जोधपुर की प्याज की कचौरी ने भले मशहूरी पा ली हो, लेकिन अलवर की कचौरी और सब्जी स्वाद में कम नहीं। यह लोगों की यादों में बसती है। कचौरी का नाम आते ही मुंह में पानी भरने लगता है। गाड़ी खुद-ब-खुद होप सर्कस की ओर मुडऩे लगती है और देखते ही देखते दो-चार कचौरी पेट में पहुंचकर आत्मा को तृप्त कर देती है।
अलवर भी इलाहाबाद जैसा पुराना शहर है। इसलिए शहरवासियों की दिनचर्या काफी कुछ एक जैसी ही है। सुबह नाश्ते में जलेबी-कचौरी और शाम को रबड़ी-इमरती। अलवर में कचौरी के रसिया तमाम ऐसे लोग हैं, जिनकी सुबह कचौरी की दुकान से ही होती है। शहर वाले तो होप सर्कस की कचौरियों का लुत्फ लेते ही हैं, घर आए मेहमानों को भी इसका स्वाद चखाकर वाहवाही लूटते हैं। बाहर से यहां आने वालों का तो नाश्ता और खाना यह कचौरी होती ही हैं।
आपने सुना होगा जरूरत इजाद की मां होती है। इस कहावत को आंखों से देखना हो तो आप घनश्याम की साइकिल पर चलती-फिरती कचौरी की दुकान में देख सकते हैं। घनश्याम शहर में कहीं भी कचौरी खिलाते मिल जाएंगे और वह भी बिना किसी तामझाम और एकस्ट्रा पेमेंट के। मालाखेड़ा बाजार स्थित धन्ना की उड़द की दाल से निर्मित कचौरी छोले का स्वाद लाजवाब है तो अशोक टाकीज के पास कुम्हेर सोमवंशी की कचौरी और चटनी का स्वाद अद्भुत। कढ़ी के साथ कचौरी का स्वाद लेना है तो आपको नयाबास चौराहा स्थित नरेश मिष्ठïान भंडार पर पहुंचना होगा। गरमागरम आलू की सब्जी के साथ दाल की कचौरी का स्वाद चाहिए तो आपको होपसर्कस पर मथुरा कचौरी वाले तक जाना होगा। यहीं पर गणेश मंदिर के पास श्याम सुंदर सैनी मथुरा की स्पेशल सब्जी के साथ कचौरी खिलाते मिल जाएंगे। श्याम सुंदर का दावा है कि उनकी जैसी सब्जी कोई नहीं बनाता और उनकी बेड़ी खाने तो दूर-दूर से लोग वर्षों से उनके पास आ रहे हैं। होप सर्कस पर आपको और भी कई कचौरी वाले मिल जाएंगे, लेकिन याद रखिए कि स्वाद का यह कारोबार यहां सुबह ६ से १० बजे तक ही चलता है।
धन्ना कचौरी के मालिक श्याम सुंदर बताते हैं कि हम छोले और चटनी के साथ ग्राहकों को कचौरी देते हैं। कुंहेर कचौरी के मालिक कुंहेर सोमवंशी कहते हैं कि विशेष साइज की होने के कारण उनकी कचौरी ग्राहक पसंद करते हैं। नरेश मिष्ठïान भंडार के मालिक अमित नधेडिय़ा बताते हैं कि उनकी कचौरी तो ग्राहकों के दिल में बसती है, वो तो केवल सेवा करते हैं। मथुरा कचौरी वाले राकेश गोयल बताते हैं कि ४० साल से उनकी ठेली अलवरवासियों की सेवा कर रही है। पहले उनके परिवार की ओर से एक ही ठेली लगती थी। अब उनके परिवार के अन्य सदस्यों की ओर से दो और ठेलियां लगाई जाती हैं। कुल मिलाकर राजस्थान का ऐतिहासिक शहर अलवर अन्य कारणों के अलावा इलाहाबादियों को कचौरी के लिए भी पसंद आएगा।
3 comments:
आपका पोस्ट सराहनीय है .
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http://ashokbajaj99.blogspot.com/2010/08/blog-post_28.html
सर, आपने कचौरियों की तस्वीरें नहीं जोड़ी मगर कचौरी-महिमा पढ़कर मन-मष्तिष्क में स्वाद का कल्पना सागर हिलोरें मरने लगा है और पेट भरपूर भरा होने के बावजूद मुंह में पानी आ रहा है. लगता है कि इलाहाबादी देहाती के रसगुल्लों का कोई जोड़ीदार मिल गया है. अब मैं ज्यादा दिन तक अलवर की कचौरियों के स्वाद से खुद को अलग नहीं रख पाऊंगा. दिव्य कचौरियों से एकाकार होने के लिए जुल्मी जीभ आतुर हो उठी है....
सर, आपने बहुत स्वादिष्ट लिखा है, मज़ा आ गया.
सचमुच अलवर की कचौरी ने मुंह में पानी भर दिया, लेकिन ये मिलेगी कब।
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