में क्रांति शुरू हो जाती। राष्ट्र की पुरातनता हटाई जाने लगती। नई संभावनाएं टटोली जाने लगती। उभरते नए मूल्यों को सहलाया मसला जाने लगता। बुर्जआ वृत्ति अनावृत होती। सामंती मानसिकता तार तार होती। सिसकियों के बीच देशभक्ति के किस्से दोहराए जाते। राष्ट्र के लिए सब कुछ न्योछावर कर दिया जाता। नए उभरते भारत को देखकर सभी दंग रहते। सब को यह विश्वास हो जाता कि ऐसी क्रांति सिर्फ वे ही कर सकते थे। उनसे पहले की पीढ़ी ऐसा सोच भी नहीं सकती थी और आने वाली पीढ़ी में तो दम ही नहीं है। सब एक दूसरे को समझाते, विचारधारा के प्रति समर्पण तो करना ही पड़ता है। तुमने ही किया तो क्या हुआ। धीरे-धीरे सबको विश्वास हो जाता कि मेरे जैसा समर्पित कोई दूसरा नहीं। इतनी निष्ठा किसी के पास नहीं। यह काम तो सिर्फ वे ही कर सकते थे। अकेले उन्होंने ही किया। यदा कदा सिसकियां भी अगल-बगल वाले सुनते। नए समाज का बीजारोपण हो जाता।

क्रांति करने और राष्ट्र के लिए सब कुछ न्योछावर करने का शपथ लेने वाली अचानक पुराने भारत की शोषित औरतों जैसी दिखने लगतीं। साथ-साथ जीने मरने की बात करने लगतीं। लडक़े उनसे चिढक़र दूर भागते। इसे अपने खिलाफ बुर्जुआ साजिश करार देतेे। उन्हें समझाते तुम मां- बाप और समाज की चिंता करके क्रांति की धारा को कुंद कर रही हो। जीवन तुम्हारा है। इसपर तुम्हारा हक है। तुम्हारे मां-बाप का नहीं। मां-बाप के सामने झुककर तुम देश को समतावादी और आधुनिक बनने से रोकने का ओछा कर्म कर रही हो। राष्ट्र की सनातन धारा को तोड़ रही हो। यह देश और समाज के प्रति अपराध है। तुम लंपट हो। तुम्हारी सोच अपरिपक्व और पुरातनपंथी है। तुम भारत की सड़ी गली परंपराओं से पोषित दकियानूस हो। क्रांति के रास्ते से हटकर रोने गाने के कारण तुम्हें इतिहास कभी माफ नहीं करेगा। जयचंद की तरह युगों-युगों तक तुम्हें अखंड राष्ट्र कोसेगा।

क्रांति कर होश में आ चुकी लड़कियों की बुद्धि कुंद हो जाती। वे लंपट और राष्ट्रविरोधी होने के आरोपों से सहमी रहतींं। आत्महत्या की बातें करने लगतीं। ऐसे में चारों तरफ स्त्री विमर्श तेज हो जाता। साफ सफाई की बातें होने लगतीं। कहा जाने लगता कि देश और समाज लड़कियों की इसी जाहिलियत के कारण कभी नहीं बदल सकता। वह सुबह पता नहीं कब आएगी, जब लड़कियां देश और समाज के लिए क्रांति को जन्म देंगी।

आंसुओं की लड़ी जब वैचारिकता के भवन से बाहर निकलकर सार्वजनिक होने लगती तो विचारधारा से जुड़े डॉक्टरों की तलाश शुरू होती। सांत्वना बंटने लगतीं। दुश्मनों की साजिश के विरुद्ध लंबे संघर्ष के भाषण दिए जाने लगते। सीनियर्स के दबाव में कुछ न्युकमर लडक़े शादी को तैयार हो जातेे। नए समाज के निर्माण के लिए वे कुछ भी त्याग करने की भावना से लबरेज हो उठते। कभी-कभी कोई सीनियर भी विचारधारा की रक्षा के लिए दूसरी या तीसरी शादी कर लेता तो कोई लडक़ी किसी की तीसरी बीवी बन जाती। शेष के लिए चंदा किया जाता। हफ्ते दस दिन में दो चार हजार इक्ट्ठा करके डॉक्टर को गुपचुप सौंपकर छुट्टी पाई जाती। दुश्मन के खेमे से आए घुसपैठिया से मुक्ति पाकर बचे पैसों की दारू पार्टी होती।

इस तरह समाज और दुनिया बदलने के ना जाने कितने उपक्रम हमने किए, लेकिन ना तो दुनिया बदली और ना ही समाज। आज भी वही रोना गाना है। आज भी भ्रूण हत्या से लेकर हत्या और आत्महत्या है। क्रांति की, बदलाव की, लंबी चौड़ी बातें सब करते हैं, लेकिन जैसे ही क्रांति गर्भ में आती है, सब डर जाते हैं। घुटने टेक देते हैं। क्रांति को कोई जन्म नहीं देता। इसलिए हमारे जमाने से लेकर आज तक ना तो दुनिया बदल पा रही है और ना ही समाज। हमारे उस स्वर्णिम युग के कितने जोड़े तलाक लेकर या आपसी मारपीट के बीच आज भी सुखी जीवन जी रहे हैं।

हम आशावादी लोग हैं। इसलिए अभी भी उम्मीद से हैं। हमारी उम्मीद राजनीतिक विचारधाराओं की जगह धार्मिक विचारधारा फैलाने वालों पर टिक गई है। देश में तमाम संत, साधू, संन्यासी समाज बदलने के काम में जुट गए हैं। वे धार्मिक विचारों के जरिए दुनिया बदलने की कोशिश कर रहे हैं। समाज में विचार फैलाए जा रहे हैं। विचारों की छत डाली जा रही है। राजनीतिक विचारकों से दुखी होकर दुनिया उनकी शरण लेने लगी है। उन्हें दंडवत प्रणाम कर रही है। अब बाबा जी टाइप के लोगों के आश्रम में युवक आ रहे हैं। जा रहे हैं। युवतियां आ रहीं हैं। जा रहीं हैं। सभी चाह रहे हैं कि नया समाज जन्म ले। दुनिया बदल जाए। जाहिर है कि इसका फल समाज को मिलेगा। एक दिन दुनिया बदलेगी। एक दिन नया समाज जरूर पैदा होगा। फिलहाल तो सड़े समाज में ही हमें रहते हुए अपने मां-बाप को कोसना है।

Thursday, June 10, 2010

बाप-बेटा संवाद

पिछले दिनों इलाहाबाद जाना हुआ। हालॉकि जाना पड़ा था, एक दुखद संदर्भ में। फिर भी सभी से मेल मुलाकात हो गई। कर्नलगंज से लौट रहा था तो देखा किशोर उम्र के कुछ लडक़े गली में खेल रहे हैं। मैं दरवाजे पर खड़ा विदाई ले रहा था कि एक अधेड़ उम्र का आदमी चिल्लाता हुआ आया और खेल रहे एक लडक़े से मुखातिब होते हुए बोला- अबे सुनाई नहीं देत का। एक घंटा से माई गोहार रही है।

उस आदमी का चिल्लाना सुनकर लडक़ों का खेल थम गया, लेकिन 13-14 साल का एक लडक़ा आगे बढक़र गुस्से में चिल्लायाा- आईत थी ना। एक घंटा से चिल्लाय रहे हो। अबहिन गरियाय-ओरियाय देबै तो सबसे कहबो मोर बेटवा गरियावत है।

यह दृश्य देख-सुनकर मेरा विश्वास और दृढ़ हो गया कि सचमुच इलाहाबाद नहीं बदला।

Tuesday, February 2, 2010

मेरा इलाहाबाद

न तो इलाहाबाद को अपने भीतर जीने वालो की कमी है और न ही ऐसे लोगो की जिनको इलाहाबाद ने अपने भीतर जिलाये रखा है। ये वही लोग है जो इलाहाबाद की पहचान बने और जिन्होंने साहित्य, संस्कृ ति व समाज में इलाहाबाद को पहचान दिलाई। यहां हम ऐसे ही कुछ लोगों के उन वाक्यों को प्रस्तुत कर रहे हैं जो उन्होंने अपनी पुस्तक या फिर किसी साक्षात्कार के दौरान इलाहाबाद के संदर्भ मे कही हैं।

प्यारी-प्यारी शरारतों की बारीक अंतर्धारा
धर्मवीर भारती
इक्कीस बरस पहले गंगाजल, दोस्तियों, छायादार लंबी सडक़ों, कविताओं, धूप-धूप फूलों, बहस-मुबाहसों, साइकिलों, पर चक्कर लगाते छात्र-कवियों और बेलोस गप्पेबाजीयों और महकती फिजाओं का एक शहर हुआ करता था। था इसलिए लिख रहा हूं कि शहर अब भी है पर वह नहीं है जो हुआ करता था, परिमल उस समय छाया हुआ था, निकष और नई कविताओं ने धूम मचा रखी थी पर उस परिमल मंडली के अलावा एक नया लेखक वर्ग क्षितिज पर उग रहा था- अजित, ओंकार, मार्कंडेय, जितेंद्र, कमलेश्वर, दुष्यंत। तब तक यह नहीं हुआ था कि सैद्धांतिक मतभेदों के कारण किसी का कृ तित्व नकारा जाये या व्यक्तिगत कीचड़-उछाल में मुब्तिला हुआ जाये। लोग अपनी श्रेष्ठ उत्कृष्ट रचनाओं के द्वारा स्थापित करने के आकांक्षी थे, और सबसे प्यारी बात यह थी कि सारे जोरदार बहस-मुबाहसों के बीच एक आत्मीय भरे परिहास की, निर्दोष प्यारी-प्यारी शरारतों क ी बारीक अंतर्धारा किांदगी और साहित्य मे एक ताजगी बनाये रखती थी।

पत्रकारिता की प्रारम्भिक शिक्षा यहीं मिली
नेमिचन्द्र जैन
मेरे मन मे इलाहाबाद के लिए बहुत सम्मान और कृतज्ञता का भाव है, क्योंकि जो कुछ मैने यहां हासिल किया उससे मैं आगे के जीवन में अपने-आपको अधिक सार्थक काम में लगा सका। एक बहुत महत्वपूर्ण चीज जो मैंने सीखी, वह थी प्रतीक के दो अंकों, लगभग दो वर्षों में एक साहित्यिक पत्रिका निकालने के लिए किस तरह का दृष्टिकोण होना चाहिए, इसकी बड़ी भारी शिक्षा मुझे मिली। फिर एक व्यावसायिक पत्रिका ंमनमोहन ं को एक वर्ष तक चलाने का अनुभव भी मिला। यह एक तरह की पत्रकारिता संबंधी मेरी प्रारंभिक शिक्षा है, जो इलाहाबाद में उन दिनों में हुई। जिसका बाद में कई रूपों में उपयोग हुआ। मैं निश्चित रूप से कह सकता हूं कि इलाहाबाद के परिवेश में भले ही मेरा अपना सृजन कर्म इतना प्रभूत और विशद न हुआ हो, उतना साफ-साफ स्पष्ट न हुआ हो पर उसके लिए कुछ हद तक मेरी तैयारी यहां हुई और वह बड़ा भारी संयोग था मेरे अपने व्यक्तित्व को निखारने का। बाद की जिंदगी में मैं जो कुछ कर सका उसके लिए इस परिवेश की अपनी जीवंतता और शक्ति थी, जिसने यह मुमकिन बनाया और मैं हमेशा बहुत कृतज्ञ हूं उन दिनों के लिए, जो मैने इलाहाबाद में बिताये।

इलाहाबाद ने ही मुझे प्रश्रय दिया
नरेश मेहता
मैंने इलाहाबाद क्यों चुना? मैं यहां नौकरी करने नहीं आया था। संसार में इलाहाबाद ने ही मुझेे प्रश्र्रय दिया। क्योंकि तब तक का इलाहाबाद आज के इलाहाबाद से तुलनीय नहीं हो सकता। तब के इलाहाबाद में न इतने लोग थे, न इतने मकान थे। यह आधुनिकता वाला लिबरल शहर था। जहां अगर बड़े-बड़े मकान थे तो बड़े-बड़े लोग भी थे। आज लोग ज्यादे हैं, लेकिन लगता है कि लोगों के शायद नाम खो गए हैं। आज के इलाहाबाद के माध्यम से उस समय के इलाहाबाद को, जिसने कि हमें खींचा, नहीं जाना जा सकता है। साहित्य के लिए, अपनी अस्मिता को जानने के लिए, अपनी सर्जनात्मकता को जानने के लिए उस समय इलाहाबाद का बड़ा महत्व था।

असंभव को संभव बनाने की कोशिश
कमलेश्वर
एक पूरा परिवेश जो एक पहचान देता है। वह पहचान शायद बहुत बड़ी पहचान होती है और वही बहुत बड़ी पहचान चाहे वह डा. धर्मवीर भारती के साथ रही हो, चाहे वह यहां से बाहर अन्य लेखकों के साथ रही हो, या उन लेखकों के साथ जो लेखक इलाहाबाद फिर लौट आये और या जिन्होंने इलाहाबाद को ही चुना, तो निश्चित रूप से कहीं न कहीं यहां से लगा था कि इलाहाबाद में जिस तरह से मंै देखता था यूनिवर्सिटी में, हिन्दी विभाग में भी, जबकी हम जाते थे अलग-अलग अपनी क्लासेज के लिए मित्रों से अलग तब भी देखते थे कि इलाहाबाद हमेशा बड़े विचारों क ो लेकर, इलाहाबाद हमेशा किसी न किसी महास्वपनों को लेकर, इलाहाबाद किसी न किसी एक असंभव स्थिति को लेकर जीता है। एक असंभव स्थिति को संभव बनाने की कोशिश में इलाहाबाद ने लेखन की एक शपथ हमसे ली थी।

इलाहाबाद है तो है
भैरव प्रसाद गुप्त
इलाहाबाद संस्कृति का क्षेत्र है, साहित्यिक आंदोलनों का केन्द्र है। छायावाद से लेकर प्रगतिवाद और प्रयोगवाद इलाहाबाद की ही देन है। यह कोई साधारण बात तो नहीं है। किसी भी शहर को यह देखकर जलन होती है, दिल्ली वाले तो और जलते है। वो कहते है कि तुम लोग एक मामूली से शहर मे रहते हो, टाऊन की तरह शहर है वह और तुम लोग कुछ भी करते हो तो आन्दोलन बन जाता है और हम लोग लाख सिर पीटते रहते है, कोई पूछता ही नहीं। क्या बात है? क्या चीज है? इसका जवाब देगा कोई, है उतर किसी के पास ।.. .. .. . इलाहाबाद है तो है। इसके लिए दिल्ली वाला क्या कर लेगा, कानपुर वाला क्या कर लेगा, कलकता वाला क्या कर लेगा, बनारस वाला क्या कर लेगा? यह बना है तो ऐसे ही थोड़े न बन गया है। इसे बनाया गया है, हमारे कवियों ने इसे बनाया है, लेखकों ने बनाया है।

इलाहाबाद आश्रय देता है और पीड़ा भी
अमरकांत
मै यहां परिमल और प्रगतिशील के बीच नोक-झोंक की बात नहीं करूंगा। वस्तुत: अब एक-दूसरे को गाली देने का समय बीत चुका है। वह पीढ़ी लगभग समाप्त है। अब तो बात नौजवान पीढ़ी के पास है। वही साहित्य के मशाल को आगे ले जाएंगे। मुझे इस इलाहाबाद मे बहुत स्नेही मित्रों का साथ मिला है। इस संबंध में कुछ कहने का अवसर नहीं है यह। इलाहाबाद आश्रय देता है और पीड़ा भी। पीड़ा भी जिंदगी को महसूस करने में सहायक है।

जैसा भी हूं इलाहाबाद के कारण हूं
गिरिराज किशोर
आज जैसा भी लेखक मैं हूं, इलाहाबाद के कारण ही हूं। इलाहाबाद मेरे ममत्व का वैसे ही केन्द्र है जैसे किसी के लिए उसका अपना जन्म स्थान होता है। लेखक के रूप में मै यहीं जन्मा। जब मै इलाहाबाद आता हूं तो मेरी आंखों के सामने ये यह इलाहाबाद नहीं होता, वह इलाहाबाद होता है जहां लेखकीय स्वायत्तता त्रिवेणी की चौथी गुप्त धारा की तरह प्रवाहित रहती थी। एनी बेसेन्ट हॉल मे वैचारिकी की गोष्ठी में, पं. सुमित्रानंदन पंत की उपस्थिति में, उनके महाकाव्य लोकायतन के बारे में साही जी ने कहा था- न मैंने लोकायतन पढ़ा है न पढ़ूंगा। उसके बाद पंत जी का जो ओजस्वी भाषण हुआ था वह एक यादगार की तरह है। काश, उसको टेप क्यिा गया होता। जहां तक मुझे याद है उन्होंने कहा था- कोई भव्य मकान हो और किसी को उसका बाथरूम ही अच्छा लगे तो कोई क्या कर सकता है? परिमल की कहानी की गोष्ठी में जिस स्तर का खुला विचार हुआ था, उस स्तर का विचार-विमर्श मंैने बाद की किसी कहानी गोष्ठी में नहीं देखा। परिमलियानों और प्रगतिशील लेखकों के बीच एक मंच पर आकर वैचारिक मतभेद खुलकर व्यक्त करने की जो सदाशयता थी वह मेरे लिए आज भी साहित्य की स्वायत्तता के मानक की तरह है। इलाहाबाद मेरे अंदर आज भी उसी तरह स्पन्दित होता रहता है।

यह शहर मुझे अपने घर सा लगा
हेल्मुत नेस्पिताल
मुझे इलाहाबाद में बहुत प्यार मिला है। मै यहां पहली बार 1968 में आया था। तभी से यह शहर मुझे अपना घर सा लगने लगा। मुझे यहां अच्छे दोस्त मिले। मै बार-बार यहां आकर महादेवी वर्मा, सुमित्रानंदन पंत, इलाचन्द‎्र जोशी, नरेश मेहता, अमृत राय, डॉ. हरदेव बाहरी, रविन्द‎्र कालिया, मार्क ण्डेय, कमलेेश्वर व डॉ. सत्यप‎्रकाश मिश्र से मिलता रहा। इनसे बड़ी सार्थक चर्चायें होती रहीं और इन्हें पढऩे में मजा भी आता है। हां, शहर में बदलाव दिखता है। अब सिविल लाइन्स नहीं रहा। बड़े-बड़े बंगले नहीं रहे, लेकिन, लोगों में कोई बदलाव नहीं है। उनके पास वही पुरानी दोस्ती करने और उसे निभाने को अंदाज बचा हुआ है। इलाहाबाद और उससे जुड़े लोगों के लिए यह बहुत बड़ी बात है।

इलाहाबादी श्रोता जैसे कहीं नहीं
डॉ. एन. राजम
श्रोता अलग-अलग तरह के होते है। कुछ चाहते है कि संगीत की शास्त्रीयता का स्तर बना रहे। वे स्वयं भी शास्त्रीयता को बरकरार रखने में अपना महत्वपूर्ण योगदान देते हैं। इलाहाबाद में ऐेसे श्रोताओं की कमी नहीं है। वे जानते है कि उनकी गंगा-जमुनी संस्कृति को यदि कोई बचाये रख सकता है तो वह है साहित्य और संगीत। यही वजह है कि यहां हमेशा ही साहित्य व संगीत के बड़े व गरिमापूर्ण आयोजन होते रहे और उनमें भाग लेना सुख देता रहा। हां, इधर कुछ वर्षों में कुछ गिरावट आयी है। अब पुराने दिनों की तरह के आयोजन, आयोजक व गुणी श्रोता कम होते जा रहे हैं। साहित्य व संगीत से जुड़ी संस्थाओं का बेहतर संचालन समय व अर्थ की मार झेलने पर मजबूर हो रहा है। फिलहाल विलाप करने से कुछ नहीं होने वाला, कुछ कोशिश करनी होगी।

चौपाटी तुझसे भली, लोकनाथ की शाम
कैलाश गौतम

जबसे आया बंबई, तब से नींद हराम। चौपाटी तुझसे भली, लोकनाथ की शाम।।
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याद तुम्हारी मेरे संग, वैसे ही रहती है। जैसे कोई नदी, किले से सटकर बहती है।। ‏
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असली नकली की यहां, कैसे हो पहचान। जितने है तंबू यहां, उतने है भगवान।।
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तीर्थराज के नाम पर, अच्छी लूट-खसोट। आया था वह सूट में, अब है सिर्फ लंगोट।।

(बरगद पत्रिका से साभार)

Monday, February 1, 2010

सेजिया दान फल गया

राजीव ओझा ने अपने ब्लॉग राजू बिंदास पर कई वर्ष पुरानी एक घटना लिखकर तमाम पुरानी यादें ताजा कर दीं। यही नहीं राजीव ने रजाई और फोल्डिंग खाट की बातें करके मुझे भी एक घटना याद करा दी। बीवी बच्चों से दूर रहने की सहूलियत ने मुझसे हर शहर में सेजिया दान कराया है। चंडीगढ़ ही नहींं, लखनऊ, आगरा, भोपाल सभी जगह सेजिया दान के बाद ही आत्मा मुक्त हुई और भूतों से पीछा छूटा। आगरा अमर उजाला के दिनों में आनंद अग्निहोत्री मेरे मित्र थे। वे आज भी मित्र हैं और इन दिनों देहरादून में हैं। मैं पिछले लगभग 2 वर्ष से कहीं सेटल नहीं हो पा रहा था। कुबेर टाइम्स, पायनियर साप्ताहिक होते हुए जब मैं अमर उजाला आगरा पहुंचा तो थोड़ा बेचैन था। इसी बीच दैनिक भास्कर के लिए प‎्र्रयास किया और चंडीगढ़ पहुंच गया। आगरा से चलने लगा तो आनंद से मैंने कहा कि पंडित जी जीते जी मेरा सेजिया दान लो और अमर उजाला से मेरी आत्मा को मुक्त कराओ। दुआ के नाम पर बस इतना मांगो कि मैं अब जम जाऊं। यायावरी से मेरा पिंड छूटे। आनंद मुस्काए और बोले अगर पैर में शनिश्चर है और मन बिना एडिटरी किए चैन नहीं पा रहा है तो भटकना तो पड़ेगा। गुरू, तुम जमो चाहे न जमो, लेकिन मैं तुम्हारी खाट, रजाई और गद्दे पर जरूर जमूंगा।
यार राजीव, तुम्हारा आर्टिकल पढक़र मुझे लगता है कि आगरा का सेजिया दान मुझे फल गया। आनंद की दुआ कुबूल हुई और मैं दैनिक भास्कर में देखते ही देखते डिप्टी न्यूज एडिटर से न्यूज एडिटर और एक्जीक्यूटिव एडिटर बन गया। यही नहीं दैनिक भास्कर में मैं 6 साल चंडीगढ़ में रहा और पिछले 3 साल से हिसार में हूं। यानी स्थायित्व भी मिल गया।
तुम्हें बहुत-बहुत धन्यवाद। बिंदास फक्कड़पन के अपने तमाम पुराने दिन याद दिलाने के लिए।