ईश्वर ने फूलों और परिंदों के रूप में हमें अद्भुत तोहफे दे रखे हैं। इन्हीं से हमारी दुनिया खूबसूरत है। रंगीन है। सुरभित और जीवंत है। हमारी भावनाएं और अभिव्यक्तियां सजीव हैं। हमारी दुनिया रंग और रूप से सजी है। ये नहीं रहे तो हमारी दुनिया ही बेरौनक नहीं होगी, हमारी संस्कृति भी जीवंतता खो बैठेगी। लोक जीवन सूनेपन से भर जाएगा। कबूतर, कोयल, बुलबुल, मोर और चकोर को लेकर रचे गए हमारे असंख्य गीत बेमानी हो जाएंगे। दुखद यह है कि हम अपने में इतना उलझ गए हैं कि हमें आसपास रंग-रूप खोती अपनी दुनिया नहीं दिख रही है। विकास की दौड़ में हम अपने आसपास की बेरौनक, बेरंग और बेनूर होती दुनिया नहीं देख पा रहे हैं। हमने निरीह और निर्दोष परिंदों का बसेरा और खाना दोनों छीन लिया है। नतीजतन, बेजुबान परिंदे अपनी इन बुनियादी जरूरतों के लिए किसी से गिला शिकवा किए बिना दुनिया से विदा हो रहे हैं।
यह अहसास तब और घना हो जाता है, जब आप किसी पक्षी विहार में जाते हैं। पक्षियों का कलरव, उनकी खूबसूरती, उनके क्रिया कलाप, उनकी उड़ान, उनके खेल, उनकी मस्ती देखकर आप प्रकृति की खूबसूरती पर मुग्ध हो उठते हैं। प्रकृति के अद्भुत चितेरे की प्रतिभा के कायल हो जाते हैं। आपको लगता है कि इनमें से अधिकांश पक्षियों को आप जानते हैं। इनकी चारित्रिक विशेषताओं के बारे में आपको पता है, लेकिन इन्हें कब देखा था, यह याद नहीं आता। दरअसल, हमारा किताबी ज्ञान, हमारे प्रकृति प्रेम से मिलकर हमें जानकारी देने लगता है, जबकि हमने लंबे समय से इन्हें देखा नहीं होता।
पिछले दिनों हम केवलादेव राष्ट्रीय पक्षी उद्यान गए। झीलों और घने वृक्षों से कभी यह उद्यान इतना भरा था कि इसका नाम ही घना (यानी सघन) पड़ गया। बोलचाल में इसे घना पक्षी विहार ही कहते हैं। राजस्थान के भरतपुर जिले में स्थित यह उद्यान प्रवासी पक्षियों का स्वर्ग है। रूस, चीन, श्रीलंका से लेकर हिमालय तक के पक्षी यहां प्रजनन हेतु आते हैं। देश के अन्य हिस्सों से भी आए पक्षियों की यहां भरमार रहती है। प्रवासी पक्षी दिसंबर- जनवरी में प्रजनन करके मार्च तक बच्चों के साथ वापस लौट जाते हैं। प्रवासी पक्षियों के लौटने के बाद देशी पक्षियों का प्रजनन काल शुरू होता है। देशी पक्षी मार्च-अप्रैल में प्रजनन करते हैं। जाड़ों में यहां पक्षियों की 370 प्रजातियां मिलती हैं। यानी भारतीय पक्षियों की कुल 1300 प्रजातियों में से लगभग एक तिहाई।
इस शानदार पक्षी विहार में देशी कम विदेशी पर्यटक ज्यादा आते हैं। पक्षियों की दिनचर्या में बाधा नहीं पड़े, इसके लिए यहां साइकिल, रिक्शा और बैटरी चालित गाड़ी से ही घूमने की अनुमति है। दूर झील में और पेड़ों पर बैठे पक्षियों को सुगमता से देखने के लिए दुरबीन की व्यवस्था यहां हो जाती है। दुरबीन से जब आप किसी पक्षी को देखते हैं तो पक्षी की गतिविधियां, उसके पंखों का रंग, रंगों के शेड्स आपको ऐसे बांधते हैं कि आप देर तक टकटकी लगाए उसे ही देखते रह जाते हैं। बैटरी चालित गाड़ी से घूमते हुए हम सैकड़ों पक्षियों के पारिवारिक प्रेम के साक्षी बने। उनके किलोल, उनकी रूपगर्विता, उनके नृत्य, उनके आहार-विहार, बच्चों के लालन-पालन के प्रति उनकी सजगता, उनके उत्तरदायित्व, परिवार के प्रति उनके समर्पण ने हमें मोहा।
घना पक्षी विहार में हम लोगों के लिए एक और बात विशेष महत्व की रही। सुबह पक्षी देखने के लिए हमने जंगल के भीतर बने गेस्ट हाउस में रात गुजारी। वन कर्मियों ने हमें बताया कि हम जिस विश्राम कक्ष में रुके हैं, उसमें पूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी रात्रि विश्राम कर चुकी हैं। यही नहीं, इसी कक्ष में फिल्म अभिनेत्री रेखा भी रात गुजार चुकी हैं। रेखा एक फिल्म की शूटिंग के दौरान घना अभ्यारण्य आईं थीं। वन कर्मियों की बात सुनकर हमें थोड़ा रोमांच हुआ, लेकिन बहुत जल्दी ही हम यह बात भूल गए। कारण, जिस रात हम घना में थे, उस रात पूरा जंगल दूधिया चांदनी में नहाया हुआ था। पूर्णिमा की चांदनी में पूरा जंगल अद्भुत रूप से सुंदर लग रहा था। गेस्ट हाउस के लॉन में हम देर रात तक पूर्ण चांद (फुल मून) का आनंद लेते रहे।
प्रकृति और पक्षियों के प्रति संवेदनशीलता उत्पन्न करने के लिए यहां प्रख्यात पक्षी प्रेमी सलीम अली की स्मृति में विजिटर एन्टरप्रेटेशन सेंटर खोला गया है। सेंटर का मुख्य आकर्षण पारे का बना भारतीय सारस का एक खूबसूरत जोड़ा है। साठ लाख रुपए की लागत वाला यह जोड़ा भारतीय सारस की खूबसूरती ही नहीं उसके पारिवारिक प्रेम और निष्ठा को भी बताता है। सेंटर में पानी और झीलों का महत्व, घना आने वाले पक्षियों के रूट आदि को भी दर्शाया गया है। आसपास के स्कूली बच्चे यहां अक्सर आते हैं और चिडिय़ों के बारे में जानकारियां हासिल करते हैं। बच्चों के जरिए सेंटर कोशिश करता है कि प्रकृति के प्रति संवेदनशीलता बचपन से ही व्यक्ति में आए।
प्रकृति के प्रति बच्चों को संवेदनशील बनाना अच्छा प्रयास है, लेकिन इसके परिणाम भविष्य में मिलेंगे। संकट आज खड़ा है। हमारे संसार से जिस तरह पक्षी विलुप्त हो रहे हैं, उसे देखते हुए हमें अपने उत्तरदायित्व को समझना होगा। संवेदनशीलता दिखानी होगी। अन्यथा बच्चों के बड़े होने तक पक्षी बचेंगे ही नहीं। चूंकि इस संकट के हम जिम्मेदार हैं, इसलिए हमें ही सोचना होगा। प्रयास करना होगा। परिंदों के दाना-पानी की ही नहीं, उनके बसेरों के बारे में भी चिंता करनी होगी। अपने जीवन में परिंदों को जगह देनी होगी। परिंदों को बचाने की दिशा में किया गया हमारा प्रयास पर्यावरण संतुलित तो करेगा ही, हमारे अपने सौंदर्यबोध और मानवीयता को भी दर्शाएगा। हम अपने बच्चों को विरासत में एक खूबसूरत और रंगीन दुनिया देकर जाएंगे। परिंदों को बचाने के प्रयासों से हम न केवल अपनी भूल सुधार सकेंगे, अपितु अपनी आकर्षक दुनिया की खूबसूरती भी बचा सकेंगे। सबसे बड़ी बात यह कि हमारी यह कोशिश उस अद्भुत चित्रकार के प्रति हमारा एक विनम्र आभार भी प्रदर्शित करेगी, जिसने इतनी खूबसूरत, रंगबिरंगी और जीवंत सृष्टि रचकर हमें मुफ्त में दी है।
नीचे घना पक्षी विहार के कुछ चित्र आप भी देखिए :-
Sunday, February 27, 2011
Tuesday, February 22, 2011
चिड़ीमारों की शौर्यगाथा
आपने शूरवीरों के तमाम किस्से सुने होंगे। वीर बहादुरों के विजय स्तंभ देखें होंगे। रणबांकुरों की याद में लगे शिलालेख पढ़े होंगे। शहीद स्मारकों पर सिर भी झुकाया होगा, लेकिन क्या आपने चिड़ीमारों का कीर्तिस्तंभ देखा है? या उनकी शौर्यगाथा सुनी है? किस चिड़ीमार ने कितनी गन से कितनी चिडिय़ा मार गिराई, इसका शौर्य स्तंभ देखा है? आइए, हम एक ऐसे ही शौर्य स्तंभ से आपका परिचय कराते हैं। शिलालेख की शक्ल में यह चिड़ीमारों की कीर्ति गाथा है।
केवलादेव राष्ट्रीय पक्षी विहार (घना) में गुलाबी रंग के 8 पत्थर एक प्लेटफार्म पर खूबसूरती से सजाकर लगाए गए हैं। इन पत्थरों में चिड़ीमारों की शौर्यगाथा अंकित है। सभी पत्थर आदमकद साइज के हैं। इन पत्थरों पर लिखी इबारत को जब आप पढ़ते हैं तो पता चलता है कि मासूम चिडिय़ों को गोली से भूनना भी वीरता का काम माना जाता है। प्राचीन इतिहास की किताबों में आपको भले ही ऐसी शूरवीरता के किस्से पढऩे को नहीं मिलें, लेकिन घना अभ्यारण्य में आकर आप देख सकते हैं कि सन 1901 से 1964 तक कितने विशिष्ट लोगों ने मासूम और खूबसूरत पक्षियों को बेरहमी से गोलियों का शिकार बनाया।
यह पत्थर इसलिए लगाए गए हैं कि ताकि पर्यटक जान सकें कि भारत में अंगे्रज बहादुरों और देशी राजा- महाराजाओं के खेल कैसे होते थे। किसने कितनी कम गोली खर्च कर अधिक से अधिक पक्षी मारने का रिकॉर्ड बनाया। पत्थरों पर महज 64 वर्ष का रिकॉर्ड अंकित है, लेकिन इन 64 वर्षों में ही लगभग एक लाख पक्षियों की मौत इनमें दर्ज है। यह तो विशिष्टजनों द्वारा की गई है। इतिहास में दर्ज होने की योग्यता नहीं रखने वाले छुटभइयों द्वारा इस दौरान कितने पक्षी मारे गए उसका तो अनुमान लगाना कठिन है।
चिड़ीमारों की इस शौर्यगाथा में सबसे ऊपर चेलिस फोर्ड का नाम है। चेलिस भारत के वायसराय थे। वे सन 1916 में घना पक्षी विहार आए। चेलिस ने 50 गन से 4206 पक्षी मार गिराने का अटूट रिकॉर्ड ही नहीं बनाया, बल्कि अपने पूर्ववर्ती वायसराय लार्ड हार्डिंग्स का रिकॉर्ड भी तोड़ा। हार्डिंग्स ने 49 गन से 4062 पक्षियों को मौत की नींद सुलाने का रिकॉर्ड बनाया था। चेलिस के रिकॉर्ड बनाने के बाद हार्डिंग्स चिड़ीमारों के दूसरे पायदान पर आ गए। हार्डिंग्स 1914 में घना आए थे।
पत्थरों पर अंकित रिकॉर्ड के अनुसार सन 1964 में अंतिम चिड़ीमार के रूप में भारत के चीफ ऑफ द आर्मी स्टाफ जनरल जेएन चौधरी घना आए। भारतीय होने के नाते इन्होंने गन तो अंगे्रज बहादुरों से ज्यादा चलाईं, लेकिन अंग्रेजों के पासंग भी पक्षी नहीं मार पाए। जनरल ने 51 गन से महज 556 पक्षी मारे। जनरल की इज्जत बचाने के लिए पत्थर पर नीचे संकेत किया गया है कि यह वीरता महज आधे दिन की है। यानी जनरल जल्दी में थे, वरना वे कई दिन तक गोली चलाते रहते और अंग्रेजों का रिकॉर्ड तोडक़र ही दम लेते।
चिड़ीमारों के इस शिलालेख में लार्ड कर्जन से लेकर भारत में तैनात रहे लगभग सभी वायसरायों की वीरगाथा अंकित है। देशी महाराजाओं में महाराजा फरीदकोट, महाराजा पटियाला से लेकर महाराजा भोपाल और महाराजा रतलाम तक के नाम शामिल हैं। महाराजा अलवर, भरतपुर और धौलपुर के नाम तो हैं हीं। चिड़ीमारों का यह शौर्यस्तंभ पक्षी विहार में इतने सम्मान के साथ क्यों लगाया गया है? और पर्यटकों को क्यों दिखाया जाता है, इसका समुचित उत्तर कोई नहीं जानता।
चिड़ीमारों की कीर्तिगाथा के शिलालेख नीचे के चित्र में आप भी देखिए :-
केवलादेव राष्ट्रीय पक्षी विहार (घना) में गुलाबी रंग के 8 पत्थर एक प्लेटफार्म पर खूबसूरती से सजाकर लगाए गए हैं। इन पत्थरों में चिड़ीमारों की शौर्यगाथा अंकित है। सभी पत्थर आदमकद साइज के हैं। इन पत्थरों पर लिखी इबारत को जब आप पढ़ते हैं तो पता चलता है कि मासूम चिडिय़ों को गोली से भूनना भी वीरता का काम माना जाता है। प्राचीन इतिहास की किताबों में आपको भले ही ऐसी शूरवीरता के किस्से पढऩे को नहीं मिलें, लेकिन घना अभ्यारण्य में आकर आप देख सकते हैं कि सन 1901 से 1964 तक कितने विशिष्ट लोगों ने मासूम और खूबसूरत पक्षियों को बेरहमी से गोलियों का शिकार बनाया।
यह पत्थर इसलिए लगाए गए हैं कि ताकि पर्यटक जान सकें कि भारत में अंगे्रज बहादुरों और देशी राजा- महाराजाओं के खेल कैसे होते थे। किसने कितनी कम गोली खर्च कर अधिक से अधिक पक्षी मारने का रिकॉर्ड बनाया। पत्थरों पर महज 64 वर्ष का रिकॉर्ड अंकित है, लेकिन इन 64 वर्षों में ही लगभग एक लाख पक्षियों की मौत इनमें दर्ज है। यह तो विशिष्टजनों द्वारा की गई है। इतिहास में दर्ज होने की योग्यता नहीं रखने वाले छुटभइयों द्वारा इस दौरान कितने पक्षी मारे गए उसका तो अनुमान लगाना कठिन है।
चिड़ीमारों की इस शौर्यगाथा में सबसे ऊपर चेलिस फोर्ड का नाम है। चेलिस भारत के वायसराय थे। वे सन 1916 में घना पक्षी विहार आए। चेलिस ने 50 गन से 4206 पक्षी मार गिराने का अटूट रिकॉर्ड ही नहीं बनाया, बल्कि अपने पूर्ववर्ती वायसराय लार्ड हार्डिंग्स का रिकॉर्ड भी तोड़ा। हार्डिंग्स ने 49 गन से 4062 पक्षियों को मौत की नींद सुलाने का रिकॉर्ड बनाया था। चेलिस के रिकॉर्ड बनाने के बाद हार्डिंग्स चिड़ीमारों के दूसरे पायदान पर आ गए। हार्डिंग्स 1914 में घना आए थे।
पत्थरों पर अंकित रिकॉर्ड के अनुसार सन 1964 में अंतिम चिड़ीमार के रूप में भारत के चीफ ऑफ द आर्मी स्टाफ जनरल जेएन चौधरी घना आए। भारतीय होने के नाते इन्होंने गन तो अंगे्रज बहादुरों से ज्यादा चलाईं, लेकिन अंग्रेजों के पासंग भी पक्षी नहीं मार पाए। जनरल ने 51 गन से महज 556 पक्षी मारे। जनरल की इज्जत बचाने के लिए पत्थर पर नीचे संकेत किया गया है कि यह वीरता महज आधे दिन की है। यानी जनरल जल्दी में थे, वरना वे कई दिन तक गोली चलाते रहते और अंग्रेजों का रिकॉर्ड तोडक़र ही दम लेते।
चिड़ीमारों के इस शिलालेख में लार्ड कर्जन से लेकर भारत में तैनात रहे लगभग सभी वायसरायों की वीरगाथा अंकित है। देशी महाराजाओं में महाराजा फरीदकोट, महाराजा पटियाला से लेकर महाराजा भोपाल और महाराजा रतलाम तक के नाम शामिल हैं। महाराजा अलवर, भरतपुर और धौलपुर के नाम तो हैं हीं। चिड़ीमारों का यह शौर्यस्तंभ पक्षी विहार में इतने सम्मान के साथ क्यों लगाया गया है? और पर्यटकों को क्यों दिखाया जाता है, इसका समुचित उत्तर कोई नहीं जानता।
चिड़ीमारों की कीर्तिगाथा के शिलालेख नीचे के चित्र में आप भी देखिए :-
Sunday, February 20, 2011
ऐसे बनाएं चिडिय़ों को दोस्त
क्या आपके लॉन और आंगन में चिडिय़ा आती हैं? अगर आती भी हैं तो क्या वे नाचती गाती आपको लुभाती हैं? आपका जवाब, हां या नहीं, कुछ भी हो। आप चिडिय़ों से दोस्ती कीजिए। फिर देखिए, रंगबिरंगी और मन को लुभाने वाली चिडिय़ां कैसे आपके घर आंगन में नाचते गाते आपका मनोरंजन करती हैं। आपका सारा तनाव, सारी थकान दूर कर देती हैं। सबसे बड़ी बात यह कि आपको प्रकृति प्रेमी और प्रकृति का रखवाला बना देती हैं। चिडिय़ों को दोस्त बनाने के लिए इन टिप्स को आजमाइए।
- घर के लॉन और आंगन में फूलों के पौधे लगाइए। कोशिश कीजिए कि पौधे देसी हों। पौधों पर फूलों के आते ही उनका पराग चिडिय़ों को आमंत्रित करने लगेगा और आपके घर कई तरह की चिडिय़ा आने लगेंगी।
- घर के आस नीम, आम, पीपल, बड़ जैसे कई तरह के देसी वृक्ष लगाइए। यह वृक्ष पक्षियों के प्राकृतिक निवास स्थल होते हैं। इन वृक्षों के बड़े होने पर यह आपके मकान की शोभा और पहचान तो बनेंगे ही, आपको छाया और पक्षियों को आश्रय देंगे।
- पक्षियों को नहा धोकर साफ रहना अच्छा लगता है। इसलिए अपने लॉन और आंगन में एक बड़ा लेकिन छिछला मिट्टी का पात्र रखिए। इस पात्र में रोज साफ पानी भरिए। आप देखेंगे कि तमाम तरह के पक्षी नहाने के लिए आपके घर आने लगेंगे। इस पात्र का पानी रोज बदलिए क्योंकि पक्षियों को साफ और ठंडे पानी में नहाना अच्छा लगता है।
- घर के आसपास शोर होता हो तो उसे कम करने की कोशिश कीजिए। पक्षियों को शांत वातावरण पसंद होता है। शांत वातावरण में ही वे नाचते गाते हैं।
- घर के आसपास अनजानी या डरावनी चीजें हों तो उसे हटा दीजिए, ताकी पक्षी निश्चिंतता से घर में आ जा सकें।
- यह सब करने के लिए आप अपने पड़ोसियों को भी प्रेरित कीजिए। आसपास के तमाम घर मिलकर एक अच्छा बड़ा बाग या फुलवारी जैसा माहौल बना देंगे और पक्षियों को एक घर से दूसरे घर में फुदकने में मजा आने लगेगा।
- घर या आंगन की एक निश्चित जगह पर रोज दाना डालिए। उसी के आसपास पीने के लिए पानी की व्यवस्था कीजिए। फिर देखिए चिडिय़ा आपकी कैसे दोस्त बनती हैं।
- घर के लॉन और आंगन में फूलों के पौधे लगाइए। कोशिश कीजिए कि पौधे देसी हों। पौधों पर फूलों के आते ही उनका पराग चिडिय़ों को आमंत्रित करने लगेगा और आपके घर कई तरह की चिडिय़ा आने लगेंगी।
- घर के आस नीम, आम, पीपल, बड़ जैसे कई तरह के देसी वृक्ष लगाइए। यह वृक्ष पक्षियों के प्राकृतिक निवास स्थल होते हैं। इन वृक्षों के बड़े होने पर यह आपके मकान की शोभा और पहचान तो बनेंगे ही, आपको छाया और पक्षियों को आश्रय देंगे।
- पक्षियों को नहा धोकर साफ रहना अच्छा लगता है। इसलिए अपने लॉन और आंगन में एक बड़ा लेकिन छिछला मिट्टी का पात्र रखिए। इस पात्र में रोज साफ पानी भरिए। आप देखेंगे कि तमाम तरह के पक्षी नहाने के लिए आपके घर आने लगेंगे। इस पात्र का पानी रोज बदलिए क्योंकि पक्षियों को साफ और ठंडे पानी में नहाना अच्छा लगता है।
- घर के आसपास शोर होता हो तो उसे कम करने की कोशिश कीजिए। पक्षियों को शांत वातावरण पसंद होता है। शांत वातावरण में ही वे नाचते गाते हैं।
- घर के आसपास अनजानी या डरावनी चीजें हों तो उसे हटा दीजिए, ताकी पक्षी निश्चिंतता से घर में आ जा सकें।
- यह सब करने के लिए आप अपने पड़ोसियों को भी प्रेरित कीजिए। आसपास के तमाम घर मिलकर एक अच्छा बड़ा बाग या फुलवारी जैसा माहौल बना देंगे और पक्षियों को एक घर से दूसरे घर में फुदकने में मजा आने लगेगा।
- घर या आंगन की एक निश्चित जगह पर रोज दाना डालिए। उसी के आसपास पीने के लिए पानी की व्यवस्था कीजिए। फिर देखिए चिडिय़ा आपकी कैसे दोस्त बनती हैं।
Tuesday, February 15, 2011
इलाहाबाद और इलाहाबादी
अपने से प्यार करना व्यक्ति की मूल वृत्ति है। इसी कारण हम तब तक किसी से प्यार नहीं करते, जब तक वह अपना नहीं हो जाता। उदाहरण के लिए अपनी मां, अपने बेटे-बेटी, अपने पति, अपने प्रेमी, अपनी गर्लफ्रेंड से ही हम प्यार करते हैं। कार, लैपटॉप, मोबाइल से भी अपना शब्द जुड़ते ही हम प्यार करने लगते हैं। यानी जीवित हो या निर्जीव, जिसके साथ अपना शब्द जुड़ जाता है, वह प्यारा हो जाता है। यही नहीं, वैधता हासिल कर लेता है। दूसरे से प्यार करना दुनिया के लगभग हर देश में अच्छा नहीं माना जाता। इसलिए अवैध कहा जाता है। अपने से प्यार करने की इस सहज मूल वृत्ति को फिल्म कलाकार कटरीना कैफ ने बड़ी खूबसूरती से शीला की जवानी में व्यक्त किया है। किसी और की मुझे जरूरत क्या, मैं तो खुद से प्यार जताऊं। माई नेम इज शीला।
इस आलेख में भारतीय नारी (शीला) के रूप में काम करने वाली विदेशी कटरीना का नाम, मैं उसी सम्मान के साथ ले रहा हूं, जिस सम्मान के साथ बुदिधजीवीनुमा लोग अपनी बकवास को सही साबित करने के लिए विदेशी विद्वानों के नाम लेते हैं। इसे मेरी या बुद्धिजीवीनुमा लोगों की आत्महीनता ना समझी जाए। ना ही इसे यह कहकर खारिज किया जाए कि हमने भारतीय ज्ञान के महासागर में गोतो नहीं लगाए। अन्यथा हमें और भी अच्छे उदाहरण मिल सकते थे। खैर, असली मुद्दे पर आइए। अपने से प्यार करने की इसी मूल वृत्ति के कारण तमाम लोगों को अपनी जन्मभूमि से प्यार हो जाता है। और वह भी दीवानगी की उस हद तक कि उन्हें अपनी जन्मभूमि स्वर्ग से सुंदर लगने लगती है। जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।
चूंकि अपने से प्यार करना आदमी की मूल वृत्ति है और जन्मभूमि से पहले अपनी शब्द जुड़ा है। इसलिए इस मामले में राइट या लेफ्ट की विचारधारा भेद नहीं डालती। राइट वाले को अपनी जन्मभूमि देश महान लगता है तो लेफ्ट वाले को अपनी जन्मभूमि क्षेत्र। इसी तरह किसी को अपना जंगल भला लगता है तो किसी को अपना शहर। किसी को अपनी जाति श्रेष्ठ लगती है तो किसी को अपना धर्म। कोई अपनी भारत माता पर हो रहे दुराचार को देखकर दुनिया बदलने की बात करने लगता है तो कोई जन्म देने वाली अपनी मां पर हुए अत्याचार के कारण व्यवस्था बदलने की बात शुरू कर देता है। दरअसल, अपने से प्यार एक तरह का नशा है, जिसे सभी पीते हैं और यह सभी को भ्रमित करता है।
अब इलाहाबादियों को देखिए। इलाहाबादी कुछ करता हो या नहीं, अपने इलाहाबादी होने का गौरव नहीं छोड़ता। अपने साथ इलाहाबादी शब्द जुडऩा उसे गर्वित करता है। अपना इलाहाबाद। यानी इलाहाबादी। यानी अद्भुत भाईचारा। यानी गजब की ठसक। यानी दुनिया से अलग। यानी सारे चुतियापे का परमिट। मेरे एक मित्र हैं। इलाहाबादी ठसक से क्षुब्ध होकर एक दिन बोल पड़े - सुनो, तुम मुझसे काबिल नहीं हो, लेकिन मेरी दिक्कत यह है कि मैं बांसवाड़ा का हूं और तुम इलाहाबाद के। इलाहाबाद युनिवर्सिटी के प्रोडक्ट होने के नाते तुम पहली नजर में काबिल मान लिए जाते हो और मुझे हर जगह, हर बार काबिलियत साबित करनी पड़ती है। यानी इलाहाबादी चूतियापों की भी जय-जय।
अपने इलाहाबाद से प्यार का गर्व जब हिलोरे लेने लगता है तो लोगों के नाम के साथ इलाहाबादी बिल्ला चिपक जाता है। नाम के साथ चिपके इलाहाबादी बिल्ले को लोग उसी तरह सम्मान देते हैं और वह उसी तरह उनकी रक्षा करता है, जैसे कुली और दीवार फिल्म में अमिताभ बच्चन का बिल्ला करता है। अंग्रेजों के जमाने में एक मजिस्ट्रेट साहब थे। प्रगतिशील विचार वाले थे। मजिस्ट्रेट साहब अपनी कौम से प्यार करने के नशे में डूबे तो उन्हें अंग्रेजों का चाल-चलन बुरा लगने लगा। उन्होंने तत्काल अपने नाम के पीछे इलाहाबादी तखल्लुस जोड़ा और अंग्रेजों की बखिया उधेडऩी शुरू कर दी। अपनी कौम और शहर से प्यार के नशे ने उन्हें महान शायर बना दिया। आज दुनिया उन्हें अकबर इलाहाबादी के नाम से सम्मान देती है। अपने शहर के प्यार से जुड़ा यह नाम इतना लोकप्रिय हुआ कि तमाम कव्वालों ने इस नाम का भरपूर इस्तेमाल किया। भले ही इलाहाबाद से उनका कोई नाता रिश्ता नहीं रहा। अमर, अकबर, एंथनी फिल्म में ऋषि कपूर ने, मेरे सपनों की शहजादी, मैं हूं अकबर इलाहाबादी, गाकर बच्चे-बच्चे की जबान पर इस नाम को चढ़ा दिया।
खैर, इलाहाबादियों का अपने इलाहाबाद से कुछ ज्यादा ही अपनापन है। विश्वास नहीं हो तो किसी भी सर्च इंजन पर इलाहाबादी लिखकर खोज लीजिए। आपको सैकड़ों ऐसे नाम मिल जाएंगे, जिनके पीछे इलाहाबादी लिखा होगा। इन नामों में कवि भी हैं और कव्वाल भी। डॉक्टर भी हैं, खिलाड़ी भी। देश के किसी कोने में रहने वाले लोग हैं तो विदेश में बसे लोग भी। हिन्दू और मुसलमान हैं तो ईसाई भी। पुरुष हैं तो महिलाएं भी। बुजुर्ग हैं तो युवा भी। सुलभ संदर्भ के लिए आप इन कुछ नामों पर गौर कीजिए। बिस्मिल इलाहाबादी, असरार इलाहाबादी, पुरनाम इलाहाबादी, बहार इलाहाबादी, नजर इलाहाबादी, राज इलाहाबादी, ललित इलाहाबादी, चंदू इलाहाबादी, तेग इलाहाबादी, विशेष इलाहाबादी, कनिका इलाहाबादी, लता इलाहाबादी, चारु इलाहाबादी, आदि-आदि। ऐसा नहीं है कि यह सब कवि या शायर हैं और इलाहाबाद में ही रहते हैं। इन्हें तो बस अपने इलाहाबाद से बेइंतहा प्यार है। क्यों है, फिर पूछा तो सुन लीजिए कि सिर्फ इसीलिए कि इलाहाबाद अपना है। यह भी देखिए कि नाम के साथ इलाहाबादी जुड़ते ही नाम कितना खूबसूरत हो गया।
इस आलेख में भारतीय नारी (शीला) के रूप में काम करने वाली विदेशी कटरीना का नाम, मैं उसी सम्मान के साथ ले रहा हूं, जिस सम्मान के साथ बुदिधजीवीनुमा लोग अपनी बकवास को सही साबित करने के लिए विदेशी विद्वानों के नाम लेते हैं। इसे मेरी या बुद्धिजीवीनुमा लोगों की आत्महीनता ना समझी जाए। ना ही इसे यह कहकर खारिज किया जाए कि हमने भारतीय ज्ञान के महासागर में गोतो नहीं लगाए। अन्यथा हमें और भी अच्छे उदाहरण मिल सकते थे। खैर, असली मुद्दे पर आइए। अपने से प्यार करने की इसी मूल वृत्ति के कारण तमाम लोगों को अपनी जन्मभूमि से प्यार हो जाता है। और वह भी दीवानगी की उस हद तक कि उन्हें अपनी जन्मभूमि स्वर्ग से सुंदर लगने लगती है। जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।
चूंकि अपने से प्यार करना आदमी की मूल वृत्ति है और जन्मभूमि से पहले अपनी शब्द जुड़ा है। इसलिए इस मामले में राइट या लेफ्ट की विचारधारा भेद नहीं डालती। राइट वाले को अपनी जन्मभूमि देश महान लगता है तो लेफ्ट वाले को अपनी जन्मभूमि क्षेत्र। इसी तरह किसी को अपना जंगल भला लगता है तो किसी को अपना शहर। किसी को अपनी जाति श्रेष्ठ लगती है तो किसी को अपना धर्म। कोई अपनी भारत माता पर हो रहे दुराचार को देखकर दुनिया बदलने की बात करने लगता है तो कोई जन्म देने वाली अपनी मां पर हुए अत्याचार के कारण व्यवस्था बदलने की बात शुरू कर देता है। दरअसल, अपने से प्यार एक तरह का नशा है, जिसे सभी पीते हैं और यह सभी को भ्रमित करता है।
अब इलाहाबादियों को देखिए। इलाहाबादी कुछ करता हो या नहीं, अपने इलाहाबादी होने का गौरव नहीं छोड़ता। अपने साथ इलाहाबादी शब्द जुडऩा उसे गर्वित करता है। अपना इलाहाबाद। यानी इलाहाबादी। यानी अद्भुत भाईचारा। यानी गजब की ठसक। यानी दुनिया से अलग। यानी सारे चुतियापे का परमिट। मेरे एक मित्र हैं। इलाहाबादी ठसक से क्षुब्ध होकर एक दिन बोल पड़े - सुनो, तुम मुझसे काबिल नहीं हो, लेकिन मेरी दिक्कत यह है कि मैं बांसवाड़ा का हूं और तुम इलाहाबाद के। इलाहाबाद युनिवर्सिटी के प्रोडक्ट होने के नाते तुम पहली नजर में काबिल मान लिए जाते हो और मुझे हर जगह, हर बार काबिलियत साबित करनी पड़ती है। यानी इलाहाबादी चूतियापों की भी जय-जय।
अपने इलाहाबाद से प्यार का गर्व जब हिलोरे लेने लगता है तो लोगों के नाम के साथ इलाहाबादी बिल्ला चिपक जाता है। नाम के साथ चिपके इलाहाबादी बिल्ले को लोग उसी तरह सम्मान देते हैं और वह उसी तरह उनकी रक्षा करता है, जैसे कुली और दीवार फिल्म में अमिताभ बच्चन का बिल्ला करता है। अंग्रेजों के जमाने में एक मजिस्ट्रेट साहब थे। प्रगतिशील विचार वाले थे। मजिस्ट्रेट साहब अपनी कौम से प्यार करने के नशे में डूबे तो उन्हें अंग्रेजों का चाल-चलन बुरा लगने लगा। उन्होंने तत्काल अपने नाम के पीछे इलाहाबादी तखल्लुस जोड़ा और अंग्रेजों की बखिया उधेडऩी शुरू कर दी। अपनी कौम और शहर से प्यार के नशे ने उन्हें महान शायर बना दिया। आज दुनिया उन्हें अकबर इलाहाबादी के नाम से सम्मान देती है। अपने शहर के प्यार से जुड़ा यह नाम इतना लोकप्रिय हुआ कि तमाम कव्वालों ने इस नाम का भरपूर इस्तेमाल किया। भले ही इलाहाबाद से उनका कोई नाता रिश्ता नहीं रहा। अमर, अकबर, एंथनी फिल्म में ऋषि कपूर ने, मेरे सपनों की शहजादी, मैं हूं अकबर इलाहाबादी, गाकर बच्चे-बच्चे की जबान पर इस नाम को चढ़ा दिया।
खैर, इलाहाबादियों का अपने इलाहाबाद से कुछ ज्यादा ही अपनापन है। विश्वास नहीं हो तो किसी भी सर्च इंजन पर इलाहाबादी लिखकर खोज लीजिए। आपको सैकड़ों ऐसे नाम मिल जाएंगे, जिनके पीछे इलाहाबादी लिखा होगा। इन नामों में कवि भी हैं और कव्वाल भी। डॉक्टर भी हैं, खिलाड़ी भी। देश के किसी कोने में रहने वाले लोग हैं तो विदेश में बसे लोग भी। हिन्दू और मुसलमान हैं तो ईसाई भी। पुरुष हैं तो महिलाएं भी। बुजुर्ग हैं तो युवा भी। सुलभ संदर्भ के लिए आप इन कुछ नामों पर गौर कीजिए। बिस्मिल इलाहाबादी, असरार इलाहाबादी, पुरनाम इलाहाबादी, बहार इलाहाबादी, नजर इलाहाबादी, राज इलाहाबादी, ललित इलाहाबादी, चंदू इलाहाबादी, तेग इलाहाबादी, विशेष इलाहाबादी, कनिका इलाहाबादी, लता इलाहाबादी, चारु इलाहाबादी, आदि-आदि। ऐसा नहीं है कि यह सब कवि या शायर हैं और इलाहाबाद में ही रहते हैं। इन्हें तो बस अपने इलाहाबाद से बेइंतहा प्यार है। क्यों है, फिर पूछा तो सुन लीजिए कि सिर्फ इसीलिए कि इलाहाबाद अपना है। यह भी देखिए कि नाम के साथ इलाहाबादी जुड़ते ही नाम कितना खूबसूरत हो गया।
Thursday, February 3, 2011
एक इलाहाबादी का कीर्तिमान
उम्र 51 वर्ष, किताबें प्रकाशित 1024, सम्मान पुरस्कार मिले 40, सोलह पत्र-पत्रिकाओं का संपादन, दिनमान से लेकर भूभारती तक 26 पत्र-पत्रिकाओं में स्तंभ लेखन, अनेक राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय आयोजनों में भागीदारी। यह सारा कमाल एक आदमी का। उपलब्धियों का यह खजाना देखकर भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम बोल उठे - ओ मेरे प्यारे युवा दोस्त। तुम्हारी उपलब्धियों को देखकर मैं हैरान हूं। कोई विश्वास नहीं कर सकता। तुम्हारे भाषा, साहित्य, व्याकरण, विज्ञान, समसामयिक विषयों और बाल साहित्य के ज्ञान को देखकर मैं हतप्रभ हूं। तुम्हारी श्रेष्ठता को छूना किसी के लिए भी कठिन है।
ऐसा कमाल कौन कर सकता है? आप सही समझे, कोई इलाहाबादी ही यह करिश्मा कर सकता है। आइए, हम उससे आपको मिलवाते हैं। यह हैं- डॉ. पृथ्वीनाथ पांडेय। ठेठ इलाहाबादी। लेखन को समर्पित एक अप्रतिम हस्ताक्षर। तीन विषयों हिन्दी, अंग्रेजी और प्राचीन इतिहास में एमए। पीएच-डी। हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेजी और उर्दू चार भाषाओं के जानकार। पत्रकारिता से लेकर साहित्य लेखन तक में समान अधिकार । दुनिया की लगभग सभी कृतिकार परिचय निर्देशकाओं में शीर्षस्थ लेखक के रूप में स्थापित। दि अमेरिकन बॉयोग्राफिक्स इंस्ट्टियूट तथा दि रिसर्च बोर्ड ऑफ एडवाइजर्स के मानद सदस्य। सम्प्रति इलाहाबाद स्थित पत्रकारिता एवं जनसंचार संस्थान के निदेशक।
डॉ. पृथ्वीनाथ पांडेय का जन्म 1 जुलाई 1959 को बलिया में हुआ। उनके पिता एजी ऑफिस, इलाहाबाद में कार्यरत थे। इसलिए पृथ्वीनाथ होश संभालने के पहले ही इलाहाबाद आ गए और इलाहाबाद के ही होकर रह गए। डॉ. पांडेय इलाहाबाद में ही पले, इलाहाबाद में ही पढ़े और यहीं बस गए। उनके कृतित्व पर दैनिक जागरण, जनवार्ता, हिन्दुस्तान, युनाइटेड भारत, अमृत प्रभात, स्वतंत्र भारत, दि पायनियर, हिन्दुस्तान टाइम्स और नार्दर्न इंडिया पत्रिका सहित तमाम पत्र-पत्रिकाओं में आलेख प्रकाशित हो चुके हैं। तो आइए बोलें- सरस्वती से वरदान प्राप्त इस इलाहाबादी की जय हो।
ऐसा कमाल कौन कर सकता है? आप सही समझे, कोई इलाहाबादी ही यह करिश्मा कर सकता है। आइए, हम उससे आपको मिलवाते हैं। यह हैं- डॉ. पृथ्वीनाथ पांडेय। ठेठ इलाहाबादी। लेखन को समर्पित एक अप्रतिम हस्ताक्षर। तीन विषयों हिन्दी, अंग्रेजी और प्राचीन इतिहास में एमए। पीएच-डी। हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेजी और उर्दू चार भाषाओं के जानकार। पत्रकारिता से लेकर साहित्य लेखन तक में समान अधिकार । दुनिया की लगभग सभी कृतिकार परिचय निर्देशकाओं में शीर्षस्थ लेखक के रूप में स्थापित। दि अमेरिकन बॉयोग्राफिक्स इंस्ट्टियूट तथा दि रिसर्च बोर्ड ऑफ एडवाइजर्स के मानद सदस्य। सम्प्रति इलाहाबाद स्थित पत्रकारिता एवं जनसंचार संस्थान के निदेशक।
डॉ. पृथ्वीनाथ पांडेय का जन्म 1 जुलाई 1959 को बलिया में हुआ। उनके पिता एजी ऑफिस, इलाहाबाद में कार्यरत थे। इसलिए पृथ्वीनाथ होश संभालने के पहले ही इलाहाबाद आ गए और इलाहाबाद के ही होकर रह गए। डॉ. पांडेय इलाहाबाद में ही पले, इलाहाबाद में ही पढ़े और यहीं बस गए। उनके कृतित्व पर दैनिक जागरण, जनवार्ता, हिन्दुस्तान, युनाइटेड भारत, अमृत प्रभात, स्वतंत्र भारत, दि पायनियर, हिन्दुस्तान टाइम्स और नार्दर्न इंडिया पत्रिका सहित तमाम पत्र-पत्रिकाओं में आलेख प्रकाशित हो चुके हैं। तो आइए बोलें- सरस्वती से वरदान प्राप्त इस इलाहाबादी की जय हो।
Tuesday, February 1, 2011
बूझिए राजस्थानी पहेली
राजस्थान निवासी और देश के विख्यात लेखक विजयदान देथा की बहुचर्चित कहानी है- दुविधा। इस कहानी पर हिन्दी में फिल्म बन चुकी है। फिल्म का नाम था- पहेली। फिल्म का नाम जानने के बाद आपको याद आ ही गया होगा कि शाहरूख खान और रानी मुखर्जी अभिनीत इस फिल्म में एक पत्नी और दो पतियों की रहस्यपूर्ण कहानी है। वैसे तो यह राजस्थान की लोककथा है, लेकिन राजस्थानी जीवन आए दिन ऐसी रहस्यपूर्ण घटनाओं से दो चार होता है।
अलवर में पिछले दिनों मैंने भी एक ऐसी रहस्यपूर्ण, किन्तु सच्ची कहानी का सामना किया। हालॉकि इस कहानी (सत्य घटना) का संबंध मुझसे नहीं है, लेकिन कहानी सुनाने वाले ने शायद मुझे पहेली फिल्म का बूढ़ा गड़ेरिया (अमिताभ बच्चन) समझा और इसलिए मुझसे सहायता मांगी। इस नाते मुझे यह कहानी पता चली। अब इस नई पहेली को आप भी सुनिए। आपके पास इसका हल हो तो बताइए ताकि कहानी सुनाने वाले की मदद की जा सके। कहानी सुनिए।
लाइफ इंश्योरेंस कॉरपोरेशन (एलआईसी) के अफसर इन दिनों इस बात को लेकर परेशान हैं कि किसी की मौत के पहले अखबार वाले कैसे जान जाते हैं कि अमुक मर गया और इस तरह मरा। मौत की खबर जैसे छपती है, कुछ दिनों बाद वैसे ही आदमी की मौत हो जाती है। यह रहस्य क्या है? क्या अखबार वालों ने भगवान का दर्जा हासिल कर लिया है? या यमराज के दफ्तर में अखबार वालों ने सोर्स खड़ा कर लिया है, जो यमराज की योजनाओं को लीक करता रहता है। हालॉकि विज्ञान और तकनीक के जमाने में अखबार वालों के लिए कुछ भी मुश्किल नहीं है, लेकिन इस पर विश्वास करना लोगों के लिए बहुत कठिन है।
अपने इन्हीं सवालों के साथ एक दिन मेरे पास एलआईसी के एक सीनियर मैनेजर आए। सामान्य बातचीत के बाद उन्होंने मुझसे कहा कि मैं आपसे कुछ जानकारी चाहता हूं। कृपया मेरी मदद कीजिए। मैंने सहजता से कहा- बताइए। उन्होंने कहा कि राजस्थान के दो अखबारों दैनिक भास्कर और राजस्थान पत्रिका में 4 नवंबर को खबर छपी कि अमुक गांव के एक बच्चे की गांव के तालाब में डूबकर मौत हो गई। राजस्थान पत्रिका ने इस खबर को सिंगल कॉलम छापा, जबकि दैनिक भास्कर ने वैल्यू एडीशन के साथ उस तालाब की फोटो भी छापी, जिसमें बालक डूबकर मरा था। भास्कर ने तालाब की फोटो के नीचे कैप्शन लिखा- वह तालाब जिसमें डूबकर बालक की मौत हुई।
अगले दिन 5 नवंबर को उस बालक का 2 लाख रुपए का जीवन बीमा हुआ और कुछ दिनों बाद उसका क्लेम दावा प्रस्तुत हो गया। दावे के साथ पंचायत द्वारा दिया गया बालक का मृत्यु प्रमाण पत्र और पुलिस द्वारा दी गई एफआईआर की कॉपियां लगाईं गईं। इन दोनों कागजातों में बालक की मौत 8 नवंबर को हुई बताई गई। इंश्योरेंस कंपनी ने जब इस क्लेम को फर्जी करार देते हुए दावा अमान्य कर दिया तो याची अदालत पहुंच गया। अदालत ने इंश्योरेंस कंपनी से बालक की मौत का प्रमाण पत्र मांगा। इंश्योरेंस कंपनी ने घटना के संबंध में दैनिक भास्कर और राजस्थान पत्रिका में छपी खबरों की कटिंग पेश की तो अदालत ने कहा कि अखबारों में छपी खबरें प्रमाण नहीं होतीं। आप पुख्ता प्रमाण लाइए।
इंश्योरेंस कंपनी के अफसर प्रमाण की तलाश में गांव पहुंचे। ग्रामीणों ने घटना की पुष्टि करते उन्हें यह तो बताया कि अमुक का बालक तालाब में डूबकर मरा था, लेकिन उन्हें यह याद नहीं कि वह 3 तारीख थी या 8। बेचारे इंश्योरेंस कंपनी के अफसर गांव से लौट आए। अब वे प्रमाण जुटाने के लिए चारों ओर भटक रहे हैं। वह जानना चाहते हैं कि अगर पंचायत द्वारा दिया गया मृत्यु प्रमाण पत्र और पुलिस की एफआईआर सच है तो अखबार वालों को मौत की जानकारी पांच दिन पहले कैसे हो गई। पांच दिन पहले अखबार वालों ने जिस बालक के जिस तरह तालाब में डूबने की घटना छापी, पांच दिन बाद उसी तरह वह बालक तालाब में डूबकर मरा। उनका सवाल है कि किसी के मरने और मरने के तरीके की जानकारी अखबार वालों को हफ्तों पहले कैसे हो जाती है? अखबार वाले अपना सोर्स नहीं बताएं पर अपनी टेक्नीक तो बता ही सकते हैं।
इस पहेली को आप भी बूझिए। आपके पास हल हो तो बताइए, ताकि इंश्योरेंस कंपनी के बेचारे अफसरों की कुछ मदद की जा सके।
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