Tuesday, February 22, 2011


1 comment:

Jitendra Chawla said...

गुरू दंडौत, मजा आय गयौ।
लम्बे अरसे बाद जहन में शहादत हसन मिंटो की तस्वीर फिर उतर आई। 'गरम गोश्तÓ और 'खोल दोÓ जैसी उनकी कहानियों में जो साफगोई नजर नहीं आई वो 'हम इलाहाबादीÓ में नजर आई। डंडा चलाने की आदत मेरी राय में इलाहाबादी और भरतपुरी दोनों में होती है अंतर शायद इतना ही है कि इलाहाबादी केवल डंडा चलाते हैं जबकि भरतपुरी पंचमी के दिन डंडा गाड़ते भी हैं और हर चीज को अपने डंडे पे मारते भी हैं। यह दूसरी बात है कि अपनी सुरक्षा के लिए पूर्व में भी हम भरतपुरी डंडा (शहर के चारों ओर बना मिट्टी का परकोटा)पर ही आश्रित थे। भरतपुर में आजकल मच्छरों का बहुत जोर है मेरे दोनों बेटे शाम के वक्त अपने कमरे में मच्छर मार अभियान रोज चलाते हैं। और अपने शिकार की संख्या दूसरे से ज्यादा बताकर अपनी श्रेष्ठता और बहादुरी सिद्ध करने की कोशिश करते हैं। अपने आप को बहादुर सिद्ध करना मानव की पुरानी आदत है जहां अपने से जो कमजोर उपलब्ध हुआ उसी को मारकर या भगाकर अपनी बहादुरी का बखान करता है। मेहरबानी है ऊपर वाले की कि यहां उस समय चिडिय़ा उपलब्ध थी अन्यथा आपको घने में चिड़ी मारों की जगह मच्छर मारों की फेहरिस्त नजर आती।
नीरज जैन, भरतपुर