जनवरी के अंतिम सप्ताह में इलाहाबाद गया था। संगम तट पर माघ मेला चल रहा था। बहुत कोशिश के बाद भी माघ मेला नहीं पहुंच पाया। यह कहकर संतोष करता रहा कि – बिन हरिकृपा मिलहिं नहीं संता। लेकिन कानों में रामचरित मानस का पाठ अभी भी गूंज रहा है। यही नहीं मानस के अखंड पाठ के चित्र आंखों के सामने नाच रहे हैं। ससुराल में रामचरित मानस का अखंड पाठ था। मंडली बुलाई गई थी। मुझे सिर्फ ड्राइंग रूम में बैठना था, मोहल्ले, पड़ोस के लोगों और मेहमानों के साथ। इच्छा हो तो मानस पाठ में भी। सबको चाय नाश्ता और प्रसाद मिल जाए, इस पर नजर रखनी थी। भव्य आयोजन था। अपने घर से लेकर दोस्तों और रिश्तेदारों के घरों तक मैं सैकड़ों बार रामचरित मानस के पाठ में शामिल हो चुका हूं, लेकिन इस पाठ का अनुभव अनोखा और अदभुत था। पिछले सारे अनुभवों से अलग। आनंददायी। सुखद और अविस्मरणीय। चकित करने वाला।
इस अनुभव से मुझे पता चला कि रामचरित मानस आनंददायिनी ही नहीं धनदायिनी भी होती है। इससे पहले मैं यही जानता था कि तुलसी कृत रामचरित मानस पुण्य देने वाली, पाप हरने वाली और विज्ञान सम्मत भक्ति प्रदान करने वाली है। मैं मानता था कि इसी कारण लोग भक्ति भाव से रामचरित मानस का पाठ करते हैं। मानस का पाठ कुछ लोगों की दिनचर्या में शामिल है तो कुछ लोग विशेष अवसरों पर इसका पाठ करते हैं। पाठ भी अलग तरह से किए जाते हैं। कोई महज सुंदर कांड पढ़ता है तो कुछ नवान्ह के अनुशासन का पालन करते हुए मानस का आद्योपांत पाठ करते हैं। रामचरित मानस का सामूहिक अखंड विशेष अवसरों पर घर परिवार के लोगों के बीच हमेशा से होता रहा।
अस्सी के दशक में इसका रूप सामूहिक से सार्वजनिक हो गया। मंदिरों से लेकर घरों तक में गाजे-बाजे के साथ मानस पाठ होने लगे। लाउडस्पीकर लगने लगे। हर गली, मोहल्ले में पाठ करने वाली मंडलियां गठित होने लगीं। अखंड पाठ के लिए मंडलियां बुलाई जाने लगीं। भव्य राम दरबार सजाया जाने लगा। प्रसाद में विविधता आने लगी। चढ़ावा बढ़ने लगा। चाय-पान की व्यवस्था होने लगी। मानस पाठ के बाद कई लोग तो दावत भी करने लगे। दोहों, चौपाइयों की परंपरागत धुनों पर फिल्मी गीतों की धुनें चढ़ने लगीं। मानस का अखंड पाठ, हरियाणा- पंजाब में होने वाले देवी जागरण का रूप लेने लगा। लाउडस्पीकर के तेज शोर में रात भर रामचरित मानस का अखंड पाठ गूंजने लगा।
नब्बे के दशक में यह दौर थमा। रामचरित मानस का सामूहिक और सार्वजनिक अखंड पाठ समाप्त तो नहीं हुआ, लेकिन धीमा पड़ने लगा। उसकी भव्यता, उसकी सार्वजनिकता, उसकी सामूहिकता घटने लगी। भीड़ कम होने लगी। मानस पाठ में दिखने वाली सुरुचि सम्पन्नता गायब होने लगी। शोर कम होने लगा। पाठ की सूचनाओं में अंतराल बढ़ने लगा। वर्ष में एकाध बार ही मानस पाठ की सूचना मिलने लगी। इसीलिए ससुराल में अखंड मानस पाठ के आयोजन की सूचना मिली तो सुखद आश्चर्य हुआ। मैं पहुंचा। मंडली आई हुई थी। यह सुनकर चकित हुआ कि मंडली वालों ने पारिश्रमिक नहीं मांगा था। मंडली वालों का कहना था कि धर्म के प्रसार के लिए वे यह काम निशुल्क करते हैं। आने- जाने और वाद्य यंत्रों के रखरखाव के लिए वे महज चढ़ावा और आरती का पैसा लेते हैं। एक तरह से यह उनकी शर्त थी कि चढ़ावा और आरती का पैसा उनका होगा। घर के पंडित जी को मानस पाठ के चढ़ावे और आरती से कुछ नहीं मिलेगा। घर के पंडित जी को आप अपना भुगतान कीजिए।
सीधी सरल इस शर्त को मानने में कोई एतराज नहीं था। इसलिए घर में पूजा पाठ कराने वाले पंडित जी को समझा दिया गया। वे भी मान गए। मंडली के लोग ढोलक, हारमोनियम, मंजीरा और करताल आदि लेकर आए। निश्चित समय पर मानस पाठ प्रारंभ हुआ। धूमधाम से बाजे- गाजे के साथ पहले आरती हुई। आरती की सुमधुर धुनों ने लोगों का मन मोह लिया। शंख और घंटे की आवाज से पूरा वातावरण धर्ममय हो गया। आरती में लोग झूम उठे। प्रसन्न हो गए। भव्य आरती हुई। पहला ही काम लोगों का दिल जीतने वाला रहा। परिणामस्वरूप जब लोगों के बीच आरती घुमाई गई तो सभी ने दिल खोलकर रुपए चढ़ाए। आरती का थाल रुपयों से भर गया। आरती के थाल में पांच सौ तक के नोट देखकर हम भी खुश हुए। सोचा चलो मंडली वालों को अच्छी रकम मिल गई, उन्हें कोई शिकायत नहीं होगी।
आरती समाप्त होते- होते सभी रिश्तेदार और पड़ोसी आ चुके थे। सुर, ताल, लय के साथ मानस पाठ शुरू हो गया। भक्तजनों की भीड़ देखकर मंडली वाले जोश से भर उठे। घरेलू गीतों और लोकधुनों पर चौपाइयों, दोहों का जोरशोर से पाठ होने लगा। मंडली वाले तो कुशलतापूर्वक सभी धुनों पर गा लेते, लेकिन एकत्र लोग अटकते- अटकते चौपाइयां पढ़ पाते। मंडली वालों के साथ लोग गा भले नहीं पा रहे हों, लेकिन आनंद में सभी डूबे थे। कुछ घंटों बाद मंडली वालों ने फिर आरती की बात की। राम जन्म का प्रसंग आने वाला था। उत्साहित घर वाले फिर आरती सजाने लगे। रामलला के जन्म पर सोहर की धुनों पर चौपाइयां गाई जाने लगीं। महिलाएं उत्साह और आनंद से भर उठीं। मंडली वालों ने महिलाओं से कहा- रामलला का जन्म है। नाचिए। गाइए। महिलाएं तो मानो इसी का इंतजार कर रहीं थीं। पहले लड़कियां उठकर नाचने लगीं। फिर बहुएं नाच में शामिल हो गईँ। देखते देखते बच्चियां और वृद्धाएं भी नाचने लगीं। घर और पड़ोस की बहू- बेटियों को नाचते देख रिश्तेदारों ने न्योछावर शुरू कर दिया। मंडली वाले लपक- लपक कर न्योछावर के नोट थामने लगे। देखते- देखते दो ढाई हजार रुपए न्योछावर हो गए। न्योछावर का सारा रुपया मंडलीवालों ने ले लिया।
राम जन्म का प्रसंग समाप्त हुआ। मंडली वालों ने रामलला की आरती शुरू कराई। घंटे, घड़ियाल, शंख और ढोल- मजीरों की तेज आवाज में रामलला की आरती हुई। आनंद में सराबोर उपस्थित लोगों के बीच फिर आरती घुमाई गई। लोगों ने आरती की लौ पर हाथ फिराकर उसे माथे पर लगाया। पर्स से नोट निकाल कर आरती के थाल में चढ़ाया। आरती का थाल पहले की तरह फिर नोटों से भर गया। इसी तरह का उल्लास राम सीता के विवाह के समय छाया। महिलाएं नाचीं। रिश्तेदारों ने उन पर रुपए न्योछावर किए। मंडली वालों ने न्योछावर के रुपए लपके। सीताराम विवाह के बाद फिर आरती हुई। आरती में फिर लोगों ने श्रद्धापूर्वक रुपए चढ़ाए। मंडली वालों ने आरती के रुपए अपने पास रख लिए। इस तरह राम वनवास, दशरण मरण, चित्रकूट में भरत मिलाप, सीता, राम और लक्ष्मण चित्रकूट निवास, राम विरह, सीता की खोज, हनुमान जी का राम से मिलना, बजरंगबली का सीता को खोजना, राम- रावण युद्ध, लंका विजय और अयोध्या में राजतिलक जैसे हर प्रसंग पर अवसरानुकूल लोकधुनों पर चौपाइयां गाई और पढ़ी गईं। हर प्रसंग के बाद आरती हुई। हर कांड की समाप्ति पर तो आरती होती ही रही। इस तरह 24 घंटे के अखंड पाठ में कुल 14 बार आरती हुई। आधा दर्जन प्रसंगों पर महिलाएं नाचीं और रिश्तेदारों ने न्योछावर के नोट लुटाए। यह अलग बात है कि बाद में आरती और न्योछावर के रुपयों की संख्या मं क्रमशः कमी आती गई।
पूर्णता के उल्लास, उत्साह और आनंद के बीच मानस पाठ संपन्न हुआ। समापन आरती की तैयारियां होने लगीं। शंख, घंटा, घड़ियाल, ढोल, मजीरे गूंजने लगे। रामचरित मानस के साथ कई देवताओं की आरती गाई गई। परिणामस्वरूप आरती लंबी चली। आरती इतनी लंबी खिंची की समापन के बाद पहुंचने वाले चतुर सुजान भी आरती में शामिल हो गए। पाठ कक्ष लोगों से भर गया। खचाखच भरे हॉल में लोगों के बीच आरती घुमाई गई। आरती का थाल इस बार सबसे ज्यादा नोटों से भर उठा। कुल मिलाकर सारा कार्यक्रम हर्षोल्लास से संपन्न हुआ। घर वाले आनंद विभोर। रिश्तेदार नातेदार प्रसन्न। पड़ोसी खुश। सभी मंडली वालों की ताऱीफ कर रहे थे। मंडली वाले विनम्रता से दोहरे हुए जा रहे थे। हर तारीफ पर हाथ जोड़कर और सिर झुकाकर भगवतकृपा कहते। धर्म से विनम्रता कैसे आती है, लोग यह समझ रहे थे। कोई यह नहीं समझ पा रहा था कि मंडली वालों को 24 घंटों में 14-15 हजार रुपए मिल चुके हैं। और विनम्रता धर्म से नहीं धन से आती है।
Thursday, March 15, 2012
Saturday, December 3, 2011
दहेज के लपेटे में देवी देवता भी
मेरा विश्वास है कि दहेज मांगने और लेने देने कि तमाम कहानियां आपने सुनी होंगी। उनमें कई दुखद और कुछ रोचक होंगी। संभव है, इसीलिए, दहेज कि कहानियां आपको बोर भी करने लगी हों, लेकिन मैं आपको जो कहानी सुनाने जा रहा हूं, वह आपको आनंद देगी। आप वाह कह उठेंगे। मेरी इस कहानी में देवी हैं, देवता हैं, पंडित हैं, पंच हैं। यानी यह मानवेतर कहानी है। इसके बावजूद पौराणिक नहीं है। सामयिक है। दरअसल, जिसे मैं कहानी बता रहा हूं, वह सच्ची घटना है।
घटना राजस्थान के अलवर जिले की है। अलवर में एक कस्बा है लक्ष्मणगढ़। कस्बे के कुछ लोगों ने भगवान सालिगराम का विवाह तुलसा जी से करना तय किया। कस्बे के लोग दो हिस्सों में बंट गए। कुछ लोग भगवान सालिगराम की तरफ से वर पक्ष के बन गए तो कुछ तुलसा जी की तरफ से घराती। पंडितों ने विवाह की तिथि निश्चित की। शादी का मुहुर्त निकला। विवाह, दहेज की तैयारी की। नियत समय पर धूमधाम से भगवान की बारात निकली। सुहाग के गीत गाती महिलाओं ने बारात का स्वागत किया। भोज हुआ। वरमाला पड़ी। फेरे हुए। लोगों ने रुपयों, गहनों और सामानों के साथ सपत्नीक कन्यादान किया। फिर तुलसा जी विदा हो गईं। भगवान के विवाह की सभी रस्में लेन देन के साथ परंपरागत ढंग से उसी तरह निभाई गईं, जैसे हिन्दुओं के घरों में होती हैं।
भगवान सालिगराम और तुलसा जी के शानदार विवाह की लोग चर्चा कर ही रहे थे कि तभी विवाद खड़ा हो गया। वर सालिगराम के पिता की भूमिका निभाने वाले महंत रामदास ने शादी के 48 घंटे में ही दुल्हन तुलसा जी को मायके लौटा दिया। तुलसा जी के पिता की भूमिका निभाने वाले लक्ष्मीनारायण गुप्ता ने कारण जानना चाहा तो महंत जी ने बताया कि विवाह में मिले लाखों रुपए के सामान और कन्यादान की राशि को फेरे डलवाने वाले पंडित जी लेकर चले गए हैं। लक्ष्मीनारायण गुप्ता ने महंत रामदास से वधु को मायके नहीं छोडऩे की मिन्नत की, लेकिन महंत बिना दहेज के तुलसा जी को ले जाने को तैयार नहीं हुए। बाद में लक्ष्मीनारायण गुप्ता ने गांव के प्रमुख लोगों के साथ फेरे डलवाने वाले पं. प्रेमचंद शर्मा से बात की तो वे भी कन्यादान में आए कपड़े, आभूषण, बर्तन और नकदी लौटाने को तैयार नहीं हुए।
शादी कराने वाले पंडित प्रेमचंद शर्मा का तर्क था कि यह कोई सचमुच की शादी थोड़ी थी। यह तो पूजा अनुष्ठान था और सभी पूजा की तरह इस पूजा के चढ़ावों पर भी पूजा कराने वाले पंडित यानी मेरा अधिकार है। पंडित जी ने भगवान की शादी में तकनीकी पेंच फंसा दिया। दहेज के लिए मायके वापस लौटाई गई तुलसा जी की विदाई के लिए चितिंत कस्बेवासियों ने अगले दिन पंचायत बुलाई। पंच-पटेलों ने महंत और पंडित दोनों को समझाने की कोशिश की, लेकिन शादी कराने वाले पंडित जी के तकनीकी तर्क को कोई काट नहीं पाया। नतीजतन, पंचायत ने फैसला किया कि तुलसा जी के पिता की भूमिका निभाने वाले लक्ष्मीनारायण गुप्ता, वर पक्ष को 2100 रुपए, 5 साड़ी और कुछ गहने देकर तुलसा जी को विदा करे। पंचायत का फैसला सिर माथे रखकर लक्ष्मीनारायण गुप्ता ने महंत रामदास को उक्त दहेज देकर तुलसा जी को विदा किया। दहेज पाकर भगवान सालिगराम के पिता की भूमिका निभाने वाले सीताराम मंदिर के महंत रामदास तुलसा जी को धूमधाम से ले गए।
बताइए सुनी थी। देवी देवताओं को त्रस्त कर देने वाले दहेज की ऐसी कहानी।
घटना राजस्थान के अलवर जिले की है। अलवर में एक कस्बा है लक्ष्मणगढ़। कस्बे के कुछ लोगों ने भगवान सालिगराम का विवाह तुलसा जी से करना तय किया। कस्बे के लोग दो हिस्सों में बंट गए। कुछ लोग भगवान सालिगराम की तरफ से वर पक्ष के बन गए तो कुछ तुलसा जी की तरफ से घराती। पंडितों ने विवाह की तिथि निश्चित की। शादी का मुहुर्त निकला। विवाह, दहेज की तैयारी की। नियत समय पर धूमधाम से भगवान की बारात निकली। सुहाग के गीत गाती महिलाओं ने बारात का स्वागत किया। भोज हुआ। वरमाला पड़ी। फेरे हुए। लोगों ने रुपयों, गहनों और सामानों के साथ सपत्नीक कन्यादान किया। फिर तुलसा जी विदा हो गईं। भगवान के विवाह की सभी रस्में लेन देन के साथ परंपरागत ढंग से उसी तरह निभाई गईं, जैसे हिन्दुओं के घरों में होती हैं।
भगवान सालिगराम और तुलसा जी के शानदार विवाह की लोग चर्चा कर ही रहे थे कि तभी विवाद खड़ा हो गया। वर सालिगराम के पिता की भूमिका निभाने वाले महंत रामदास ने शादी के 48 घंटे में ही दुल्हन तुलसा जी को मायके लौटा दिया। तुलसा जी के पिता की भूमिका निभाने वाले लक्ष्मीनारायण गुप्ता ने कारण जानना चाहा तो महंत जी ने बताया कि विवाह में मिले लाखों रुपए के सामान और कन्यादान की राशि को फेरे डलवाने वाले पंडित जी लेकर चले गए हैं। लक्ष्मीनारायण गुप्ता ने महंत रामदास से वधु को मायके नहीं छोडऩे की मिन्नत की, लेकिन महंत बिना दहेज के तुलसा जी को ले जाने को तैयार नहीं हुए। बाद में लक्ष्मीनारायण गुप्ता ने गांव के प्रमुख लोगों के साथ फेरे डलवाने वाले पं. प्रेमचंद शर्मा से बात की तो वे भी कन्यादान में आए कपड़े, आभूषण, बर्तन और नकदी लौटाने को तैयार नहीं हुए।
शादी कराने वाले पंडित प्रेमचंद शर्मा का तर्क था कि यह कोई सचमुच की शादी थोड़ी थी। यह तो पूजा अनुष्ठान था और सभी पूजा की तरह इस पूजा के चढ़ावों पर भी पूजा कराने वाले पंडित यानी मेरा अधिकार है। पंडित जी ने भगवान की शादी में तकनीकी पेंच फंसा दिया। दहेज के लिए मायके वापस लौटाई गई तुलसा जी की विदाई के लिए चितिंत कस्बेवासियों ने अगले दिन पंचायत बुलाई। पंच-पटेलों ने महंत और पंडित दोनों को समझाने की कोशिश की, लेकिन शादी कराने वाले पंडित जी के तकनीकी तर्क को कोई काट नहीं पाया। नतीजतन, पंचायत ने फैसला किया कि तुलसा जी के पिता की भूमिका निभाने वाले लक्ष्मीनारायण गुप्ता, वर पक्ष को 2100 रुपए, 5 साड़ी और कुछ गहने देकर तुलसा जी को विदा करे। पंचायत का फैसला सिर माथे रखकर लक्ष्मीनारायण गुप्ता ने महंत रामदास को उक्त दहेज देकर तुलसा जी को विदा किया। दहेज पाकर भगवान सालिगराम के पिता की भूमिका निभाने वाले सीताराम मंदिर के महंत रामदास तुलसा जी को धूमधाम से ले गए।
बताइए सुनी थी। देवी देवताओं को त्रस्त कर देने वाले दहेज की ऐसी कहानी।
Monday, July 18, 2011
तमे प्यार करे छूं
बचपन में जब व्यापार (ट्रेड) खेलते थे तो चंडीगढ़ और अहमदाबाद शहर खरीदने की होड़ मचती थी। यह शहर महंगे तो थे, लेकिन किराया बहुत देते थे। इसलिए हर बच्चा इन शहरों को खरीदने की हरसंभव कोशिश करता। जीतने के लिए भी यह शहर काफी मददगार साबित होते। उस समय अक्सर मन में यह बात उठती कि चंडीगढ़ और अहमदाबाद जाकर देखना चाहिए कि आखिर क्यों यह शहर इतने महंगे हैं?
बचपन बीता। खेलना खतम हुआ। जवानी आई तो अपने साथ नौकरी की जिम्मेदारी ले आई। लखनऊ, वाराणसी, इलाहाबाद, आगरा जैसे उत्तर प्रदेश के महानगरों में नौकरी करते हुए लगा- ओफ, कितने गंदे हैं शहर? कब होंगे रहने लायक ये शहर? अराजकता की हद तक आजादी। जो जहां नहीं होना चाहिए, वह वहां मौजूद। और जिसकी जहां जरूरत है, वह वहां से गायब। यूपी के शहरों का यथार्थ विचलित करता। व्यथित मन विद्रोही बनकर कहता -काश, देश में कोई तो ऐसा शहर हो, जहां सडक़ों पर गाय -भैंस न दिखें। मुहल्ले सुअरों से और गलियां कुत्तों से खाली हों। सडक़ें चौड़ी और चिकनी हो। लोगों में ट्रैफिक सेंस हो। पुलिस वाले सज्जनता से बात करते हों। मन मोह कर थकान मिटाने वाली हरियाली हो। लोगों के लॉन और चौराहे फूलों से भरे हों।
व्यथा यदाकदा विद्रोह करके फूटती। काम में आक्रोश दिखता। इसी जद्दोजहद में जिंदगी ने एक दिन चंडीगढ़ पहुंचा दिया। जाड़ों के दिन थे। मैं भौचक। हतप्रभ। अविश्वसनीय नजरों से चारों ओर देख रहा था। हरियाली भरे रास्ते। चौड़ी साफ सडक़ें। व्यवस्थित ट्रैफिक। फूलों से भरे राउंड अबाउट। मन का अविश्वास बोला- यह तो शहर का मुख्य यानी दिखावटी हिस्सा है। शहर भीतर से भी ऐसा हो तो बात है। अपने ऑफिस की शानदार बिल्डिंग देखकर दूसरा झटका लगा। बाहर कई एकड़ में फैला खूबसूरत लॉन, ऑफिस बिल्डिंग को दो तरफ से घेरे था। लॉन फूलों से भरा था। देखते ही मन खुश हो गया। अविश्वासी मन ने कहा- चंडीगढ़ भीतर से जैसा भी हो, ऑफिस सुंदर है। इसलिए कुछ दिन तो यहां टिका ही जा सकता है।
चंडीगढ़ के सेक्टर 25 में ऑफिस और सेक्टर-31 में किराए का मकान। शहर और उसकी व्यवस्था समझने में दिन गुजरने लगे। घुमक्कड़ी और जिज्ञासु प्रवृत्ति शहर के भीतर बाहर दौड़ाती रही। हर चीज का मुआइना। हर चीज समझने की कोशिश। देखने, जानने, समझने की इस प्रक्रिया में चंड़ीगढ़, मोहाली और पंचकूला ही नहीं, हमने पूरा हिमाचल, हरियाणा और पंजाब देख डाला। परवाणू में मटन का अचार कौन अच्छा बनाता है। अमृतसर में रात के 2 बजे सिगरेट या आइसक्रीम कहां मिलती है। रोपड़ के फ्लोटिंग रेस्टोरेंट में लंच लेने के लिए कितने बजे जाना ठीक रहता है। चंडीगढ़ में जलेबी कौन अच्छी बनाता है। मनाली में भुना चिकन खाने में कैसा आनंद आता है, इन सबके हम उस्ताद हो गए। रात के 3 बजे हों या दोपहर के 12, घूमने और खाने के लिए हरदम तैयार।
चंडीगढ़ में 6 साल रहकर हम समझ पाए कि यह शहर व्यापार के खेल में क्यों महंगा था। किसी शहर में रहने के लिए हम जिस आदर्श व्यवस्था की कल्पना कर सकते हैं, या जो भी सपना देख सकते हैं, वह सब चंडीगढ़ में हैं। एक जैसे व्यवस्थित मकान। साफ सुथरी बस्तियां यानी सेक्टर। चिकनी चौड़ी सडक़ें। कहीं कूड़ा नहीं। कोई गंदगी नहीं। कहीं जानवर नहीं। फूलों से भरे चौराहे और लॉन। सज्जनता से बात करते पुलिसवाले। चौबीस घंटे बिजली। हर आदमी व्यस्त और अपने काम से काम रखने वाला। चंडीगढ़ की इन्हीं विशेषताओं ने पहले हमारा मन मोहा और बाद में इन्हीं ने हमें बोर करना शुरू कर दिया। हमें सब कुछ नीरस लगने लगा। खैर, यह बात फिर कभी करेंगे।
बचपन से दिमाग में घुसे दूसरे शहर अहमदाबाद को हमने पिछले दिनों देखा। अहमदाबाद देश के पुराने शहरों में एक शहर है। इसलिए हमें चंडीगढ़ जैसी व्यवस्था की तो यहां उम्मीद नहीं थी, लेकिन यहां भी हमने जो देखा, उसने हमारी आंखें खोल दी। शहर के बीच शानदार 6 लेन रोड। देखकर विश्वास नहीं होता। लगता है, सपना है। 2 लेन आने के लिए, 2 जाने के लिए और बीच की 2 लेन सिटी बस के लिए आरक्षित। पूरे शहर में सिटी बस दौड़ती है और लोग आराम से चढ़ते उतरते हैं। रेलवे स्टेशन से लेकर शहर के भीतर तक की सडक़ें चौड़ी और मस्त। एयरपोर्ट की सडक़ तो दर्शनीय।

शहर के भीतर सडक़ों पर जबरदस्त ट्रैफिक। भागते वाहनों से भरी सभी सडक़ें। सबमें आगे निकलने की होड़। इसके बावजूद, अचानक सामने आ जाने वाले वाहन को खामोशी से रास्ता देते लोग। कोई तू तू- मैं मैं नहीं। पहले आप जैसी तहजीब। बाहर का कोई आदमी इस भीड़ में वाहन नहीं चला सकता। शहर की सडक़ों पर तेजी से चलती कार पर बैठे हुए मुझे कई बार लगा अब भिड़े, तब भिड़े, लेकिन मेरा अहमदाबादी ड्राइवर मुझे सब जगह सकुशल घुमाता रहा। शहर में पचास से ज्यादा फ्लाईओवर हैं। फ्लाईओवर के ऊपर फ्लाईओवर हैं। इन फ्लाईओवरों के ऊपर से गुजरते हुए शहर देखने का अलग मजा है।
पुराना शहर होने के नाते अहमदाबाद, चंडीगढ़ जैसा व्यवस्थित तो नहीं हो सकता, लेकिन इस शहर की जीवंतता देखने लायक है। मेहनती गुजराती मनोरंजन का कोई अवसर नहीं छोड़ते। दिन भर काम करना और शानदार तरीके से शाम गुजारना, गुजरातियों का शगल है। यही कारण है कि शाम को क्लबों और बार से लेकर मल्टीप्लैक्स और सडक़ों तक पर जगह नहीं होती। अहमदाबाद में दर्जनों ऐसे क्लब हैं, जिनकी मेंबरशिप फीस लाखों रुपए में है। कई क्लबों ने तो लाखों रुपयों की मेंबरशिप फीस लेकर वेटिंग लिस्ट जारी कर रखी है। वर्षों से इन क्लबों में किसी नए को सदस्यता नहीं मिली है। ऐसा ही एक क्लब गुजराती एनआरआईज का है। गुजरात का यह सबसे प्रतिष्ठित क्लब है।
शहर के बीच में कांकरिया झील है। पूरी झील आकर्षक लाइटों से सजी है। झील के किनारे- किनारे फौव्वारे लगे हैं। रंगीन लाइट्स में पानी की फुहारें आपको मस्त कर देती है। पूरी झील का चक्कर लगाने के लिए ट्वाय ट्रेन है। बच्चों के तमाम तरह के झूलों से लेकर खाने पीने की दुकानें हैं। हम कई घंटे तक यहां मस्ती करते रहे। शाम को यहां इतनी भीड़ होती है कि लगता है, पूरा शहर यहां आ पहुंचा है। दिन भर फोटो खींचते हुए जब हम शाम को यहां पहुंचे तो हमारे कैमरे के सेल वीक हो चुके थे, नतीजतन कांकरिया झील और पतंग रेस्टोरेंट की हमारी फोटो अच्छी नहीं आई।


अहमदाबाद शानदार बिल्डिंगों, सडक़ों, होटलों, मॉल्स, मल्टीप्लैक्सों का ही शहर नहीं है। यहां दर्जनों दर्शनीय मंदिर और मस्जिदें हैं। शहर में साढ़े 3 हजार से ज्यादा शानदार रेस्त्रां हैं। कुछ रेस्टोरेंट तो ऐसे हैं, जहां आपको अपनी सीटें दो एक दिन पहले आरक्षित करानी पड़ती है। शहर में ऐसा ही एक रेस्त्रां है- पतंग। यह रेस्त्रां अपनी धुरी पर गोल घूमता है। सात मंजिल ऊपर बने इस घूमते हुए रेस्त्रां में खाना खाने का अलग आनंद है। इसकी कांच की दीवारों से आपको पूरा शहर दिखाई पड़ता है। पतंग रेस्त्रां में भी दो दिन पहले बुकिंग करानी पड़ती है। हमने यहां डिनर लिया। हम जब वहां पहुंचकर बैठे और खाना खाकर उठे, तब तक इसने पौन चक्कर लगाकर हमें पूरे शहर का दर्शन करा दिया था। रात में बिजली से जगमगाता अहमदाबाद बहुत खूबसूरत लगता है।




अहमदाबाद के सबसे बड़े मॉल, रिलायंस मॉल में हम काफी देर घूमे। यह इस्कॉन मंदिर से लगभग सटा हुआ है। शायद इसी कारण इसे इस्कॉन मॉल भी कहते हैं। आदतन, हमने शहर घूमते हुए कई जगह पान खाया। हमें पान अच्छा मिला। अगले दिन हम गांधीनगर घूमने गए। गांधीनगर भी चंडीगढ़ जैसा खूबसूरत और नियोजित तरीके से बसाया गया है। हरियाली से भरा और साफ सुथरा। यहां भी सेक्टर में बटीं बस्तियां हैं। सडक़ से गुजरते हुए मुख्यमंत्री और अन्य मंत्रियों की कोठियां देखीं। गुजरात विधानसभा देखी और सेक्टर- 30 के एक शानदार रेस्टोरेंट में लंच किया। अहमदाबाद और गांधीनगर घूमने के बाद हमें विश्वास हो गया कि यह शहर व्यापार के खेल में महंगा है तो ठीक ही है। गलत नहीं। आज लगता है कि बचपन के खेल ने ही हमें सिखा दिया था कि जीतना है तो चंडीगढ़ और अहमदाबाद जैसे शहरों को अपने पास रखना होगा। सचमुच, मैं दोनों शहरों को प्यार करता हूं।
बचपन बीता। खेलना खतम हुआ। जवानी आई तो अपने साथ नौकरी की जिम्मेदारी ले आई। लखनऊ, वाराणसी, इलाहाबाद, आगरा जैसे उत्तर प्रदेश के महानगरों में नौकरी करते हुए लगा- ओफ, कितने गंदे हैं शहर? कब होंगे रहने लायक ये शहर? अराजकता की हद तक आजादी। जो जहां नहीं होना चाहिए, वह वहां मौजूद। और जिसकी जहां जरूरत है, वह वहां से गायब। यूपी के शहरों का यथार्थ विचलित करता। व्यथित मन विद्रोही बनकर कहता -काश, देश में कोई तो ऐसा शहर हो, जहां सडक़ों पर गाय -भैंस न दिखें। मुहल्ले सुअरों से और गलियां कुत्तों से खाली हों। सडक़ें चौड़ी और चिकनी हो। लोगों में ट्रैफिक सेंस हो। पुलिस वाले सज्जनता से बात करते हों। मन मोह कर थकान मिटाने वाली हरियाली हो। लोगों के लॉन और चौराहे फूलों से भरे हों।
व्यथा यदाकदा विद्रोह करके फूटती। काम में आक्रोश दिखता। इसी जद्दोजहद में जिंदगी ने एक दिन चंडीगढ़ पहुंचा दिया। जाड़ों के दिन थे। मैं भौचक। हतप्रभ। अविश्वसनीय नजरों से चारों ओर देख रहा था। हरियाली भरे रास्ते। चौड़ी साफ सडक़ें। व्यवस्थित ट्रैफिक। फूलों से भरे राउंड अबाउट। मन का अविश्वास बोला- यह तो शहर का मुख्य यानी दिखावटी हिस्सा है। शहर भीतर से भी ऐसा हो तो बात है। अपने ऑफिस की शानदार बिल्डिंग देखकर दूसरा झटका लगा। बाहर कई एकड़ में फैला खूबसूरत लॉन, ऑफिस बिल्डिंग को दो तरफ से घेरे था। लॉन फूलों से भरा था। देखते ही मन खुश हो गया। अविश्वासी मन ने कहा- चंडीगढ़ भीतर से जैसा भी हो, ऑफिस सुंदर है। इसलिए कुछ दिन तो यहां टिका ही जा सकता है।
चंडीगढ़ के सेक्टर 25 में ऑफिस और सेक्टर-31 में किराए का मकान। शहर और उसकी व्यवस्था समझने में दिन गुजरने लगे। घुमक्कड़ी और जिज्ञासु प्रवृत्ति शहर के भीतर बाहर दौड़ाती रही। हर चीज का मुआइना। हर चीज समझने की कोशिश। देखने, जानने, समझने की इस प्रक्रिया में चंड़ीगढ़, मोहाली और पंचकूला ही नहीं, हमने पूरा हिमाचल, हरियाणा और पंजाब देख डाला। परवाणू में मटन का अचार कौन अच्छा बनाता है। अमृतसर में रात के 2 बजे सिगरेट या आइसक्रीम कहां मिलती है। रोपड़ के फ्लोटिंग रेस्टोरेंट में लंच लेने के लिए कितने बजे जाना ठीक रहता है। चंडीगढ़ में जलेबी कौन अच्छी बनाता है। मनाली में भुना चिकन खाने में कैसा आनंद आता है, इन सबके हम उस्ताद हो गए। रात के 3 बजे हों या दोपहर के 12, घूमने और खाने के लिए हरदम तैयार।
चंडीगढ़ में 6 साल रहकर हम समझ पाए कि यह शहर व्यापार के खेल में क्यों महंगा था। किसी शहर में रहने के लिए हम जिस आदर्श व्यवस्था की कल्पना कर सकते हैं, या जो भी सपना देख सकते हैं, वह सब चंडीगढ़ में हैं। एक जैसे व्यवस्थित मकान। साफ सुथरी बस्तियां यानी सेक्टर। चिकनी चौड़ी सडक़ें। कहीं कूड़ा नहीं। कोई गंदगी नहीं। कहीं जानवर नहीं। फूलों से भरे चौराहे और लॉन। सज्जनता से बात करते पुलिसवाले। चौबीस घंटे बिजली। हर आदमी व्यस्त और अपने काम से काम रखने वाला। चंडीगढ़ की इन्हीं विशेषताओं ने पहले हमारा मन मोहा और बाद में इन्हीं ने हमें बोर करना शुरू कर दिया। हमें सब कुछ नीरस लगने लगा। खैर, यह बात फिर कभी करेंगे।
बचपन से दिमाग में घुसे दूसरे शहर अहमदाबाद को हमने पिछले दिनों देखा। अहमदाबाद देश के पुराने शहरों में एक शहर है। इसलिए हमें चंडीगढ़ जैसी व्यवस्था की तो यहां उम्मीद नहीं थी, लेकिन यहां भी हमने जो देखा, उसने हमारी आंखें खोल दी। शहर के बीच शानदार 6 लेन रोड। देखकर विश्वास नहीं होता। लगता है, सपना है। 2 लेन आने के लिए, 2 जाने के लिए और बीच की 2 लेन सिटी बस के लिए आरक्षित। पूरे शहर में सिटी बस दौड़ती है और लोग आराम से चढ़ते उतरते हैं। रेलवे स्टेशन से लेकर शहर के भीतर तक की सडक़ें चौड़ी और मस्त। एयरपोर्ट की सडक़ तो दर्शनीय।
शहर के भीतर सडक़ों पर जबरदस्त ट्रैफिक। भागते वाहनों से भरी सभी सडक़ें। सबमें आगे निकलने की होड़। इसके बावजूद, अचानक सामने आ जाने वाले वाहन को खामोशी से रास्ता देते लोग। कोई तू तू- मैं मैं नहीं। पहले आप जैसी तहजीब। बाहर का कोई आदमी इस भीड़ में वाहन नहीं चला सकता। शहर की सडक़ों पर तेजी से चलती कार पर बैठे हुए मुझे कई बार लगा अब भिड़े, तब भिड़े, लेकिन मेरा अहमदाबादी ड्राइवर मुझे सब जगह सकुशल घुमाता रहा। शहर में पचास से ज्यादा फ्लाईओवर हैं। फ्लाईओवर के ऊपर फ्लाईओवर हैं। इन फ्लाईओवरों के ऊपर से गुजरते हुए शहर देखने का अलग मजा है।
पुराना शहर होने के नाते अहमदाबाद, चंडीगढ़ जैसा व्यवस्थित तो नहीं हो सकता, लेकिन इस शहर की जीवंतता देखने लायक है। मेहनती गुजराती मनोरंजन का कोई अवसर नहीं छोड़ते। दिन भर काम करना और शानदार तरीके से शाम गुजारना, गुजरातियों का शगल है। यही कारण है कि शाम को क्लबों और बार से लेकर मल्टीप्लैक्स और सडक़ों तक पर जगह नहीं होती। अहमदाबाद में दर्जनों ऐसे क्लब हैं, जिनकी मेंबरशिप फीस लाखों रुपए में है। कई क्लबों ने तो लाखों रुपयों की मेंबरशिप फीस लेकर वेटिंग लिस्ट जारी कर रखी है। वर्षों से इन क्लबों में किसी नए को सदस्यता नहीं मिली है। ऐसा ही एक क्लब गुजराती एनआरआईज का है। गुजरात का यह सबसे प्रतिष्ठित क्लब है।
शहर के बीच में कांकरिया झील है। पूरी झील आकर्षक लाइटों से सजी है। झील के किनारे- किनारे फौव्वारे लगे हैं। रंगीन लाइट्स में पानी की फुहारें आपको मस्त कर देती है। पूरी झील का चक्कर लगाने के लिए ट्वाय ट्रेन है। बच्चों के तमाम तरह के झूलों से लेकर खाने पीने की दुकानें हैं। हम कई घंटे तक यहां मस्ती करते रहे। शाम को यहां इतनी भीड़ होती है कि लगता है, पूरा शहर यहां आ पहुंचा है। दिन भर फोटो खींचते हुए जब हम शाम को यहां पहुंचे तो हमारे कैमरे के सेल वीक हो चुके थे, नतीजतन कांकरिया झील और पतंग रेस्टोरेंट की हमारी फोटो अच्छी नहीं आई।
अहमदाबाद शानदार बिल्डिंगों, सडक़ों, होटलों, मॉल्स, मल्टीप्लैक्सों का ही शहर नहीं है। यहां दर्जनों दर्शनीय मंदिर और मस्जिदें हैं। शहर में साढ़े 3 हजार से ज्यादा शानदार रेस्त्रां हैं। कुछ रेस्टोरेंट तो ऐसे हैं, जहां आपको अपनी सीटें दो एक दिन पहले आरक्षित करानी पड़ती है। शहर में ऐसा ही एक रेस्त्रां है- पतंग। यह रेस्त्रां अपनी धुरी पर गोल घूमता है। सात मंजिल ऊपर बने इस घूमते हुए रेस्त्रां में खाना खाने का अलग आनंद है। इसकी कांच की दीवारों से आपको पूरा शहर दिखाई पड़ता है। पतंग रेस्त्रां में भी दो दिन पहले बुकिंग करानी पड़ती है। हमने यहां डिनर लिया। हम जब वहां पहुंचकर बैठे और खाना खाकर उठे, तब तक इसने पौन चक्कर लगाकर हमें पूरे शहर का दर्शन करा दिया था। रात में बिजली से जगमगाता अहमदाबाद बहुत खूबसूरत लगता है।
अहमदाबाद के सबसे बड़े मॉल, रिलायंस मॉल में हम काफी देर घूमे। यह इस्कॉन मंदिर से लगभग सटा हुआ है। शायद इसी कारण इसे इस्कॉन मॉल भी कहते हैं। आदतन, हमने शहर घूमते हुए कई जगह पान खाया। हमें पान अच्छा मिला। अगले दिन हम गांधीनगर घूमने गए। गांधीनगर भी चंडीगढ़ जैसा खूबसूरत और नियोजित तरीके से बसाया गया है। हरियाली से भरा और साफ सुथरा। यहां भी सेक्टर में बटीं बस्तियां हैं। सडक़ से गुजरते हुए मुख्यमंत्री और अन्य मंत्रियों की कोठियां देखीं। गुजरात विधानसभा देखी और सेक्टर- 30 के एक शानदार रेस्टोरेंट में लंच किया। अहमदाबाद और गांधीनगर घूमने के बाद हमें विश्वास हो गया कि यह शहर व्यापार के खेल में महंगा है तो ठीक ही है। गलत नहीं। आज लगता है कि बचपन के खेल ने ही हमें सिखा दिया था कि जीतना है तो चंडीगढ़ और अहमदाबाद जैसे शहरों को अपने पास रखना होगा। सचमुच, मैं दोनों शहरों को प्यार करता हूं।
Saturday, July 9, 2011
गांधी जी का घर यानी शांति का मंदिर
समुद्र किनारे बसा शहर। समुद्री यातायात और व्यापार का केन्द्र। व्यापारियों से भरा हुआ। समुद्री कारोबार पर टिकी अधिकांश लोगों की आजीविका। इस शहर को विश्वस्तरीय पहचान दी, यहां जन्मे दो बालकों ने। एक ने मित्र भाव को चरमोत्कर्ष दिया तो दूसरे ने दुनिया के सामने सत्य और अहिंसा की सर्वोच्चता साबित की। जी हां, हम बात कर रहे हैं पोरबंदर की। गुजरात के प्रमुख शहर पोरबंदर की। पोरबंदर में ही श्रीकृष्ण के बालसखा सुदामा का जन्म हुआ और यहीं मोहनदास कर्मचंद गांधी का। सारी दुनिया जिन्हें महात्मा गांधी के नाम से जानती है।
अपनी गुजरात यात्रा के दौरान सोमनाथ से लौटते हुए हम पोरबंदर पहुंचे। सौराष्ट्र के पश्चिमी समुद्र तट पर स्थित है पोरबंदर। प्राचीन समय से यह देश का प्रमुख बंदरगाह है। इलाके में खेती भी ठीक है और उद्योग व्यवसाय भी। इसीलिए लोग समृद्ध हैं। ज्ञात इतिहास भी बताता है कि यह इलाका सदैव समृद्ध रहा। अंगे्रजों के रिकॉर्ड के मुताबिक सन 1921 में पोरबंदर की जनसंख्या 1 लाख और राजस्व वसूली 21 लाख रुपए थी।
संभव है 5 हजार वर्ष पूर्व यह समुद्री इलाका वीरान रहा हो। इसलिए श्रीकृष्ण के सखा सुदामा को यहां रहते हुए भयानक गरीबी झेलनी पड़ी। पत्नी की व्यंग्योक्ति पर मदद के लिए मित्र के पास द्वारिका जाना पड़ा। द्वारिकाधीश श्रीकृष्ण की कृपा से सुदामा के ही ठाठबाट नहीं बने, पूरा इलाका समृद्ध हो गया। हम दूर पैदा हुए, पले बढ़े और पढ़े लिखे लोग भले इसे नहीं माने, लेकिन पोरबंदर के निवासी यही मानते हैं। श्रीकृष्ण के प्रति श्रद्धावनत वे कहते हैं- सब द्वारिकाधीश की कृपा है। इसीलिए पोरबंदर का एक नाम सुदामापुरी भी है। सुदामा चौक यहां का प्रमुख व्यावसायिक केन्द्र है। सुदामा जी का मंदिर तो है ही।
हजारों वर्ष बाद इसी पोरबंदर शहर के एक समृद्ध व्यवसायी के घर एक बालक का जन्म हुआ। यह बालक आगे चलकर महात्मा गांधी के नाम से दुनिया में विख्यात हुआ। शांति का मसीहा और सादगी का प्रतिमान बना। उसने दुनिया को सिखाया कि सत्य और अहिंसा को हथियार के रूप में कैसे प्रयोग किया जा सकता है। सदाचार, नैतिकता, भाईचारा उसके कार्य व्यवहार के अभिन्न अंग बने। उसका व्यक्तित्व अद्भुत, विरल और विलक्षण था। भारतीय संस्कृति को युगानुकूल बनाकर गांधी ने दुनिया को एक नया दर्शन दिया। ऐसे महान आत्मा की जन्मस्थली पर पहुंचकर हम रोमांचित ही नहीं, अपने को धन्य मान रहे थे।

पोरबंदर के माणक चौक स्थित महात्मा गांधी के पैतृक निवास स्थान पर हम देर तक रहे। गांधी जी की याद को संजोए रखने के लिए यहां काफी कुछ किया गया है। गांधी जी के पैतृक भवन को मूलरूप में बचाए रखने की भी कोशिश है। भवन का बाहरी हिस्सा गिर जाने के कारण उसे आलीशान तरीके से बना दिया गया है, लेकिन भीतरी हिस्सा यथावत है। जिस कमरे में गांधी जी का जन्म हुआ, हम उसमें गए और जिस स्थान पर वे पैदा हुए थे, वहां हमने श्रद्धा से सिर झुकाया। हम बा के कमरे में भी गए। धीरे- धीरे हमने पूरा भवन देखा। गांधी जी का घर माणक चौक पर घंटाघर के पास है। यानी शहर के केन्द्र में है। अतिक्रमण मुक्त होने के कारण आने जाने में कोई असुविधा नहीं होती। हालांकि, आपको गाड़ी उनके घर से थोड़ी दूर रोकनी पड़ती है।



शांति का मंदिर मानकर हमने गांधी जी के पैतृक भवन का दर्शन किया। यहां हमने काफी समय गुजारा। इस कारण हम पोरबंदर का समुद्री तट देखने नहीं जा पाए। हमारा अगला पड़ाव द्वारिका था। समय और दूरी को देखते हुए हम बीच पर घूमने का समय नहीं निकाल पाए। पोरबंदर का बीच देश के सुंदर और साफ सुथरे समुद्री तटों में से एक माना जाता है। हालॉकि हमने पोरबंदर पहुंचने से पहले समुद्र के साथ चलती सडक़ पर कई किलोमीटर यात्रा की। समुद्र के किनारे- किनारे चलती गाड़ी से समुद्र का खूबसूरत नजारा देखा। एक जगह गाड़ी रोककर हम समुद्र तक गए। सफेद फेन और बालू उगलने वाले महासागर को छूकर हम रोमांचित हो उठे। निसंदेह हमारी यात्रा का यह अद्भुत आनंददायी अनुभव रहा।

अहमदाबाद पहुंचकर हम साबरमती आश्रम देखने गए। महात्मा गांधी यहां लगभग 15 वर्ष रहे। आश्रम की स्थापना सन 1915 में की गई। आश्रम का उद्देश्य देश सेवा की शिक्षा लेना और देना था। गांधी जी ने यहां खादी से लेकर अस्पृश्यता निवारण, अपना काम स्वयं करना, मल उठाने से लेकर सभी सफाई कार्य स्वयं करना, स्वदेशी जागरण, सभी धर्मों का आदर करना और न्यूनतम खर्च में सादगी से रहना खुद सीखा और लोगों को सिखाया। सन 1930 में इस शपथ के साथ कि जब तक भारत आजाद नहीं होगा, मैं यहां नहीं आऊंगा, गांधी जी ने साबरमती आश्रम छोड़ दिया। साबरमती आश्रम ही वह स्थान है, जहां सनातन भारतीय संास्कृतिक मूल्यों में देश और काल के अनुरूप कुछ नए मूल्यों को जोडक़र गांधी ने दुनिया को नया जीवन दर्शन दिया।



पातंजलि योग सूत्र के 5 सिद्धांतों, सत्य, अहिंसा, ब्रहचर्य, अपरिग्रह और अस्तेय में गांधी ने युग के अनुकूल 6 नए सिद्धांत जोड़े। गांधी के यह नए सिद्धांत अस्पृश्यता निवारण, स्वाश्रय, सर्वधर्म समभाव, स्वदेशी, अभय और अस्वाद थे। इस प्रकार साबरमती आश्रम में रहने वालों के लिए इन 11 व्रतों का पालन अनिवार्य हो गया। यही 11 सिद्धांत गांधी दर्शन की पीठिका बने। साबरमती आश्रम में हमने गांधी संग्रहालय देखा। गांधी जी का घर देखा। विनोबा भावे की कुटिया देखी। साबरमती नदी के किनारे बने इस खूबसूरत आश्रम में हमने खूब फोटोग्राफी की। विजिटर्स बुक पर अपनी अनुभूति लिखी। गांधी जी से जुड़े स्थानों का भ्रमण करके हम नई ऊर्जा से भर उठे। इन स्थानों की शुचिता ने हमें सोचने समझने का नया दृष्टिकोण दिया।


अपनी गुजरात यात्रा के दौरान सोमनाथ से लौटते हुए हम पोरबंदर पहुंचे। सौराष्ट्र के पश्चिमी समुद्र तट पर स्थित है पोरबंदर। प्राचीन समय से यह देश का प्रमुख बंदरगाह है। इलाके में खेती भी ठीक है और उद्योग व्यवसाय भी। इसीलिए लोग समृद्ध हैं। ज्ञात इतिहास भी बताता है कि यह इलाका सदैव समृद्ध रहा। अंगे्रजों के रिकॉर्ड के मुताबिक सन 1921 में पोरबंदर की जनसंख्या 1 लाख और राजस्व वसूली 21 लाख रुपए थी।
संभव है 5 हजार वर्ष पूर्व यह समुद्री इलाका वीरान रहा हो। इसलिए श्रीकृष्ण के सखा सुदामा को यहां रहते हुए भयानक गरीबी झेलनी पड़ी। पत्नी की व्यंग्योक्ति पर मदद के लिए मित्र के पास द्वारिका जाना पड़ा। द्वारिकाधीश श्रीकृष्ण की कृपा से सुदामा के ही ठाठबाट नहीं बने, पूरा इलाका समृद्ध हो गया। हम दूर पैदा हुए, पले बढ़े और पढ़े लिखे लोग भले इसे नहीं माने, लेकिन पोरबंदर के निवासी यही मानते हैं। श्रीकृष्ण के प्रति श्रद्धावनत वे कहते हैं- सब द्वारिकाधीश की कृपा है। इसीलिए पोरबंदर का एक नाम सुदामापुरी भी है। सुदामा चौक यहां का प्रमुख व्यावसायिक केन्द्र है। सुदामा जी का मंदिर तो है ही।
हजारों वर्ष बाद इसी पोरबंदर शहर के एक समृद्ध व्यवसायी के घर एक बालक का जन्म हुआ। यह बालक आगे चलकर महात्मा गांधी के नाम से दुनिया में विख्यात हुआ। शांति का मसीहा और सादगी का प्रतिमान बना। उसने दुनिया को सिखाया कि सत्य और अहिंसा को हथियार के रूप में कैसे प्रयोग किया जा सकता है। सदाचार, नैतिकता, भाईचारा उसके कार्य व्यवहार के अभिन्न अंग बने। उसका व्यक्तित्व अद्भुत, विरल और विलक्षण था। भारतीय संस्कृति को युगानुकूल बनाकर गांधी ने दुनिया को एक नया दर्शन दिया। ऐसे महान आत्मा की जन्मस्थली पर पहुंचकर हम रोमांचित ही नहीं, अपने को धन्य मान रहे थे।
पोरबंदर के माणक चौक स्थित महात्मा गांधी के पैतृक निवास स्थान पर हम देर तक रहे। गांधी जी की याद को संजोए रखने के लिए यहां काफी कुछ किया गया है। गांधी जी के पैतृक भवन को मूलरूप में बचाए रखने की भी कोशिश है। भवन का बाहरी हिस्सा गिर जाने के कारण उसे आलीशान तरीके से बना दिया गया है, लेकिन भीतरी हिस्सा यथावत है। जिस कमरे में गांधी जी का जन्म हुआ, हम उसमें गए और जिस स्थान पर वे पैदा हुए थे, वहां हमने श्रद्धा से सिर झुकाया। हम बा के कमरे में भी गए। धीरे- धीरे हमने पूरा भवन देखा। गांधी जी का घर माणक चौक पर घंटाघर के पास है। यानी शहर के केन्द्र में है। अतिक्रमण मुक्त होने के कारण आने जाने में कोई असुविधा नहीं होती। हालांकि, आपको गाड़ी उनके घर से थोड़ी दूर रोकनी पड़ती है।
शांति का मंदिर मानकर हमने गांधी जी के पैतृक भवन का दर्शन किया। यहां हमने काफी समय गुजारा। इस कारण हम पोरबंदर का समुद्री तट देखने नहीं जा पाए। हमारा अगला पड़ाव द्वारिका था। समय और दूरी को देखते हुए हम बीच पर घूमने का समय नहीं निकाल पाए। पोरबंदर का बीच देश के सुंदर और साफ सुथरे समुद्री तटों में से एक माना जाता है। हालॉकि हमने पोरबंदर पहुंचने से पहले समुद्र के साथ चलती सडक़ पर कई किलोमीटर यात्रा की। समुद्र के किनारे- किनारे चलती गाड़ी से समुद्र का खूबसूरत नजारा देखा। एक जगह गाड़ी रोककर हम समुद्र तक गए। सफेद फेन और बालू उगलने वाले महासागर को छूकर हम रोमांचित हो उठे। निसंदेह हमारी यात्रा का यह अद्भुत आनंददायी अनुभव रहा।
अहमदाबाद पहुंचकर हम साबरमती आश्रम देखने गए। महात्मा गांधी यहां लगभग 15 वर्ष रहे। आश्रम की स्थापना सन 1915 में की गई। आश्रम का उद्देश्य देश सेवा की शिक्षा लेना और देना था। गांधी जी ने यहां खादी से लेकर अस्पृश्यता निवारण, अपना काम स्वयं करना, मल उठाने से लेकर सभी सफाई कार्य स्वयं करना, स्वदेशी जागरण, सभी धर्मों का आदर करना और न्यूनतम खर्च में सादगी से रहना खुद सीखा और लोगों को सिखाया। सन 1930 में इस शपथ के साथ कि जब तक भारत आजाद नहीं होगा, मैं यहां नहीं आऊंगा, गांधी जी ने साबरमती आश्रम छोड़ दिया। साबरमती आश्रम ही वह स्थान है, जहां सनातन भारतीय संास्कृतिक मूल्यों में देश और काल के अनुरूप कुछ नए मूल्यों को जोडक़र गांधी ने दुनिया को नया जीवन दर्शन दिया।
पातंजलि योग सूत्र के 5 सिद्धांतों, सत्य, अहिंसा, ब्रहचर्य, अपरिग्रह और अस्तेय में गांधी ने युग के अनुकूल 6 नए सिद्धांत जोड़े। गांधी के यह नए सिद्धांत अस्पृश्यता निवारण, स्वाश्रय, सर्वधर्म समभाव, स्वदेशी, अभय और अस्वाद थे। इस प्रकार साबरमती आश्रम में रहने वालों के लिए इन 11 व्रतों का पालन अनिवार्य हो गया। यही 11 सिद्धांत गांधी दर्शन की पीठिका बने। साबरमती आश्रम में हमने गांधी संग्रहालय देखा। गांधी जी का घर देखा। विनोबा भावे की कुटिया देखी। साबरमती नदी के किनारे बने इस खूबसूरत आश्रम में हमने खूब फोटोग्राफी की। विजिटर्स बुक पर अपनी अनुभूति लिखी। गांधी जी से जुड़े स्थानों का भ्रमण करके हम नई ऊर्जा से भर उठे। इन स्थानों की शुचिता ने हमें सोचने समझने का नया दृष्टिकोण दिया।
Tuesday, July 5, 2011
व्यवस्था हो तो गुजरात जैसी
क्या बड़े सामाजिक हितों के लिए लोग अपने छोटे हितों की कुर्बानी देने में संकोच करते हैं? क्या लोग अपना छोटा नुकसान समाज के बड़े लाभ से बड़ा मानते हैंं? यदि आपका उत्तर, हां, है तो आपको गुजरात जाकर आम गुजरातियों से इसका उत्तर पूछना चाहिए। गुजरात एक ऐसा प्रदेश है, जहां की सडक़ें ही चौड़ी, सपाट और खुली- खुली नहीं हैं, वहां के मंदिर भी देश के अन्य हिस्सों के मंदिरों से ज्यादा साफ सुथरे और खुलेपन से भरे हैं। मंदिरों के आगे कोई अतिक्रमण नहीं। हर मंदिर के सामने साथ सुथरा खुला मैदान। आसपास गंदगी और बदबू नहीं। पंडों पुजारियों की लूट खसोट नहीं। इत्मीनान से पूरा गुजरात घूमिए। मंदिरों के दर्शन कीजिए और बिना लुटे पिटे मुस्कुराते हुए घर लौट आइए।
पिछले दिनों हम सपरिवार गुजरात गए। हमारी मुख्य यात्रा अहमदाबाद से जूनागढ़, सोमनाथ, पोरबंदर, द्वारिका, जामनगर होते हुए साबरमती आश्रम तक रही। इस दौरान हमने दो ज्योर्तिलिंग सोमनाथ और नागेश्वर महादेव मंदिर के दर्शन किए। द्वारिका में द्वारिकाधीश मंदिर के अलावा रुकमणि माता का मंदिर देखा। डाकोर में रणछोड़दास जी के मंदिर के दर्शन किए। पोरबंदर में गांधी जी का जन्मस्थान और पैतृक भवन देखा। साबरमती में बापू के आश्रम का अवलोकन किया। हर जगह खुले मैदान के अंतिम भाग में मुख्य भवन। हर मंदिर में आराम से पूजा अर्चना। कहीं कोई भागा दौड़ी नहीं। ठगहाई नहीं। गुजरात में हमने टैक्सी से 2 हजार किलोमीटर से अधिक यात्रा की। एक सप्ताह की गुजरात यात्रा करके जब हम घर लौटे तो हमारे पास उत्तर और दक्षिण भारत के मंदिरों के पंडों पुजारियों की नोचने खसोटने और मंदिरों के आसपास बजबजाती गंदगी जैसी कोई कहानी सुनाने के लिए नहीं थी।
परिवार के साथ मैंने देश के लगभग हर प्रांत का भ्रमण किया है। दर्शनीय स्थल देखें हैं। मंदिरों में पूजा अर्चना की है। पहाड़, झरने, झील, नदियों, उनके उदगम, समुद्र और किलों का आनंद लिया है। देश के दुर्गम तीर्थों में शामिल हेमकुंड साहिब तक हम गए हैं। हम हर जगह अव्यवस्थाओं से क्षुब्ध हुए हैं। इसलिए गुजरात यात्रा के बाद मैं कह सकता हूं कि देश में मंदिरों की व्यवस्थाएं गुजरात जैसी ही होनी चाहिए। अपनी घुमक्कड़ी प्रवृत्ति से कई जगह तो हम इतना दुखी हुए कि हमने वहां दोबारा नहीं जाने की घोषणा तक कर डाली। मेरा परिवार दूसरों को भी समझाता है कि वहां कभी मत जाइए। इसमें सबसे ऊपर नाम तिरुपति के बालाजी मंदिर का है। मंदिरों के इर्द-गिर्द फैली गंदगी, मंदिर तक पहुंचने के दौरान पंडों पुजारियों, फूलमाला तथा प्रसाद बेचने वालों की कारगुजारियां, ऐसी होती हैं कि आप श्रद्धा की जगह आक्रोश से भर उठते हैं।
देश में आए दिन नए- नए मंदिर बनते जा रहे हैं। इसके बावजूद लोगों की आस्था पुराने मंदिरों में ही है। मेरे जैसे तमाम लोगों को प्राचीन मंदिरों का शिल्प अपनी ओर खींचता है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि लोगों की आस्था के केन्द्र प्राचीन मंदिरों की दुर्दशा और उनमें जारी लूट खसोट पर कोई हिन्दू संगठन कुछ नहीं करता। सरकारों को तो खैर, जनआस्था से कोई लेना-देना ही नहीं होता। श्रद्धालु हिन्दू प्राचीन मंदिरों में जाकर लुटता- पिटता है और हिन्दू बने रहने का अभिशाप ढोता है। गुजरात के मंदिरों में प्रसाद की भी निजी दुकानें आपको नहीं मिलेंगी। मंदिर ट्रस्ट में ही आप पैसा जमाकर रसीद लीजिए और वहीं से आपको भगवान का भोग मिल जाएगा।
गुजरात की सडक़ों पर गाड़ी से चलना सुखद और आनंददायी अनुभव है। पूरे गुजरात में फोर लेन, सिक्स लेन सडक़ों का जाल है। यह सडक़ें शहर के बाहर ही नहीं, शहर के भीतर तक हैं। हमें आश्चर्य तो तब हुआ जब हम अहमदाबाद जैसे बड़े और पुराने शहर में घूमे। अहमदाबाद शहर के भीतर सिक्स लेन सडक़ें हैं। दो लेन आने, दो लेन जाने और बीच की दो लेन सिटी बस के लिए रिजर्व। सोचना कठिन है कि हजारों साल पुराने और इतने बड़े शहर के भीतर 6 लेन की व्यवस्था। कमोबेश, यही स्थिति जूनागढ़ शहर की। पूरा जूनागढ़ शहर फोर लेन सडक़ से भरा। सडक़ें चिकनी और सपाट। टूट-फूट और गड्ढों से दूर। किसी शहर के भीतर से गुजरिए या बाई पास से। नेशनल हाईवे पर चलिए या स्टेट हाईवे से। सब जगह सरसराती चलती है गाड़ी। कोई हचका नहीं। कोई झटका नहीं।
जाहिर है, इन सब कामों के लिए तमाम लोगों के घरों- दुकानों को तोड़ा गया होगा। तमाम लोगों की जमीन अधिगृहीत की गई होगी। लोगों के धंधे चौपट हुए होंगे। सार्वजनिक हितों के लिए लोगों को निजी नुकसान उठाना पड़ा होगा। लोग नाराज हुए होंगे। मंदिरों के पास धर्म के नाम पर लूट खसोट करने वाले मरने मारने पर उतर आए होंगे। जनआस्था से खिलवाड़ करके सीधे सरल हिन्दुओं को ठगने वाले बदले की भावना से भर गए होंगे। आश्चर्य, गुजरात में ऐसी कोई स्थिति नहीं बनी। कुछ खास नहीं हुआ। गुजरात पहुंचने वाला आम हिन्दुस्तानी आज जितना खुश होता है, उतना ही आम गुजराती खुश है। मैंने कई जगह लोगों से इस मुद्दे पर बात की। हर गुजराती का यही कहना था कि तोड़-फोड़ से नुकसान हुआ तो नए निर्माण का लाभ भी मिला। लाभ- हानि का आकलन करें तो आम गुजरातियों को इससे फायदा ही हुआ है। पर्यटन बढ़ा है। उद्योग और व्यवसाय बढ़ा है। यातायात बढ़ा है। सुविधाएं बढ़ी हैं। कुल मिलाकर सरकार के साथ आम लोगों की भी आय बढ़ी है। इसलिए आम गुजराती नए आधुनिक युग की सुविधाओं का आनंद ले रहा है।
गुजरात यात्रा के कुछ चित्र नीचे आप भी देखिए। पुनश्च, मुझे ब्लॉग पर आलेख के साथ फोटो डालना और उनका कैप्शन लिखना अभी नहीं आता, इसलिए नीचे पड़े चित्र गुजरात यात्रा के समझिए।
पिछले दिनों हम सपरिवार गुजरात गए। हमारी मुख्य यात्रा अहमदाबाद से जूनागढ़, सोमनाथ, पोरबंदर, द्वारिका, जामनगर होते हुए साबरमती आश्रम तक रही। इस दौरान हमने दो ज्योर्तिलिंग सोमनाथ और नागेश्वर महादेव मंदिर के दर्शन किए। द्वारिका में द्वारिकाधीश मंदिर के अलावा रुकमणि माता का मंदिर देखा। डाकोर में रणछोड़दास जी के मंदिर के दर्शन किए। पोरबंदर में गांधी जी का जन्मस्थान और पैतृक भवन देखा। साबरमती में बापू के आश्रम का अवलोकन किया। हर जगह खुले मैदान के अंतिम भाग में मुख्य भवन। हर मंदिर में आराम से पूजा अर्चना। कहीं कोई भागा दौड़ी नहीं। ठगहाई नहीं। गुजरात में हमने टैक्सी से 2 हजार किलोमीटर से अधिक यात्रा की। एक सप्ताह की गुजरात यात्रा करके जब हम घर लौटे तो हमारे पास उत्तर और दक्षिण भारत के मंदिरों के पंडों पुजारियों की नोचने खसोटने और मंदिरों के आसपास बजबजाती गंदगी जैसी कोई कहानी सुनाने के लिए नहीं थी।
परिवार के साथ मैंने देश के लगभग हर प्रांत का भ्रमण किया है। दर्शनीय स्थल देखें हैं। मंदिरों में पूजा अर्चना की है। पहाड़, झरने, झील, नदियों, उनके उदगम, समुद्र और किलों का आनंद लिया है। देश के दुर्गम तीर्थों में शामिल हेमकुंड साहिब तक हम गए हैं। हम हर जगह अव्यवस्थाओं से क्षुब्ध हुए हैं। इसलिए गुजरात यात्रा के बाद मैं कह सकता हूं कि देश में मंदिरों की व्यवस्थाएं गुजरात जैसी ही होनी चाहिए। अपनी घुमक्कड़ी प्रवृत्ति से कई जगह तो हम इतना दुखी हुए कि हमने वहां दोबारा नहीं जाने की घोषणा तक कर डाली। मेरा परिवार दूसरों को भी समझाता है कि वहां कभी मत जाइए। इसमें सबसे ऊपर नाम तिरुपति के बालाजी मंदिर का है। मंदिरों के इर्द-गिर्द फैली गंदगी, मंदिर तक पहुंचने के दौरान पंडों पुजारियों, फूलमाला तथा प्रसाद बेचने वालों की कारगुजारियां, ऐसी होती हैं कि आप श्रद्धा की जगह आक्रोश से भर उठते हैं।
देश में आए दिन नए- नए मंदिर बनते जा रहे हैं। इसके बावजूद लोगों की आस्था पुराने मंदिरों में ही है। मेरे जैसे तमाम लोगों को प्राचीन मंदिरों का शिल्प अपनी ओर खींचता है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि लोगों की आस्था के केन्द्र प्राचीन मंदिरों की दुर्दशा और उनमें जारी लूट खसोट पर कोई हिन्दू संगठन कुछ नहीं करता। सरकारों को तो खैर, जनआस्था से कोई लेना-देना ही नहीं होता। श्रद्धालु हिन्दू प्राचीन मंदिरों में जाकर लुटता- पिटता है और हिन्दू बने रहने का अभिशाप ढोता है। गुजरात के मंदिरों में प्रसाद की भी निजी दुकानें आपको नहीं मिलेंगी। मंदिर ट्रस्ट में ही आप पैसा जमाकर रसीद लीजिए और वहीं से आपको भगवान का भोग मिल जाएगा।
गुजरात की सडक़ों पर गाड़ी से चलना सुखद और आनंददायी अनुभव है। पूरे गुजरात में फोर लेन, सिक्स लेन सडक़ों का जाल है। यह सडक़ें शहर के बाहर ही नहीं, शहर के भीतर तक हैं। हमें आश्चर्य तो तब हुआ जब हम अहमदाबाद जैसे बड़े और पुराने शहर में घूमे। अहमदाबाद शहर के भीतर सिक्स लेन सडक़ें हैं। दो लेन आने, दो लेन जाने और बीच की दो लेन सिटी बस के लिए रिजर्व। सोचना कठिन है कि हजारों साल पुराने और इतने बड़े शहर के भीतर 6 लेन की व्यवस्था। कमोबेश, यही स्थिति जूनागढ़ शहर की। पूरा जूनागढ़ शहर फोर लेन सडक़ से भरा। सडक़ें चिकनी और सपाट। टूट-फूट और गड्ढों से दूर। किसी शहर के भीतर से गुजरिए या बाई पास से। नेशनल हाईवे पर चलिए या स्टेट हाईवे से। सब जगह सरसराती चलती है गाड़ी। कोई हचका नहीं। कोई झटका नहीं।
जाहिर है, इन सब कामों के लिए तमाम लोगों के घरों- दुकानों को तोड़ा गया होगा। तमाम लोगों की जमीन अधिगृहीत की गई होगी। लोगों के धंधे चौपट हुए होंगे। सार्वजनिक हितों के लिए लोगों को निजी नुकसान उठाना पड़ा होगा। लोग नाराज हुए होंगे। मंदिरों के पास धर्म के नाम पर लूट खसोट करने वाले मरने मारने पर उतर आए होंगे। जनआस्था से खिलवाड़ करके सीधे सरल हिन्दुओं को ठगने वाले बदले की भावना से भर गए होंगे। आश्चर्य, गुजरात में ऐसी कोई स्थिति नहीं बनी। कुछ खास नहीं हुआ। गुजरात पहुंचने वाला आम हिन्दुस्तानी आज जितना खुश होता है, उतना ही आम गुजराती खुश है। मैंने कई जगह लोगों से इस मुद्दे पर बात की। हर गुजराती का यही कहना था कि तोड़-फोड़ से नुकसान हुआ तो नए निर्माण का लाभ भी मिला। लाभ- हानि का आकलन करें तो आम गुजरातियों को इससे फायदा ही हुआ है। पर्यटन बढ़ा है। उद्योग और व्यवसाय बढ़ा है। यातायात बढ़ा है। सुविधाएं बढ़ी हैं। कुल मिलाकर सरकार के साथ आम लोगों की भी आय बढ़ी है। इसलिए आम गुजराती नए आधुनिक युग की सुविधाओं का आनंद ले रहा है।
गुजरात यात्रा के कुछ चित्र नीचे आप भी देखिए। पुनश्च, मुझे ब्लॉग पर आलेख के साथ फोटो डालना और उनका कैप्शन लिखना अभी नहीं आता, इसलिए नीचे पड़े चित्र गुजरात यात्रा के समझिए।
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