मेरा विश्वास है कि दहेज मांगने और लेने देने कि तमाम कहानियां आपने सुनी होंगी। उनमें कई दुखद और कुछ रोचक होंगी। संभव है, इसीलिए, दहेज कि कहानियां आपको बोर भी करने लगी हों, लेकिन मैं आपको जो कहानी सुनाने जा रहा हूं, वह आपको आनंद देगी। आप वाह कह उठेंगे। मेरी इस कहानी में देवी हैं, देवता हैं, पंडित हैं, पंच हैं। यानी यह मानवेतर कहानी है। इसके बावजूद पौराणिक नहीं है। सामयिक है। दरअसल, जिसे मैं कहानी बता रहा हूं, वह सच्ची घटना है।
घटना राजस्थान के अलवर जिले की है। अलवर में एक कस्बा है लक्ष्मणगढ़। कस्बे के कुछ लोगों ने भगवान सालिगराम का विवाह तुलसा जी से करना तय किया। कस्बे के लोग दो हिस्सों में बंट गए। कुछ लोग भगवान सालिगराम की तरफ से वर पक्ष के बन गए तो कुछ तुलसा जी की तरफ से घराती। पंडितों ने विवाह की तिथि निश्चित की। शादी का मुहुर्त निकला। विवाह, दहेज की तैयारी की। नियत समय पर धूमधाम से भगवान की बारात निकली। सुहाग के गीत गाती महिलाओं ने बारात का स्वागत किया। भोज हुआ। वरमाला पड़ी। फेरे हुए। लोगों ने रुपयों, गहनों और सामानों के साथ सपत्नीक कन्यादान किया। फिर तुलसा जी विदा हो गईं। भगवान के विवाह की सभी रस्में लेन देन के साथ परंपरागत ढंग से उसी तरह निभाई गईं, जैसे हिन्दुओं के घरों में होती हैं।
भगवान सालिगराम और तुलसा जी के शानदार विवाह की लोग चर्चा कर ही रहे थे कि तभी विवाद खड़ा हो गया। वर सालिगराम के पिता की भूमिका निभाने वाले महंत रामदास ने शादी के 48 घंटे में ही दुल्हन तुलसा जी को मायके लौटा दिया। तुलसा जी के पिता की भूमिका निभाने वाले लक्ष्मीनारायण गुप्ता ने कारण जानना चाहा तो महंत जी ने बताया कि विवाह में मिले लाखों रुपए के सामान और कन्यादान की राशि को फेरे डलवाने वाले पंडित जी लेकर चले गए हैं। लक्ष्मीनारायण गुप्ता ने महंत रामदास से वधु को मायके नहीं छोडऩे की मिन्नत की, लेकिन महंत बिना दहेज के तुलसा जी को ले जाने को तैयार नहीं हुए। बाद में लक्ष्मीनारायण गुप्ता ने गांव के प्रमुख लोगों के साथ फेरे डलवाने वाले पं. प्रेमचंद शर्मा से बात की तो वे भी कन्यादान में आए कपड़े, आभूषण, बर्तन और नकदी लौटाने को तैयार नहीं हुए।
शादी कराने वाले पंडित प्रेमचंद शर्मा का तर्क था कि यह कोई सचमुच की शादी थोड़ी थी। यह तो पूजा अनुष्ठान था और सभी पूजा की तरह इस पूजा के चढ़ावों पर भी पूजा कराने वाले पंडित यानी मेरा अधिकार है। पंडित जी ने भगवान की शादी में तकनीकी पेंच फंसा दिया। दहेज के लिए मायके वापस लौटाई गई तुलसा जी की विदाई के लिए चितिंत कस्बेवासियों ने अगले दिन पंचायत बुलाई। पंच-पटेलों ने महंत और पंडित दोनों को समझाने की कोशिश की, लेकिन शादी कराने वाले पंडित जी के तकनीकी तर्क को कोई काट नहीं पाया। नतीजतन, पंचायत ने फैसला किया कि तुलसा जी के पिता की भूमिका निभाने वाले लक्ष्मीनारायण गुप्ता, वर पक्ष को 2100 रुपए, 5 साड़ी और कुछ गहने देकर तुलसा जी को विदा करे। पंचायत का फैसला सिर माथे रखकर लक्ष्मीनारायण गुप्ता ने महंत रामदास को उक्त दहेज देकर तुलसा जी को विदा किया। दहेज पाकर भगवान सालिगराम के पिता की भूमिका निभाने वाले सीताराम मंदिर के महंत रामदास तुलसा जी को धूमधाम से ले गए।
बताइए सुनी थी। देवी देवताओं को त्रस्त कर देने वाले दहेज की ऐसी कहानी।
Saturday, December 3, 2011
Monday, July 18, 2011
तमे प्यार करे छूं
बचपन में जब व्यापार (ट्रेड) खेलते थे तो चंडीगढ़ और अहमदाबाद शहर खरीदने की होड़ मचती थी। यह शहर महंगे तो थे, लेकिन किराया बहुत देते थे। इसलिए हर बच्चा इन शहरों को खरीदने की हरसंभव कोशिश करता। जीतने के लिए भी यह शहर काफी मददगार साबित होते। उस समय अक्सर मन में यह बात उठती कि चंडीगढ़ और अहमदाबाद जाकर देखना चाहिए कि आखिर क्यों यह शहर इतने महंगे हैं?
बचपन बीता। खेलना खतम हुआ। जवानी आई तो अपने साथ नौकरी की जिम्मेदारी ले आई। लखनऊ, वाराणसी, इलाहाबाद, आगरा जैसे उत्तर प्रदेश के महानगरों में नौकरी करते हुए लगा- ओफ, कितने गंदे हैं शहर? कब होंगे रहने लायक ये शहर? अराजकता की हद तक आजादी। जो जहां नहीं होना चाहिए, वह वहां मौजूद। और जिसकी जहां जरूरत है, वह वहां से गायब। यूपी के शहरों का यथार्थ विचलित करता। व्यथित मन विद्रोही बनकर कहता -काश, देश में कोई तो ऐसा शहर हो, जहां सडक़ों पर गाय -भैंस न दिखें। मुहल्ले सुअरों से और गलियां कुत्तों से खाली हों। सडक़ें चौड़ी और चिकनी हो। लोगों में ट्रैफिक सेंस हो। पुलिस वाले सज्जनता से बात करते हों। मन मोह कर थकान मिटाने वाली हरियाली हो। लोगों के लॉन और चौराहे फूलों से भरे हों।
व्यथा यदाकदा विद्रोह करके फूटती। काम में आक्रोश दिखता। इसी जद्दोजहद में जिंदगी ने एक दिन चंडीगढ़ पहुंचा दिया। जाड़ों के दिन थे। मैं भौचक। हतप्रभ। अविश्वसनीय नजरों से चारों ओर देख रहा था। हरियाली भरे रास्ते। चौड़ी साफ सडक़ें। व्यवस्थित ट्रैफिक। फूलों से भरे राउंड अबाउट। मन का अविश्वास बोला- यह तो शहर का मुख्य यानी दिखावटी हिस्सा है। शहर भीतर से भी ऐसा हो तो बात है। अपने ऑफिस की शानदार बिल्डिंग देखकर दूसरा झटका लगा। बाहर कई एकड़ में फैला खूबसूरत लॉन, ऑफिस बिल्डिंग को दो तरफ से घेरे था। लॉन फूलों से भरा था। देखते ही मन खुश हो गया। अविश्वासी मन ने कहा- चंडीगढ़ भीतर से जैसा भी हो, ऑफिस सुंदर है। इसलिए कुछ दिन तो यहां टिका ही जा सकता है।
चंडीगढ़ के सेक्टर 25 में ऑफिस और सेक्टर-31 में किराए का मकान। शहर और उसकी व्यवस्था समझने में दिन गुजरने लगे। घुमक्कड़ी और जिज्ञासु प्रवृत्ति शहर के भीतर बाहर दौड़ाती रही। हर चीज का मुआइना। हर चीज समझने की कोशिश। देखने, जानने, समझने की इस प्रक्रिया में चंड़ीगढ़, मोहाली और पंचकूला ही नहीं, हमने पूरा हिमाचल, हरियाणा और पंजाब देख डाला। परवाणू में मटन का अचार कौन अच्छा बनाता है। अमृतसर में रात के 2 बजे सिगरेट या आइसक्रीम कहां मिलती है। रोपड़ के फ्लोटिंग रेस्टोरेंट में लंच लेने के लिए कितने बजे जाना ठीक रहता है। चंडीगढ़ में जलेबी कौन अच्छी बनाता है। मनाली में भुना चिकन खाने में कैसा आनंद आता है, इन सबके हम उस्ताद हो गए। रात के 3 बजे हों या दोपहर के 12, घूमने और खाने के लिए हरदम तैयार।
चंडीगढ़ में 6 साल रहकर हम समझ पाए कि यह शहर व्यापार के खेल में क्यों महंगा था। किसी शहर में रहने के लिए हम जिस आदर्श व्यवस्था की कल्पना कर सकते हैं, या जो भी सपना देख सकते हैं, वह सब चंडीगढ़ में हैं। एक जैसे व्यवस्थित मकान। साफ सुथरी बस्तियां यानी सेक्टर। चिकनी चौड़ी सडक़ें। कहीं कूड़ा नहीं। कोई गंदगी नहीं। कहीं जानवर नहीं। फूलों से भरे चौराहे और लॉन। सज्जनता से बात करते पुलिसवाले। चौबीस घंटे बिजली। हर आदमी व्यस्त और अपने काम से काम रखने वाला। चंडीगढ़ की इन्हीं विशेषताओं ने पहले हमारा मन मोहा और बाद में इन्हीं ने हमें बोर करना शुरू कर दिया। हमें सब कुछ नीरस लगने लगा। खैर, यह बात फिर कभी करेंगे।
बचपन से दिमाग में घुसे दूसरे शहर अहमदाबाद को हमने पिछले दिनों देखा। अहमदाबाद देश के पुराने शहरों में एक शहर है। इसलिए हमें चंडीगढ़ जैसी व्यवस्था की तो यहां उम्मीद नहीं थी, लेकिन यहां भी हमने जो देखा, उसने हमारी आंखें खोल दी। शहर के बीच शानदार 6 लेन रोड। देखकर विश्वास नहीं होता। लगता है, सपना है। 2 लेन आने के लिए, 2 जाने के लिए और बीच की 2 लेन सिटी बस के लिए आरक्षित। पूरे शहर में सिटी बस दौड़ती है और लोग आराम से चढ़ते उतरते हैं। रेलवे स्टेशन से लेकर शहर के भीतर तक की सडक़ें चौड़ी और मस्त। एयरपोर्ट की सडक़ तो दर्शनीय।
शहर के भीतर सडक़ों पर जबरदस्त ट्रैफिक। भागते वाहनों से भरी सभी सडक़ें। सबमें आगे निकलने की होड़। इसके बावजूद, अचानक सामने आ जाने वाले वाहन को खामोशी से रास्ता देते लोग। कोई तू तू- मैं मैं नहीं। पहले आप जैसी तहजीब। बाहर का कोई आदमी इस भीड़ में वाहन नहीं चला सकता। शहर की सडक़ों पर तेजी से चलती कार पर बैठे हुए मुझे कई बार लगा अब भिड़े, तब भिड़े, लेकिन मेरा अहमदाबादी ड्राइवर मुझे सब जगह सकुशल घुमाता रहा। शहर में पचास से ज्यादा फ्लाईओवर हैं। फ्लाईओवर के ऊपर फ्लाईओवर हैं। इन फ्लाईओवरों के ऊपर से गुजरते हुए शहर देखने का अलग मजा है।
पुराना शहर होने के नाते अहमदाबाद, चंडीगढ़ जैसा व्यवस्थित तो नहीं हो सकता, लेकिन इस शहर की जीवंतता देखने लायक है। मेहनती गुजराती मनोरंजन का कोई अवसर नहीं छोड़ते। दिन भर काम करना और शानदार तरीके से शाम गुजारना, गुजरातियों का शगल है। यही कारण है कि शाम को क्लबों और बार से लेकर मल्टीप्लैक्स और सडक़ों तक पर जगह नहीं होती। अहमदाबाद में दर्जनों ऐसे क्लब हैं, जिनकी मेंबरशिप फीस लाखों रुपए में है। कई क्लबों ने तो लाखों रुपयों की मेंबरशिप फीस लेकर वेटिंग लिस्ट जारी कर रखी है। वर्षों से इन क्लबों में किसी नए को सदस्यता नहीं मिली है। ऐसा ही एक क्लब गुजराती एनआरआईज का है। गुजरात का यह सबसे प्रतिष्ठित क्लब है।
शहर के बीच में कांकरिया झील है। पूरी झील आकर्षक लाइटों से सजी है। झील के किनारे- किनारे फौव्वारे लगे हैं। रंगीन लाइट्स में पानी की फुहारें आपको मस्त कर देती है। पूरी झील का चक्कर लगाने के लिए ट्वाय ट्रेन है। बच्चों के तमाम तरह के झूलों से लेकर खाने पीने की दुकानें हैं। हम कई घंटे तक यहां मस्ती करते रहे। शाम को यहां इतनी भीड़ होती है कि लगता है, पूरा शहर यहां आ पहुंचा है। दिन भर फोटो खींचते हुए जब हम शाम को यहां पहुंचे तो हमारे कैमरे के सेल वीक हो चुके थे, नतीजतन कांकरिया झील और पतंग रेस्टोरेंट की हमारी फोटो अच्छी नहीं आई।
अहमदाबाद शानदार बिल्डिंगों, सडक़ों, होटलों, मॉल्स, मल्टीप्लैक्सों का ही शहर नहीं है। यहां दर्जनों दर्शनीय मंदिर और मस्जिदें हैं। शहर में साढ़े 3 हजार से ज्यादा शानदार रेस्त्रां हैं। कुछ रेस्टोरेंट तो ऐसे हैं, जहां आपको अपनी सीटें दो एक दिन पहले आरक्षित करानी पड़ती है। शहर में ऐसा ही एक रेस्त्रां है- पतंग। यह रेस्त्रां अपनी धुरी पर गोल घूमता है। सात मंजिल ऊपर बने इस घूमते हुए रेस्त्रां में खाना खाने का अलग आनंद है। इसकी कांच की दीवारों से आपको पूरा शहर दिखाई पड़ता है। पतंग रेस्त्रां में भी दो दिन पहले बुकिंग करानी पड़ती है। हमने यहां डिनर लिया। हम जब वहां पहुंचकर बैठे और खाना खाकर उठे, तब तक इसने पौन चक्कर लगाकर हमें पूरे शहर का दर्शन करा दिया था। रात में बिजली से जगमगाता अहमदाबाद बहुत खूबसूरत लगता है।
अहमदाबाद के सबसे बड़े मॉल, रिलायंस मॉल में हम काफी देर घूमे। यह इस्कॉन मंदिर से लगभग सटा हुआ है। शायद इसी कारण इसे इस्कॉन मॉल भी कहते हैं। आदतन, हमने शहर घूमते हुए कई जगह पान खाया। हमें पान अच्छा मिला। अगले दिन हम गांधीनगर घूमने गए। गांधीनगर भी चंडीगढ़ जैसा खूबसूरत और नियोजित तरीके से बसाया गया है। हरियाली से भरा और साफ सुथरा। यहां भी सेक्टर में बटीं बस्तियां हैं। सडक़ से गुजरते हुए मुख्यमंत्री और अन्य मंत्रियों की कोठियां देखीं। गुजरात विधानसभा देखी और सेक्टर- 30 के एक शानदार रेस्टोरेंट में लंच किया। अहमदाबाद और गांधीनगर घूमने के बाद हमें विश्वास हो गया कि यह शहर व्यापार के खेल में महंगा है तो ठीक ही है। गलत नहीं। आज लगता है कि बचपन के खेल ने ही हमें सिखा दिया था कि जीतना है तो चंडीगढ़ और अहमदाबाद जैसे शहरों को अपने पास रखना होगा। सचमुच, मैं दोनों शहरों को प्यार करता हूं।
बचपन बीता। खेलना खतम हुआ। जवानी आई तो अपने साथ नौकरी की जिम्मेदारी ले आई। लखनऊ, वाराणसी, इलाहाबाद, आगरा जैसे उत्तर प्रदेश के महानगरों में नौकरी करते हुए लगा- ओफ, कितने गंदे हैं शहर? कब होंगे रहने लायक ये शहर? अराजकता की हद तक आजादी। जो जहां नहीं होना चाहिए, वह वहां मौजूद। और जिसकी जहां जरूरत है, वह वहां से गायब। यूपी के शहरों का यथार्थ विचलित करता। व्यथित मन विद्रोही बनकर कहता -काश, देश में कोई तो ऐसा शहर हो, जहां सडक़ों पर गाय -भैंस न दिखें। मुहल्ले सुअरों से और गलियां कुत्तों से खाली हों। सडक़ें चौड़ी और चिकनी हो। लोगों में ट्रैफिक सेंस हो। पुलिस वाले सज्जनता से बात करते हों। मन मोह कर थकान मिटाने वाली हरियाली हो। लोगों के लॉन और चौराहे फूलों से भरे हों।
व्यथा यदाकदा विद्रोह करके फूटती। काम में आक्रोश दिखता। इसी जद्दोजहद में जिंदगी ने एक दिन चंडीगढ़ पहुंचा दिया। जाड़ों के दिन थे। मैं भौचक। हतप्रभ। अविश्वसनीय नजरों से चारों ओर देख रहा था। हरियाली भरे रास्ते। चौड़ी साफ सडक़ें। व्यवस्थित ट्रैफिक। फूलों से भरे राउंड अबाउट। मन का अविश्वास बोला- यह तो शहर का मुख्य यानी दिखावटी हिस्सा है। शहर भीतर से भी ऐसा हो तो बात है। अपने ऑफिस की शानदार बिल्डिंग देखकर दूसरा झटका लगा। बाहर कई एकड़ में फैला खूबसूरत लॉन, ऑफिस बिल्डिंग को दो तरफ से घेरे था। लॉन फूलों से भरा था। देखते ही मन खुश हो गया। अविश्वासी मन ने कहा- चंडीगढ़ भीतर से जैसा भी हो, ऑफिस सुंदर है। इसलिए कुछ दिन तो यहां टिका ही जा सकता है।
चंडीगढ़ के सेक्टर 25 में ऑफिस और सेक्टर-31 में किराए का मकान। शहर और उसकी व्यवस्था समझने में दिन गुजरने लगे। घुमक्कड़ी और जिज्ञासु प्रवृत्ति शहर के भीतर बाहर दौड़ाती रही। हर चीज का मुआइना। हर चीज समझने की कोशिश। देखने, जानने, समझने की इस प्रक्रिया में चंड़ीगढ़, मोहाली और पंचकूला ही नहीं, हमने पूरा हिमाचल, हरियाणा और पंजाब देख डाला। परवाणू में मटन का अचार कौन अच्छा बनाता है। अमृतसर में रात के 2 बजे सिगरेट या आइसक्रीम कहां मिलती है। रोपड़ के फ्लोटिंग रेस्टोरेंट में लंच लेने के लिए कितने बजे जाना ठीक रहता है। चंडीगढ़ में जलेबी कौन अच्छी बनाता है। मनाली में भुना चिकन खाने में कैसा आनंद आता है, इन सबके हम उस्ताद हो गए। रात के 3 बजे हों या दोपहर के 12, घूमने और खाने के लिए हरदम तैयार।
चंडीगढ़ में 6 साल रहकर हम समझ पाए कि यह शहर व्यापार के खेल में क्यों महंगा था। किसी शहर में रहने के लिए हम जिस आदर्श व्यवस्था की कल्पना कर सकते हैं, या जो भी सपना देख सकते हैं, वह सब चंडीगढ़ में हैं। एक जैसे व्यवस्थित मकान। साफ सुथरी बस्तियां यानी सेक्टर। चिकनी चौड़ी सडक़ें। कहीं कूड़ा नहीं। कोई गंदगी नहीं। कहीं जानवर नहीं। फूलों से भरे चौराहे और लॉन। सज्जनता से बात करते पुलिसवाले। चौबीस घंटे बिजली। हर आदमी व्यस्त और अपने काम से काम रखने वाला। चंडीगढ़ की इन्हीं विशेषताओं ने पहले हमारा मन मोहा और बाद में इन्हीं ने हमें बोर करना शुरू कर दिया। हमें सब कुछ नीरस लगने लगा। खैर, यह बात फिर कभी करेंगे।
बचपन से दिमाग में घुसे दूसरे शहर अहमदाबाद को हमने पिछले दिनों देखा। अहमदाबाद देश के पुराने शहरों में एक शहर है। इसलिए हमें चंडीगढ़ जैसी व्यवस्था की तो यहां उम्मीद नहीं थी, लेकिन यहां भी हमने जो देखा, उसने हमारी आंखें खोल दी। शहर के बीच शानदार 6 लेन रोड। देखकर विश्वास नहीं होता। लगता है, सपना है। 2 लेन आने के लिए, 2 जाने के लिए और बीच की 2 लेन सिटी बस के लिए आरक्षित। पूरे शहर में सिटी बस दौड़ती है और लोग आराम से चढ़ते उतरते हैं। रेलवे स्टेशन से लेकर शहर के भीतर तक की सडक़ें चौड़ी और मस्त। एयरपोर्ट की सडक़ तो दर्शनीय।
शहर के भीतर सडक़ों पर जबरदस्त ट्रैफिक। भागते वाहनों से भरी सभी सडक़ें। सबमें आगे निकलने की होड़। इसके बावजूद, अचानक सामने आ जाने वाले वाहन को खामोशी से रास्ता देते लोग। कोई तू तू- मैं मैं नहीं। पहले आप जैसी तहजीब। बाहर का कोई आदमी इस भीड़ में वाहन नहीं चला सकता। शहर की सडक़ों पर तेजी से चलती कार पर बैठे हुए मुझे कई बार लगा अब भिड़े, तब भिड़े, लेकिन मेरा अहमदाबादी ड्राइवर मुझे सब जगह सकुशल घुमाता रहा। शहर में पचास से ज्यादा फ्लाईओवर हैं। फ्लाईओवर के ऊपर फ्लाईओवर हैं। इन फ्लाईओवरों के ऊपर से गुजरते हुए शहर देखने का अलग मजा है।
पुराना शहर होने के नाते अहमदाबाद, चंडीगढ़ जैसा व्यवस्थित तो नहीं हो सकता, लेकिन इस शहर की जीवंतता देखने लायक है। मेहनती गुजराती मनोरंजन का कोई अवसर नहीं छोड़ते। दिन भर काम करना और शानदार तरीके से शाम गुजारना, गुजरातियों का शगल है। यही कारण है कि शाम को क्लबों और बार से लेकर मल्टीप्लैक्स और सडक़ों तक पर जगह नहीं होती। अहमदाबाद में दर्जनों ऐसे क्लब हैं, जिनकी मेंबरशिप फीस लाखों रुपए में है। कई क्लबों ने तो लाखों रुपयों की मेंबरशिप फीस लेकर वेटिंग लिस्ट जारी कर रखी है। वर्षों से इन क्लबों में किसी नए को सदस्यता नहीं मिली है। ऐसा ही एक क्लब गुजराती एनआरआईज का है। गुजरात का यह सबसे प्रतिष्ठित क्लब है।
शहर के बीच में कांकरिया झील है। पूरी झील आकर्षक लाइटों से सजी है। झील के किनारे- किनारे फौव्वारे लगे हैं। रंगीन लाइट्स में पानी की फुहारें आपको मस्त कर देती है। पूरी झील का चक्कर लगाने के लिए ट्वाय ट्रेन है। बच्चों के तमाम तरह के झूलों से लेकर खाने पीने की दुकानें हैं। हम कई घंटे तक यहां मस्ती करते रहे। शाम को यहां इतनी भीड़ होती है कि लगता है, पूरा शहर यहां आ पहुंचा है। दिन भर फोटो खींचते हुए जब हम शाम को यहां पहुंचे तो हमारे कैमरे के सेल वीक हो चुके थे, नतीजतन कांकरिया झील और पतंग रेस्टोरेंट की हमारी फोटो अच्छी नहीं आई।
अहमदाबाद शानदार बिल्डिंगों, सडक़ों, होटलों, मॉल्स, मल्टीप्लैक्सों का ही शहर नहीं है। यहां दर्जनों दर्शनीय मंदिर और मस्जिदें हैं। शहर में साढ़े 3 हजार से ज्यादा शानदार रेस्त्रां हैं। कुछ रेस्टोरेंट तो ऐसे हैं, जहां आपको अपनी सीटें दो एक दिन पहले आरक्षित करानी पड़ती है। शहर में ऐसा ही एक रेस्त्रां है- पतंग। यह रेस्त्रां अपनी धुरी पर गोल घूमता है। सात मंजिल ऊपर बने इस घूमते हुए रेस्त्रां में खाना खाने का अलग आनंद है। इसकी कांच की दीवारों से आपको पूरा शहर दिखाई पड़ता है। पतंग रेस्त्रां में भी दो दिन पहले बुकिंग करानी पड़ती है। हमने यहां डिनर लिया। हम जब वहां पहुंचकर बैठे और खाना खाकर उठे, तब तक इसने पौन चक्कर लगाकर हमें पूरे शहर का दर्शन करा दिया था। रात में बिजली से जगमगाता अहमदाबाद बहुत खूबसूरत लगता है।
अहमदाबाद के सबसे बड़े मॉल, रिलायंस मॉल में हम काफी देर घूमे। यह इस्कॉन मंदिर से लगभग सटा हुआ है। शायद इसी कारण इसे इस्कॉन मॉल भी कहते हैं। आदतन, हमने शहर घूमते हुए कई जगह पान खाया। हमें पान अच्छा मिला। अगले दिन हम गांधीनगर घूमने गए। गांधीनगर भी चंडीगढ़ जैसा खूबसूरत और नियोजित तरीके से बसाया गया है। हरियाली से भरा और साफ सुथरा। यहां भी सेक्टर में बटीं बस्तियां हैं। सडक़ से गुजरते हुए मुख्यमंत्री और अन्य मंत्रियों की कोठियां देखीं। गुजरात विधानसभा देखी और सेक्टर- 30 के एक शानदार रेस्टोरेंट में लंच किया। अहमदाबाद और गांधीनगर घूमने के बाद हमें विश्वास हो गया कि यह शहर व्यापार के खेल में महंगा है तो ठीक ही है। गलत नहीं। आज लगता है कि बचपन के खेल ने ही हमें सिखा दिया था कि जीतना है तो चंडीगढ़ और अहमदाबाद जैसे शहरों को अपने पास रखना होगा। सचमुच, मैं दोनों शहरों को प्यार करता हूं।
Saturday, July 9, 2011
गांधी जी का घर यानी शांति का मंदिर
समुद्र किनारे बसा शहर। समुद्री यातायात और व्यापार का केन्द्र। व्यापारियों से भरा हुआ। समुद्री कारोबार पर टिकी अधिकांश लोगों की आजीविका। इस शहर को विश्वस्तरीय पहचान दी, यहां जन्मे दो बालकों ने। एक ने मित्र भाव को चरमोत्कर्ष दिया तो दूसरे ने दुनिया के सामने सत्य और अहिंसा की सर्वोच्चता साबित की। जी हां, हम बात कर रहे हैं पोरबंदर की। गुजरात के प्रमुख शहर पोरबंदर की। पोरबंदर में ही श्रीकृष्ण के बालसखा सुदामा का जन्म हुआ और यहीं मोहनदास कर्मचंद गांधी का। सारी दुनिया जिन्हें महात्मा गांधी के नाम से जानती है।
अपनी गुजरात यात्रा के दौरान सोमनाथ से लौटते हुए हम पोरबंदर पहुंचे। सौराष्ट्र के पश्चिमी समुद्र तट पर स्थित है पोरबंदर। प्राचीन समय से यह देश का प्रमुख बंदरगाह है। इलाके में खेती भी ठीक है और उद्योग व्यवसाय भी। इसीलिए लोग समृद्ध हैं। ज्ञात इतिहास भी बताता है कि यह इलाका सदैव समृद्ध रहा। अंगे्रजों के रिकॉर्ड के मुताबिक सन 1921 में पोरबंदर की जनसंख्या 1 लाख और राजस्व वसूली 21 लाख रुपए थी।
संभव है 5 हजार वर्ष पूर्व यह समुद्री इलाका वीरान रहा हो। इसलिए श्रीकृष्ण के सखा सुदामा को यहां रहते हुए भयानक गरीबी झेलनी पड़ी। पत्नी की व्यंग्योक्ति पर मदद के लिए मित्र के पास द्वारिका जाना पड़ा। द्वारिकाधीश श्रीकृष्ण की कृपा से सुदामा के ही ठाठबाट नहीं बने, पूरा इलाका समृद्ध हो गया। हम दूर पैदा हुए, पले बढ़े और पढ़े लिखे लोग भले इसे नहीं माने, लेकिन पोरबंदर के निवासी यही मानते हैं। श्रीकृष्ण के प्रति श्रद्धावनत वे कहते हैं- सब द्वारिकाधीश की कृपा है। इसीलिए पोरबंदर का एक नाम सुदामापुरी भी है। सुदामा चौक यहां का प्रमुख व्यावसायिक केन्द्र है। सुदामा जी का मंदिर तो है ही।
हजारों वर्ष बाद इसी पोरबंदर शहर के एक समृद्ध व्यवसायी के घर एक बालक का जन्म हुआ। यह बालक आगे चलकर महात्मा गांधी के नाम से दुनिया में विख्यात हुआ। शांति का मसीहा और सादगी का प्रतिमान बना। उसने दुनिया को सिखाया कि सत्य और अहिंसा को हथियार के रूप में कैसे प्रयोग किया जा सकता है। सदाचार, नैतिकता, भाईचारा उसके कार्य व्यवहार के अभिन्न अंग बने। उसका व्यक्तित्व अद्भुत, विरल और विलक्षण था। भारतीय संस्कृति को युगानुकूल बनाकर गांधी ने दुनिया को एक नया दर्शन दिया। ऐसे महान आत्मा की जन्मस्थली पर पहुंचकर हम रोमांचित ही नहीं, अपने को धन्य मान रहे थे।
पोरबंदर के माणक चौक स्थित महात्मा गांधी के पैतृक निवास स्थान पर हम देर तक रहे। गांधी जी की याद को संजोए रखने के लिए यहां काफी कुछ किया गया है। गांधी जी के पैतृक भवन को मूलरूप में बचाए रखने की भी कोशिश है। भवन का बाहरी हिस्सा गिर जाने के कारण उसे आलीशान तरीके से बना दिया गया है, लेकिन भीतरी हिस्सा यथावत है। जिस कमरे में गांधी जी का जन्म हुआ, हम उसमें गए और जिस स्थान पर वे पैदा हुए थे, वहां हमने श्रद्धा से सिर झुकाया। हम बा के कमरे में भी गए। धीरे- धीरे हमने पूरा भवन देखा। गांधी जी का घर माणक चौक पर घंटाघर के पास है। यानी शहर के केन्द्र में है। अतिक्रमण मुक्त होने के कारण आने जाने में कोई असुविधा नहीं होती। हालांकि, आपको गाड़ी उनके घर से थोड़ी दूर रोकनी पड़ती है।
शांति का मंदिर मानकर हमने गांधी जी के पैतृक भवन का दर्शन किया। यहां हमने काफी समय गुजारा। इस कारण हम पोरबंदर का समुद्री तट देखने नहीं जा पाए। हमारा अगला पड़ाव द्वारिका था। समय और दूरी को देखते हुए हम बीच पर घूमने का समय नहीं निकाल पाए। पोरबंदर का बीच देश के सुंदर और साफ सुथरे समुद्री तटों में से एक माना जाता है। हालॉकि हमने पोरबंदर पहुंचने से पहले समुद्र के साथ चलती सडक़ पर कई किलोमीटर यात्रा की। समुद्र के किनारे- किनारे चलती गाड़ी से समुद्र का खूबसूरत नजारा देखा। एक जगह गाड़ी रोककर हम समुद्र तक गए। सफेद फेन और बालू उगलने वाले महासागर को छूकर हम रोमांचित हो उठे। निसंदेह हमारी यात्रा का यह अद्भुत आनंददायी अनुभव रहा।
अहमदाबाद पहुंचकर हम साबरमती आश्रम देखने गए। महात्मा गांधी यहां लगभग 15 वर्ष रहे। आश्रम की स्थापना सन 1915 में की गई। आश्रम का उद्देश्य देश सेवा की शिक्षा लेना और देना था। गांधी जी ने यहां खादी से लेकर अस्पृश्यता निवारण, अपना काम स्वयं करना, मल उठाने से लेकर सभी सफाई कार्य स्वयं करना, स्वदेशी जागरण, सभी धर्मों का आदर करना और न्यूनतम खर्च में सादगी से रहना खुद सीखा और लोगों को सिखाया। सन 1930 में इस शपथ के साथ कि जब तक भारत आजाद नहीं होगा, मैं यहां नहीं आऊंगा, गांधी जी ने साबरमती आश्रम छोड़ दिया। साबरमती आश्रम ही वह स्थान है, जहां सनातन भारतीय संास्कृतिक मूल्यों में देश और काल के अनुरूप कुछ नए मूल्यों को जोडक़र गांधी ने दुनिया को नया जीवन दर्शन दिया।
पातंजलि योग सूत्र के 5 सिद्धांतों, सत्य, अहिंसा, ब्रहचर्य, अपरिग्रह और अस्तेय में गांधी ने युग के अनुकूल 6 नए सिद्धांत जोड़े। गांधी के यह नए सिद्धांत अस्पृश्यता निवारण, स्वाश्रय, सर्वधर्म समभाव, स्वदेशी, अभय और अस्वाद थे। इस प्रकार साबरमती आश्रम में रहने वालों के लिए इन 11 व्रतों का पालन अनिवार्य हो गया। यही 11 सिद्धांत गांधी दर्शन की पीठिका बने। साबरमती आश्रम में हमने गांधी संग्रहालय देखा। गांधी जी का घर देखा। विनोबा भावे की कुटिया देखी। साबरमती नदी के किनारे बने इस खूबसूरत आश्रम में हमने खूब फोटोग्राफी की। विजिटर्स बुक पर अपनी अनुभूति लिखी। गांधी जी से जुड़े स्थानों का भ्रमण करके हम नई ऊर्जा से भर उठे। इन स्थानों की शुचिता ने हमें सोचने समझने का नया दृष्टिकोण दिया।
अपनी गुजरात यात्रा के दौरान सोमनाथ से लौटते हुए हम पोरबंदर पहुंचे। सौराष्ट्र के पश्चिमी समुद्र तट पर स्थित है पोरबंदर। प्राचीन समय से यह देश का प्रमुख बंदरगाह है। इलाके में खेती भी ठीक है और उद्योग व्यवसाय भी। इसीलिए लोग समृद्ध हैं। ज्ञात इतिहास भी बताता है कि यह इलाका सदैव समृद्ध रहा। अंगे्रजों के रिकॉर्ड के मुताबिक सन 1921 में पोरबंदर की जनसंख्या 1 लाख और राजस्व वसूली 21 लाख रुपए थी।
संभव है 5 हजार वर्ष पूर्व यह समुद्री इलाका वीरान रहा हो। इसलिए श्रीकृष्ण के सखा सुदामा को यहां रहते हुए भयानक गरीबी झेलनी पड़ी। पत्नी की व्यंग्योक्ति पर मदद के लिए मित्र के पास द्वारिका जाना पड़ा। द्वारिकाधीश श्रीकृष्ण की कृपा से सुदामा के ही ठाठबाट नहीं बने, पूरा इलाका समृद्ध हो गया। हम दूर पैदा हुए, पले बढ़े और पढ़े लिखे लोग भले इसे नहीं माने, लेकिन पोरबंदर के निवासी यही मानते हैं। श्रीकृष्ण के प्रति श्रद्धावनत वे कहते हैं- सब द्वारिकाधीश की कृपा है। इसीलिए पोरबंदर का एक नाम सुदामापुरी भी है। सुदामा चौक यहां का प्रमुख व्यावसायिक केन्द्र है। सुदामा जी का मंदिर तो है ही।
हजारों वर्ष बाद इसी पोरबंदर शहर के एक समृद्ध व्यवसायी के घर एक बालक का जन्म हुआ। यह बालक आगे चलकर महात्मा गांधी के नाम से दुनिया में विख्यात हुआ। शांति का मसीहा और सादगी का प्रतिमान बना। उसने दुनिया को सिखाया कि सत्य और अहिंसा को हथियार के रूप में कैसे प्रयोग किया जा सकता है। सदाचार, नैतिकता, भाईचारा उसके कार्य व्यवहार के अभिन्न अंग बने। उसका व्यक्तित्व अद्भुत, विरल और विलक्षण था। भारतीय संस्कृति को युगानुकूल बनाकर गांधी ने दुनिया को एक नया दर्शन दिया। ऐसे महान आत्मा की जन्मस्थली पर पहुंचकर हम रोमांचित ही नहीं, अपने को धन्य मान रहे थे।
पोरबंदर के माणक चौक स्थित महात्मा गांधी के पैतृक निवास स्थान पर हम देर तक रहे। गांधी जी की याद को संजोए रखने के लिए यहां काफी कुछ किया गया है। गांधी जी के पैतृक भवन को मूलरूप में बचाए रखने की भी कोशिश है। भवन का बाहरी हिस्सा गिर जाने के कारण उसे आलीशान तरीके से बना दिया गया है, लेकिन भीतरी हिस्सा यथावत है। जिस कमरे में गांधी जी का जन्म हुआ, हम उसमें गए और जिस स्थान पर वे पैदा हुए थे, वहां हमने श्रद्धा से सिर झुकाया। हम बा के कमरे में भी गए। धीरे- धीरे हमने पूरा भवन देखा। गांधी जी का घर माणक चौक पर घंटाघर के पास है। यानी शहर के केन्द्र में है। अतिक्रमण मुक्त होने के कारण आने जाने में कोई असुविधा नहीं होती। हालांकि, आपको गाड़ी उनके घर से थोड़ी दूर रोकनी पड़ती है।
शांति का मंदिर मानकर हमने गांधी जी के पैतृक भवन का दर्शन किया। यहां हमने काफी समय गुजारा। इस कारण हम पोरबंदर का समुद्री तट देखने नहीं जा पाए। हमारा अगला पड़ाव द्वारिका था। समय और दूरी को देखते हुए हम बीच पर घूमने का समय नहीं निकाल पाए। पोरबंदर का बीच देश के सुंदर और साफ सुथरे समुद्री तटों में से एक माना जाता है। हालॉकि हमने पोरबंदर पहुंचने से पहले समुद्र के साथ चलती सडक़ पर कई किलोमीटर यात्रा की। समुद्र के किनारे- किनारे चलती गाड़ी से समुद्र का खूबसूरत नजारा देखा। एक जगह गाड़ी रोककर हम समुद्र तक गए। सफेद फेन और बालू उगलने वाले महासागर को छूकर हम रोमांचित हो उठे। निसंदेह हमारी यात्रा का यह अद्भुत आनंददायी अनुभव रहा।
अहमदाबाद पहुंचकर हम साबरमती आश्रम देखने गए। महात्मा गांधी यहां लगभग 15 वर्ष रहे। आश्रम की स्थापना सन 1915 में की गई। आश्रम का उद्देश्य देश सेवा की शिक्षा लेना और देना था। गांधी जी ने यहां खादी से लेकर अस्पृश्यता निवारण, अपना काम स्वयं करना, मल उठाने से लेकर सभी सफाई कार्य स्वयं करना, स्वदेशी जागरण, सभी धर्मों का आदर करना और न्यूनतम खर्च में सादगी से रहना खुद सीखा और लोगों को सिखाया। सन 1930 में इस शपथ के साथ कि जब तक भारत आजाद नहीं होगा, मैं यहां नहीं आऊंगा, गांधी जी ने साबरमती आश्रम छोड़ दिया। साबरमती आश्रम ही वह स्थान है, जहां सनातन भारतीय संास्कृतिक मूल्यों में देश और काल के अनुरूप कुछ नए मूल्यों को जोडक़र गांधी ने दुनिया को नया जीवन दर्शन दिया।
पातंजलि योग सूत्र के 5 सिद्धांतों, सत्य, अहिंसा, ब्रहचर्य, अपरिग्रह और अस्तेय में गांधी ने युग के अनुकूल 6 नए सिद्धांत जोड़े। गांधी के यह नए सिद्धांत अस्पृश्यता निवारण, स्वाश्रय, सर्वधर्म समभाव, स्वदेशी, अभय और अस्वाद थे। इस प्रकार साबरमती आश्रम में रहने वालों के लिए इन 11 व्रतों का पालन अनिवार्य हो गया। यही 11 सिद्धांत गांधी दर्शन की पीठिका बने। साबरमती आश्रम में हमने गांधी संग्रहालय देखा। गांधी जी का घर देखा। विनोबा भावे की कुटिया देखी। साबरमती नदी के किनारे बने इस खूबसूरत आश्रम में हमने खूब फोटोग्राफी की। विजिटर्स बुक पर अपनी अनुभूति लिखी। गांधी जी से जुड़े स्थानों का भ्रमण करके हम नई ऊर्जा से भर उठे। इन स्थानों की शुचिता ने हमें सोचने समझने का नया दृष्टिकोण दिया।
Tuesday, July 5, 2011
व्यवस्था हो तो गुजरात जैसी
क्या बड़े सामाजिक हितों के लिए लोग अपने छोटे हितों की कुर्बानी देने में संकोच करते हैं? क्या लोग अपना छोटा नुकसान समाज के बड़े लाभ से बड़ा मानते हैंं? यदि आपका उत्तर, हां, है तो आपको गुजरात जाकर आम गुजरातियों से इसका उत्तर पूछना चाहिए। गुजरात एक ऐसा प्रदेश है, जहां की सडक़ें ही चौड़ी, सपाट और खुली- खुली नहीं हैं, वहां के मंदिर भी देश के अन्य हिस्सों के मंदिरों से ज्यादा साफ सुथरे और खुलेपन से भरे हैं। मंदिरों के आगे कोई अतिक्रमण नहीं। हर मंदिर के सामने साथ सुथरा खुला मैदान। आसपास गंदगी और बदबू नहीं। पंडों पुजारियों की लूट खसोट नहीं। इत्मीनान से पूरा गुजरात घूमिए। मंदिरों के दर्शन कीजिए और बिना लुटे पिटे मुस्कुराते हुए घर लौट आइए।
पिछले दिनों हम सपरिवार गुजरात गए। हमारी मुख्य यात्रा अहमदाबाद से जूनागढ़, सोमनाथ, पोरबंदर, द्वारिका, जामनगर होते हुए साबरमती आश्रम तक रही। इस दौरान हमने दो ज्योर्तिलिंग सोमनाथ और नागेश्वर महादेव मंदिर के दर्शन किए। द्वारिका में द्वारिकाधीश मंदिर के अलावा रुकमणि माता का मंदिर देखा। डाकोर में रणछोड़दास जी के मंदिर के दर्शन किए। पोरबंदर में गांधी जी का जन्मस्थान और पैतृक भवन देखा। साबरमती में बापू के आश्रम का अवलोकन किया। हर जगह खुले मैदान के अंतिम भाग में मुख्य भवन। हर मंदिर में आराम से पूजा अर्चना। कहीं कोई भागा दौड़ी नहीं। ठगहाई नहीं। गुजरात में हमने टैक्सी से 2 हजार किलोमीटर से अधिक यात्रा की। एक सप्ताह की गुजरात यात्रा करके जब हम घर लौटे तो हमारे पास उत्तर और दक्षिण भारत के मंदिरों के पंडों पुजारियों की नोचने खसोटने और मंदिरों के आसपास बजबजाती गंदगी जैसी कोई कहानी सुनाने के लिए नहीं थी।
परिवार के साथ मैंने देश के लगभग हर प्रांत का भ्रमण किया है। दर्शनीय स्थल देखें हैं। मंदिरों में पूजा अर्चना की है। पहाड़, झरने, झील, नदियों, उनके उदगम, समुद्र और किलों का आनंद लिया है। देश के दुर्गम तीर्थों में शामिल हेमकुंड साहिब तक हम गए हैं। हम हर जगह अव्यवस्थाओं से क्षुब्ध हुए हैं। इसलिए गुजरात यात्रा के बाद मैं कह सकता हूं कि देश में मंदिरों की व्यवस्थाएं गुजरात जैसी ही होनी चाहिए। अपनी घुमक्कड़ी प्रवृत्ति से कई जगह तो हम इतना दुखी हुए कि हमने वहां दोबारा नहीं जाने की घोषणा तक कर डाली। मेरा परिवार दूसरों को भी समझाता है कि वहां कभी मत जाइए। इसमें सबसे ऊपर नाम तिरुपति के बालाजी मंदिर का है। मंदिरों के इर्द-गिर्द फैली गंदगी, मंदिर तक पहुंचने के दौरान पंडों पुजारियों, फूलमाला तथा प्रसाद बेचने वालों की कारगुजारियां, ऐसी होती हैं कि आप श्रद्धा की जगह आक्रोश से भर उठते हैं।
देश में आए दिन नए- नए मंदिर बनते जा रहे हैं। इसके बावजूद लोगों की आस्था पुराने मंदिरों में ही है। मेरे जैसे तमाम लोगों को प्राचीन मंदिरों का शिल्प अपनी ओर खींचता है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि लोगों की आस्था के केन्द्र प्राचीन मंदिरों की दुर्दशा और उनमें जारी लूट खसोट पर कोई हिन्दू संगठन कुछ नहीं करता। सरकारों को तो खैर, जनआस्था से कोई लेना-देना ही नहीं होता। श्रद्धालु हिन्दू प्राचीन मंदिरों में जाकर लुटता- पिटता है और हिन्दू बने रहने का अभिशाप ढोता है। गुजरात के मंदिरों में प्रसाद की भी निजी दुकानें आपको नहीं मिलेंगी। मंदिर ट्रस्ट में ही आप पैसा जमाकर रसीद लीजिए और वहीं से आपको भगवान का भोग मिल जाएगा।
गुजरात की सडक़ों पर गाड़ी से चलना सुखद और आनंददायी अनुभव है। पूरे गुजरात में फोर लेन, सिक्स लेन सडक़ों का जाल है। यह सडक़ें शहर के बाहर ही नहीं, शहर के भीतर तक हैं। हमें आश्चर्य तो तब हुआ जब हम अहमदाबाद जैसे बड़े और पुराने शहर में घूमे। अहमदाबाद शहर के भीतर सिक्स लेन सडक़ें हैं। दो लेन आने, दो लेन जाने और बीच की दो लेन सिटी बस के लिए रिजर्व। सोचना कठिन है कि हजारों साल पुराने और इतने बड़े शहर के भीतर 6 लेन की व्यवस्था। कमोबेश, यही स्थिति जूनागढ़ शहर की। पूरा जूनागढ़ शहर फोर लेन सडक़ से भरा। सडक़ें चिकनी और सपाट। टूट-फूट और गड्ढों से दूर। किसी शहर के भीतर से गुजरिए या बाई पास से। नेशनल हाईवे पर चलिए या स्टेट हाईवे से। सब जगह सरसराती चलती है गाड़ी। कोई हचका नहीं। कोई झटका नहीं।
जाहिर है, इन सब कामों के लिए तमाम लोगों के घरों- दुकानों को तोड़ा गया होगा। तमाम लोगों की जमीन अधिगृहीत की गई होगी। लोगों के धंधे चौपट हुए होंगे। सार्वजनिक हितों के लिए लोगों को निजी नुकसान उठाना पड़ा होगा। लोग नाराज हुए होंगे। मंदिरों के पास धर्म के नाम पर लूट खसोट करने वाले मरने मारने पर उतर आए होंगे। जनआस्था से खिलवाड़ करके सीधे सरल हिन्दुओं को ठगने वाले बदले की भावना से भर गए होंगे। आश्चर्य, गुजरात में ऐसी कोई स्थिति नहीं बनी। कुछ खास नहीं हुआ। गुजरात पहुंचने वाला आम हिन्दुस्तानी आज जितना खुश होता है, उतना ही आम गुजराती खुश है। मैंने कई जगह लोगों से इस मुद्दे पर बात की। हर गुजराती का यही कहना था कि तोड़-फोड़ से नुकसान हुआ तो नए निर्माण का लाभ भी मिला। लाभ- हानि का आकलन करें तो आम गुजरातियों को इससे फायदा ही हुआ है। पर्यटन बढ़ा है। उद्योग और व्यवसाय बढ़ा है। यातायात बढ़ा है। सुविधाएं बढ़ी हैं। कुल मिलाकर सरकार के साथ आम लोगों की भी आय बढ़ी है। इसलिए आम गुजराती नए आधुनिक युग की सुविधाओं का आनंद ले रहा है।
गुजरात यात्रा के कुछ चित्र नीचे आप भी देखिए। पुनश्च, मुझे ब्लॉग पर आलेख के साथ फोटो डालना और उनका कैप्शन लिखना अभी नहीं आता, इसलिए नीचे पड़े चित्र गुजरात यात्रा के समझिए।
पिछले दिनों हम सपरिवार गुजरात गए। हमारी मुख्य यात्रा अहमदाबाद से जूनागढ़, सोमनाथ, पोरबंदर, द्वारिका, जामनगर होते हुए साबरमती आश्रम तक रही। इस दौरान हमने दो ज्योर्तिलिंग सोमनाथ और नागेश्वर महादेव मंदिर के दर्शन किए। द्वारिका में द्वारिकाधीश मंदिर के अलावा रुकमणि माता का मंदिर देखा। डाकोर में रणछोड़दास जी के मंदिर के दर्शन किए। पोरबंदर में गांधी जी का जन्मस्थान और पैतृक भवन देखा। साबरमती में बापू के आश्रम का अवलोकन किया। हर जगह खुले मैदान के अंतिम भाग में मुख्य भवन। हर मंदिर में आराम से पूजा अर्चना। कहीं कोई भागा दौड़ी नहीं। ठगहाई नहीं। गुजरात में हमने टैक्सी से 2 हजार किलोमीटर से अधिक यात्रा की। एक सप्ताह की गुजरात यात्रा करके जब हम घर लौटे तो हमारे पास उत्तर और दक्षिण भारत के मंदिरों के पंडों पुजारियों की नोचने खसोटने और मंदिरों के आसपास बजबजाती गंदगी जैसी कोई कहानी सुनाने के लिए नहीं थी।
परिवार के साथ मैंने देश के लगभग हर प्रांत का भ्रमण किया है। दर्शनीय स्थल देखें हैं। मंदिरों में पूजा अर्चना की है। पहाड़, झरने, झील, नदियों, उनके उदगम, समुद्र और किलों का आनंद लिया है। देश के दुर्गम तीर्थों में शामिल हेमकुंड साहिब तक हम गए हैं। हम हर जगह अव्यवस्थाओं से क्षुब्ध हुए हैं। इसलिए गुजरात यात्रा के बाद मैं कह सकता हूं कि देश में मंदिरों की व्यवस्थाएं गुजरात जैसी ही होनी चाहिए। अपनी घुमक्कड़ी प्रवृत्ति से कई जगह तो हम इतना दुखी हुए कि हमने वहां दोबारा नहीं जाने की घोषणा तक कर डाली। मेरा परिवार दूसरों को भी समझाता है कि वहां कभी मत जाइए। इसमें सबसे ऊपर नाम तिरुपति के बालाजी मंदिर का है। मंदिरों के इर्द-गिर्द फैली गंदगी, मंदिर तक पहुंचने के दौरान पंडों पुजारियों, फूलमाला तथा प्रसाद बेचने वालों की कारगुजारियां, ऐसी होती हैं कि आप श्रद्धा की जगह आक्रोश से भर उठते हैं।
देश में आए दिन नए- नए मंदिर बनते जा रहे हैं। इसके बावजूद लोगों की आस्था पुराने मंदिरों में ही है। मेरे जैसे तमाम लोगों को प्राचीन मंदिरों का शिल्प अपनी ओर खींचता है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि लोगों की आस्था के केन्द्र प्राचीन मंदिरों की दुर्दशा और उनमें जारी लूट खसोट पर कोई हिन्दू संगठन कुछ नहीं करता। सरकारों को तो खैर, जनआस्था से कोई लेना-देना ही नहीं होता। श्रद्धालु हिन्दू प्राचीन मंदिरों में जाकर लुटता- पिटता है और हिन्दू बने रहने का अभिशाप ढोता है। गुजरात के मंदिरों में प्रसाद की भी निजी दुकानें आपको नहीं मिलेंगी। मंदिर ट्रस्ट में ही आप पैसा जमाकर रसीद लीजिए और वहीं से आपको भगवान का भोग मिल जाएगा।
गुजरात की सडक़ों पर गाड़ी से चलना सुखद और आनंददायी अनुभव है। पूरे गुजरात में फोर लेन, सिक्स लेन सडक़ों का जाल है। यह सडक़ें शहर के बाहर ही नहीं, शहर के भीतर तक हैं। हमें आश्चर्य तो तब हुआ जब हम अहमदाबाद जैसे बड़े और पुराने शहर में घूमे। अहमदाबाद शहर के भीतर सिक्स लेन सडक़ें हैं। दो लेन आने, दो लेन जाने और बीच की दो लेन सिटी बस के लिए रिजर्व। सोचना कठिन है कि हजारों साल पुराने और इतने बड़े शहर के भीतर 6 लेन की व्यवस्था। कमोबेश, यही स्थिति जूनागढ़ शहर की। पूरा जूनागढ़ शहर फोर लेन सडक़ से भरा। सडक़ें चिकनी और सपाट। टूट-फूट और गड्ढों से दूर। किसी शहर के भीतर से गुजरिए या बाई पास से। नेशनल हाईवे पर चलिए या स्टेट हाईवे से। सब जगह सरसराती चलती है गाड़ी। कोई हचका नहीं। कोई झटका नहीं।
जाहिर है, इन सब कामों के लिए तमाम लोगों के घरों- दुकानों को तोड़ा गया होगा। तमाम लोगों की जमीन अधिगृहीत की गई होगी। लोगों के धंधे चौपट हुए होंगे। सार्वजनिक हितों के लिए लोगों को निजी नुकसान उठाना पड़ा होगा। लोग नाराज हुए होंगे। मंदिरों के पास धर्म के नाम पर लूट खसोट करने वाले मरने मारने पर उतर आए होंगे। जनआस्था से खिलवाड़ करके सीधे सरल हिन्दुओं को ठगने वाले बदले की भावना से भर गए होंगे। आश्चर्य, गुजरात में ऐसी कोई स्थिति नहीं बनी। कुछ खास नहीं हुआ। गुजरात पहुंचने वाला आम हिन्दुस्तानी आज जितना खुश होता है, उतना ही आम गुजराती खुश है। मैंने कई जगह लोगों से इस मुद्दे पर बात की। हर गुजराती का यही कहना था कि तोड़-फोड़ से नुकसान हुआ तो नए निर्माण का लाभ भी मिला। लाभ- हानि का आकलन करें तो आम गुजरातियों को इससे फायदा ही हुआ है। पर्यटन बढ़ा है। उद्योग और व्यवसाय बढ़ा है। यातायात बढ़ा है। सुविधाएं बढ़ी हैं। कुल मिलाकर सरकार के साथ आम लोगों की भी आय बढ़ी है। इसलिए आम गुजराती नए आधुनिक युग की सुविधाओं का आनंद ले रहा है।
गुजरात यात्रा के कुछ चित्र नीचे आप भी देखिए। पुनश्च, मुझे ब्लॉग पर आलेख के साथ फोटो डालना और उनका कैप्शन लिखना अभी नहीं आता, इसलिए नीचे पड़े चित्र गुजरात यात्रा के समझिए।
Thursday, June 30, 2011
रुपए उगलती सडक़
सुनकर विश्वास नहीं होता कि सौ किलोमीटर की कोई सडक़ सरकार के खजाने में 25 लाख रुपए रोज भरती है। आपको विश्वास हुआ? नहीं ना। आप भले इसे आश्चर्यजनक मानें, लेकिन यह सच है। इस सडक़ का सच जानने की उत्सुकता ही हमें इस सडक़ तक ले आई। हम इस सडक़ पर 200 किलोमीटर चले। यानी सौ किलोमीटर गए और फिर सौ किलोमीटर लौटे। हमने सच्चाई तो जानी ही एक आनंददायी और स्वप्निल यात्रा भी की।
यह सडक़ अहमदाबाद से बड़ोदरा जाती है। इसे नेशनल एक्सप्रेस वे -1 के नाम से जाना जाता है। यह भारत की पहली प्रोटेक्टेड रोड है। सौ किलोमीटर लंबी इस एक्सप्रेस वे के बीच कहीं कट नहीं है। इसलिए बीच में आप यू टर्न लेकर लौट नहीं सकते। दाएं- बाएं जाने के रास्ते हैं। आप उन पर जा सकते हैं। सडक़ सीधी सपाट है। कहीं कोई बड़ा घुमाव नहीं। क्रास करने वाली सडक़ें ओवर ब्रिज से गुजरती हैं। नदियों पर चौड़े पुल हैं। सडक़ कभी भी कहीं से उखड़ी या टूटी नहीं मिलती। इसलिए इस पर चलते हुए आपको ब्रेक का कोई काम नहीं पड़ता। सिर्फ एक्सीलेटर दबाए रहना पड़ता है।
एक्सप्रेस वे पर पैदल और दोपहिया वाहन प्रतिबंधित हैं। किसी जानवर के आने का तो सवाल ही नहीं। इसलिए चार पहिया वाहन निश्चिंतता से चलते हैं। या कहिए भागते हैं। गाडिय़ां आपके बगल से धनुष से छूटे तीर की तरह निकलती हैं। बगल से सनसनाती हुई गुजरती गाडिय़ां आपको रोमांचित कर देती हैं। आपके भीतर भी स्पीड में गाड़ी चलाने की सनसनी भर उठती है। स्पीड का थि्रल देखने के लिए थोड़ी देर हमने भी 140 की स्पीड में गाड़ी दौड़ाई। वैसे हमने 50 मिनट में अहमदाबाद से बड़ोदरा तक की सौ किलोमीटर की दूरी तय की। लौटते समय हम फोटोग्राफी करते हुए आए, इसलिए हमें सवा घंटे लग गए। मजे की बात यह है कि एक्सप्रेस वे पर गाडिय़ां इतनी रफ्तार से गुजरती हैं कि सडक़ हरदम खाली और सूनी लगती है। टोल पर भी गाडिय़ों की भीड़ नहीं दिखती।
नेशनल हाईवे अथारिटी (एनएचआई) के अधीन इस एक्सप्रेस वे के टोल बूथों को भी हमने देखा। सडक़ पर बने इन बूथों के ऊपर जब हम गए तो यह देखकर दंग रह गए कि वहां एयरकंडीशंड कान्फ्रेंस हाल से लेकर अधिकारियों और स्टाफ के कार्यालय तक चल रहे हैं। हम पहली बार किसी टोल बूथ की सीढिय़ां चढ़े थे। इसलिए सडक़ पर यह ऐशोआराम हमारी कल्पना से परे था। हम सोचते थे कि बूथों के ऊपर स्टाफ के आराम करने और पैसा आदि के हिसाब किताब करने की अस्थाई व्यवस्था होती होगी। बूथों के ऊपर एयरकंडीशंड ऑफिस देखकर हम चकित थे। एक खूबसूरत और आरामदायक सोफे पर बैठकर हमने वहीं कॉफी पीते हुए अपनी जिज्ञासाएं दूर कीं।
नेशनल एक्सप्रेस वे -1 पर टोल की वसूली में लगभग 350 कर्मचारी अधिकारी लगे हैं। इस मार्ग से औसतन 20 हजार गाडिय़ां प्रतिदिन गुजरती हैं। इनमें 12 हजार छोटी और लगभग 8 हजार बड़ी गाडिय़ां होती हैं। इन गाडिय़ों से इस सडक़ पर चलने के लिए टोल टैक्स के रूप में प्रतिदिन 25 लाख रुपए की वसूली होती है। सडक़ के बीच में बोगनबेलिया की लतरें अपने लाल, पीले और सफेद फूलों से आपका मन मोह लेती हैं। सडक़ के दोनों किनारे हरे भरे वृक्षों से भरे हैं। एक्सप्रेस वे के पूरे सौ किलोमीटर में आपको विज्ञापन की एक भी होर्डिंग नहीं मिलेगी। फूलों और हरियाली से भरी चौड़ी चिकनी सडक़ आपकी यात्रा को स्वप्निल और आनंददायी बना देती है। कभी अहमदाबाद जाइए तो इस एक्सप्रेस वे पर जाना मत भूलिए। मेरा विश्वास है कि नेशनल एक्सप्रेस वे -1 की आपकी यात्रा यादगार और सुखद होगी। बशर्ते आपको घूमने फिरने और नए अनुभवों से गुजरने में आनंद आता हो।
अहमदाबाद- बड़ोदरा एक्सपे्रस वे की कुछ तस्वीरें आप भी देखिए। मैं आलेख के साथ फोटो नहीं डाल पाता, और उनके कैप्शन भी नहीं लिख पाता। इसलिए फिलहाल आप नीचे पड़ी फोटो को देखने का कष्ट उठाइए।
यह सडक़ अहमदाबाद से बड़ोदरा जाती है। इसे नेशनल एक्सप्रेस वे -1 के नाम से जाना जाता है। यह भारत की पहली प्रोटेक्टेड रोड है। सौ किलोमीटर लंबी इस एक्सप्रेस वे के बीच कहीं कट नहीं है। इसलिए बीच में आप यू टर्न लेकर लौट नहीं सकते। दाएं- बाएं जाने के रास्ते हैं। आप उन पर जा सकते हैं। सडक़ सीधी सपाट है। कहीं कोई बड़ा घुमाव नहीं। क्रास करने वाली सडक़ें ओवर ब्रिज से गुजरती हैं। नदियों पर चौड़े पुल हैं। सडक़ कभी भी कहीं से उखड़ी या टूटी नहीं मिलती। इसलिए इस पर चलते हुए आपको ब्रेक का कोई काम नहीं पड़ता। सिर्फ एक्सीलेटर दबाए रहना पड़ता है।
एक्सप्रेस वे पर पैदल और दोपहिया वाहन प्रतिबंधित हैं। किसी जानवर के आने का तो सवाल ही नहीं। इसलिए चार पहिया वाहन निश्चिंतता से चलते हैं। या कहिए भागते हैं। गाडिय़ां आपके बगल से धनुष से छूटे तीर की तरह निकलती हैं। बगल से सनसनाती हुई गुजरती गाडिय़ां आपको रोमांचित कर देती हैं। आपके भीतर भी स्पीड में गाड़ी चलाने की सनसनी भर उठती है। स्पीड का थि्रल देखने के लिए थोड़ी देर हमने भी 140 की स्पीड में गाड़ी दौड़ाई। वैसे हमने 50 मिनट में अहमदाबाद से बड़ोदरा तक की सौ किलोमीटर की दूरी तय की। लौटते समय हम फोटोग्राफी करते हुए आए, इसलिए हमें सवा घंटे लग गए। मजे की बात यह है कि एक्सप्रेस वे पर गाडिय़ां इतनी रफ्तार से गुजरती हैं कि सडक़ हरदम खाली और सूनी लगती है। टोल पर भी गाडिय़ों की भीड़ नहीं दिखती।
नेशनल हाईवे अथारिटी (एनएचआई) के अधीन इस एक्सप्रेस वे के टोल बूथों को भी हमने देखा। सडक़ पर बने इन बूथों के ऊपर जब हम गए तो यह देखकर दंग रह गए कि वहां एयरकंडीशंड कान्फ्रेंस हाल से लेकर अधिकारियों और स्टाफ के कार्यालय तक चल रहे हैं। हम पहली बार किसी टोल बूथ की सीढिय़ां चढ़े थे। इसलिए सडक़ पर यह ऐशोआराम हमारी कल्पना से परे था। हम सोचते थे कि बूथों के ऊपर स्टाफ के आराम करने और पैसा आदि के हिसाब किताब करने की अस्थाई व्यवस्था होती होगी। बूथों के ऊपर एयरकंडीशंड ऑफिस देखकर हम चकित थे। एक खूबसूरत और आरामदायक सोफे पर बैठकर हमने वहीं कॉफी पीते हुए अपनी जिज्ञासाएं दूर कीं।
नेशनल एक्सप्रेस वे -1 पर टोल की वसूली में लगभग 350 कर्मचारी अधिकारी लगे हैं। इस मार्ग से औसतन 20 हजार गाडिय़ां प्रतिदिन गुजरती हैं। इनमें 12 हजार छोटी और लगभग 8 हजार बड़ी गाडिय़ां होती हैं। इन गाडिय़ों से इस सडक़ पर चलने के लिए टोल टैक्स के रूप में प्रतिदिन 25 लाख रुपए की वसूली होती है। सडक़ के बीच में बोगनबेलिया की लतरें अपने लाल, पीले और सफेद फूलों से आपका मन मोह लेती हैं। सडक़ के दोनों किनारे हरे भरे वृक्षों से भरे हैं। एक्सप्रेस वे के पूरे सौ किलोमीटर में आपको विज्ञापन की एक भी होर्डिंग नहीं मिलेगी। फूलों और हरियाली से भरी चौड़ी चिकनी सडक़ आपकी यात्रा को स्वप्निल और आनंददायी बना देती है। कभी अहमदाबाद जाइए तो इस एक्सप्रेस वे पर जाना मत भूलिए। मेरा विश्वास है कि नेशनल एक्सप्रेस वे -1 की आपकी यात्रा यादगार और सुखद होगी। बशर्ते आपको घूमने फिरने और नए अनुभवों से गुजरने में आनंद आता हो।
अहमदाबाद- बड़ोदरा एक्सपे्रस वे की कुछ तस्वीरें आप भी देखिए। मैं आलेख के साथ फोटो नहीं डाल पाता, और उनके कैप्शन भी नहीं लिख पाता। इसलिए फिलहाल आप नीचे पड़ी फोटो को देखने का कष्ट उठाइए।
Tuesday, May 17, 2011
प्लेयर्स लाउंज से मैच देखना
क्रिकेट मैच और मुझमें पूर्व जन्म का बैर है। क्रिकेट मेरा पसंदीदा खेल भी नहीं है, फिर भी मैच के बहाने स्टेडियम जाना, मुझे अच्छा लगता है। सच कहूं तो स्टेडियम जाकर मुझे खेल और खिलाडिय़ों से अधिक दर्शक और उनकी प्रतिक्रियाएं देखना अच्छा लगता है, लेकिन क्या करूं, जब भी मेरे आसपास के स्टेडियम में क्रिकेट मैच होता है, मैं ऐसा व्यस्त हो जाता हूं कि पास और टिकट बेकार पड़े रह जाते हैं। मैं स्टेडियम नहीं पहुंच पाता। बच्चे और स्टाफ मैच का आनंद लेते हैं। इसके बावजूद, मैंने पिछले 11 वर्षों में मोहाली में दो अंतरराष्ट्रीय मैच और जयपुर में आईपीएल- 4 का एक मैच देख ही लिया।
मैच देखकर निकलने के बाद हर बार मुझे लगा कि मैच देखने का मजा कॉरपोरेट या प्लेयर्स लाउंज में ही है। मुझे कॉरपोरेट से ज्यादा प्लेयर्स लाउंज पसंद है। यहां खिलाडिय़ों को पास से देखने- सुनने का मौका मिलता है। सेलिब्रिटीज से मुलाकात होती है। खाना-पीना मुफ्त रहता है। मौसम अनुकूलित रहता है। चेयर्स आरामदायक होती हैं। कुशन वाली चेयर्स तो होती ही हैं, ऊंची घूमने वाली बार चेयर्स भी होती हैं। इन चेयर्स पर बैठकर मैच देखने का मजा ही अलग है। एक शब्द में कहें तो प्लेयर्स लाउंज में फाइव स्टार फेसिलिटीज होती हैं। सबसे बड़ी बात, प्लेयर्स लाउंज में बैठे दर्शक इतने खास होते हैं कि आपको मैच देखने का मौका ही नहीं देते। आप उन्हीं में व्यस्त रहते हैं और मैच खतम हो जाता है। यानी मैच रोमांचक हो या सामान्य। अच्छा या हो खराब। प्लेयर्स लाउंज, आपके बोर नहीं होने की गारंटी है।
आईपीएल मौज मस्ती का खेल है। इसमें अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट जैसी संजीदगी नहीं होती। इसलिए आईपीएल के मैचों को देखने का मजा अलग है। मैदान में डीजे का शोर रहता है। स्थानीय वेषभूषा में चीयरलीडर्स होती हैं। मैच के साथ नाच- गाने का लुत्फ मिलता है। फोटो खिंचवाकर एक घंटे में प्रिंट मिल जाता है। तमाम तरह के स्टीकर मुफ्त मिलते हैं। अनलिमिटेड ड्रिंक्स और स्नैक्स फ्री होता है। फैशन आईक्यू अपडेट हो जाता है। और सबसे बड़ी बात, समय, संदर्भ और परिवर्तन की धारा समझ में आ जाती है।
इसी कारण मई की गर्मी में हम राजस्थान रॉयल्स और पुणे वारियर्स के बीच टी- 20 मैच देखने जयपुर पहुंचे। मैदान पर शेरवार्न, राहुल द्रविड़, युवराज, रॉस टेलर, मुरली कार्तिक, जोहान बोथा, रॉबिन उथप्पा जैसे खिलाड़ी माहौल को गर्म करने की कोशिश कर रहे थे तो दर्शकों में बैठी शमिता शेट्टी, नेहा धूपिया और लिज हर्ले जैसी सेलिब्रिटीज माहौल को खुशनुमा बनाए हुए थीं। इन्हीं के बीच अरबाज खान भी बैठे थे।
प्लेयर्स लाउंज के दर्शकों की भीड़ इन सेलिब्रिटीज से अधिक सुंदर और दर्शनीय थी। गरमी ने दोनों पर अलग- अलग असर डाल रखा था। जयपुर की गरमी को देखते हुए उक्त सेलिब्रिटीज जहां पूरा शरीर छिपाने वाले कपड़े पहने थीं, वहीं दर्शकों की भीड़ ने शरीर के कुछ अंग ढंकने मात्र के कपड़े पहन रखे थे। उनका पूरा खुला शरीर उनके साथ- साथ दूसरों को भी ठंडक पहुंचा रहा था। इसलिए प्लेयर्स लाउंज का मौसम ठंडा और सुहाना था।
डीजे की तेज धुन पर इन दर्शकों के नाच- गाने किसी नाइट क्लब का अहसास करा रहे थे। लोग मैच से ज्यादा देह दर्शन में डूबे रहे। इसीलिए मैच खतम होना सभी को खला। सभी एकाएक बोल पड़े- अरे, इतनी जल्दी खतम हो गया। कौन जीता? सभी आश्चर्यचकित थे कि राजस्थान रॉयल्स मैच जीत गई। बहरहाल, आपको भी इतने मुफ्त फायदों के साथ मैच देखना हो तो प्लेयर्स लाउंज से ही मैच देखिएगा। आनंद आता है।
Thursday, May 12, 2011
अपने शहर के वरिष्ठजनों के सामने मंच पर बैठना
मेरे अनुभव मुझे बताते रहे हैं कि मंचासीन होकर अपनी बात कहना बेहद सरल कार्य है, लेकिन वर्षों का यह मेरा अनुभव एक दिन गलत साबित हुआ। उस दिन मैंने महसूस किया कि मंच पर बैठकर आप सारी दुनिया को ज्ञान दे सकते हैं, लेकिन अपने शहर में वरिष्ठ लोगों के सामने मंच पर बैठकर बोलना, बहुत कठिन होता है। यही नहीं, उससे भी कठिन होता है कि उन्हें सम्मानित करना। यह मैंने उस दिन अनुभव किया, जिस दिन इलाहाबाद के वरिष्ठ रंगकर्मियों को सम्मानित करने के कार्यक्रम में उत्तर मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केन्द्र (एनसीजेडसीसी) ने मुझे विशिष्ट अतिथि बनाया। इस सम्मान समारोह के मुख्य अतिथि इलाहाबाद मंडल के कमिश्नर मुकेश मेश्राम थे।
नगर के रंगकर्मियों से सांस्कृतिक केन्द्र का सभागार भरा था। सांस्कृतिक केन्द्र ने सम्मान के लिए इलाहाबाद के रंगकर्मियों में सर्वश्री सचिन तिवारी, लल्लन सिंह गहमरी, अजित पुष्कल, दमयंती रैना, रामगोपाल, रामचंद्र गुप्ता, सुरेन्द्र जी और शास्त्रीय संगीत के सुप्रसिद्ध हस्ताक्षर शांताराम कशालकर को चुना था। यह सम्मान एक तरह का लाइफ टाइम एचीवमेंट एवार्ड जैसा था। इलाहाबाद के इन सभी रंगकर्मियों ने रंगमंच के लिए अपनी सीमाओं से ज्यादा काम किया है। यही कारण है कि इनमें से अधिकांश की पहचान राष्ट्रीय स्तर पर है। इलाहाबाद के सितारे तो यह हैं हीं।
सम्मानित होने वाले सभी वरिष्ठ रंगकर्मी पहली पंक्ति में बैठे थे। नए और पुराने रंगकर्मी उन्हें घेरे थे। पुराने संदर्भों को हल्के फुल्के ढंग से उठाया जा रहा था। प्रस्तुतियों के संस्मरण सुने सुनाए जा रहे थे। इस अनौपचारिक बातचीत में सभागार में उपस्थित अनेक नाट्यप्रेमी भी शामिल थे। अस्वीकृतियों के शहर के इस नए रूप पर मैं मुग्ध था। इलाहाबाद की पहचान व्यंग्य और कटुक्तियों की जगह पूरा वातावरण प्रशंसात्मक भाव से भरा था। दो इलाहाबादियों के परस्पर विरोधी पांच विचार, वाले इस शहर में ऐसा उल्लासपूर्ण आयोजन शायद पहली बार हो रहा था। मेरी उम्र के और मुझसे बाद की पीढ़ी के तमाम रंगकर्मी, सांस्कृतिक केन्द्र के निदेशक आनंद वर्धन शुक्ला की इस बात के लिए प्रशंसा कर रहे थे कि उनके नेतृत्व में सांस्कृतिक केन्द्र ने यह सराहनीय आयोजन किया।
कार्यक्रम के प्रारंभ में आज के रंगकर्म पर चर्चा हुई। चर्चा में अतुल यदुवंशी, डॉ. अनुपम आनंद और अनिल रंजन भौमिक ने विचार व्यक्त किए। अतुल ने रंगकर्म के लोक से, डॉ. अनुपम आनंद ने जीवन से और अनिल रंजन ने सरोकारों से कटते जाने पर चिंता व्यक्त की। अंत में चयनित वरिष्ठ रंगकर्मियों को हमने बुके देकर और शाल ओढ़ाकर सम्मानित किया। सम्मानित रंगकर्मियों को रंगकर्म में उनकी सराहनीय सेवाओं के लिए प्रशस्ति पत्र भी दिया गया। सांस्कृतिक केन्द्र के निदेशक आनंद वर्धन शुक्ल ने प्रारंभ में सभी का स्वागत और अंत में सभी के प्रति आभार व्यक्त किया। निसंदेह, अपने शहर के उन वरिष्ठ रंगकर्मियों को सम्मानित करना, जिनसे मैंने बहुत कुछ जाना और सीखा है, मेरे लिए गौरवपूर्ण और कभी न भुलाया जा सकने वाला अनुभव रहा। यह अवसर प्रदान करने के लिए सांस्कृतिक केन्द्र के निदेशक आनंद वर्धन शुक्ला का मैं ह्रदय से आभारी हूं।
मंच पर उपस्थित इलाहाबाद के सम्मानित किए गए वरिष्ठ रंगकर्मियों के साथ मेरा, कमिश्नर मुकेश मेश्राम और निदेशक आनंद वर्धन शुक्ल का समूह चित्र नीचे देखिए :-
नगर के रंगकर्मियों से सांस्कृतिक केन्द्र का सभागार भरा था। सांस्कृतिक केन्द्र ने सम्मान के लिए इलाहाबाद के रंगकर्मियों में सर्वश्री सचिन तिवारी, लल्लन सिंह गहमरी, अजित पुष्कल, दमयंती रैना, रामगोपाल, रामचंद्र गुप्ता, सुरेन्द्र जी और शास्त्रीय संगीत के सुप्रसिद्ध हस्ताक्षर शांताराम कशालकर को चुना था। यह सम्मान एक तरह का लाइफ टाइम एचीवमेंट एवार्ड जैसा था। इलाहाबाद के इन सभी रंगकर्मियों ने रंगमंच के लिए अपनी सीमाओं से ज्यादा काम किया है। यही कारण है कि इनमें से अधिकांश की पहचान राष्ट्रीय स्तर पर है। इलाहाबाद के सितारे तो यह हैं हीं।
सम्मानित होने वाले सभी वरिष्ठ रंगकर्मी पहली पंक्ति में बैठे थे। नए और पुराने रंगकर्मी उन्हें घेरे थे। पुराने संदर्भों को हल्के फुल्के ढंग से उठाया जा रहा था। प्रस्तुतियों के संस्मरण सुने सुनाए जा रहे थे। इस अनौपचारिक बातचीत में सभागार में उपस्थित अनेक नाट्यप्रेमी भी शामिल थे। अस्वीकृतियों के शहर के इस नए रूप पर मैं मुग्ध था। इलाहाबाद की पहचान व्यंग्य और कटुक्तियों की जगह पूरा वातावरण प्रशंसात्मक भाव से भरा था। दो इलाहाबादियों के परस्पर विरोधी पांच विचार, वाले इस शहर में ऐसा उल्लासपूर्ण आयोजन शायद पहली बार हो रहा था। मेरी उम्र के और मुझसे बाद की पीढ़ी के तमाम रंगकर्मी, सांस्कृतिक केन्द्र के निदेशक आनंद वर्धन शुक्ला की इस बात के लिए प्रशंसा कर रहे थे कि उनके नेतृत्व में सांस्कृतिक केन्द्र ने यह सराहनीय आयोजन किया।
कार्यक्रम के प्रारंभ में आज के रंगकर्म पर चर्चा हुई। चर्चा में अतुल यदुवंशी, डॉ. अनुपम आनंद और अनिल रंजन भौमिक ने विचार व्यक्त किए। अतुल ने रंगकर्म के लोक से, डॉ. अनुपम आनंद ने जीवन से और अनिल रंजन ने सरोकारों से कटते जाने पर चिंता व्यक्त की। अंत में चयनित वरिष्ठ रंगकर्मियों को हमने बुके देकर और शाल ओढ़ाकर सम्मानित किया। सम्मानित रंगकर्मियों को रंगकर्म में उनकी सराहनीय सेवाओं के लिए प्रशस्ति पत्र भी दिया गया। सांस्कृतिक केन्द्र के निदेशक आनंद वर्धन शुक्ल ने प्रारंभ में सभी का स्वागत और अंत में सभी के प्रति आभार व्यक्त किया। निसंदेह, अपने शहर के उन वरिष्ठ रंगकर्मियों को सम्मानित करना, जिनसे मैंने बहुत कुछ जाना और सीखा है, मेरे लिए गौरवपूर्ण और कभी न भुलाया जा सकने वाला अनुभव रहा। यह अवसर प्रदान करने के लिए सांस्कृतिक केन्द्र के निदेशक आनंद वर्धन शुक्ला का मैं ह्रदय से आभारी हूं।
मंच पर उपस्थित इलाहाबाद के सम्मानित किए गए वरिष्ठ रंगकर्मियों के साथ मेरा, कमिश्नर मुकेश मेश्राम और निदेशक आनंद वर्धन शुक्ल का समूह चित्र नीचे देखिए :-
Monday, May 9, 2011
आप्त वचन
किस्मत, बलात्कार की तरह अयाचित होती है। आप इससे जूझिए या फिर इसका आनंद लेना सीख लीजिए।
एक बच्चे का जन्म आपको अभिभावक बनाता है तो दूसरे बच्चे का रेफरी।
पद और पोजिशन, ग्रुप सेक्स की तरह होता है। आपके पीछे 10 लोग आपकी जगह लेने को तैयार खड़े रहते हैं।
विवाह ऐसा संबंध हैं, जिसमें एक व्यक्ति हमेशा सही होता है और दूसरा पति होता है।
शिक्षा, वेश्या की तरह होती है। यह पैसा और कड़ी मेहनत दोनों मांगती है।
आप प्यार खरीद नहीं सकते, फिर भी आपको इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ती है।
सफलता, गर्भ धारण जैसी होती है। आपको सभी बधाई देते हैं लेकिन यह कोई नहीं पूछता कि इसके लिए आप कितने लुटे- पिटे।
वैवाहिक जीवन में पति और पत्नी दोनों को समझौता करना पड़ता है, पति को हमेशा मानना पड़ता है कि वह गलत है और पत्नी को हमेशा पति की इस बात पर हां कहना पड़ता है।
भाषा को सारी दुनिया में मातृभाषा कहा जाता है, इसका मतलब पूरी दुनिया में पिता को कभी बोलने का मौका नहीं मिलता।
इसीलिए बाबा इलाहाबादी कहते हैं कि मानव जीवन सर्वाधिक मादक और उत्तेजक होता है।
एक बच्चे का जन्म आपको अभिभावक बनाता है तो दूसरे बच्चे का रेफरी।
पद और पोजिशन, ग्रुप सेक्स की तरह होता है। आपके पीछे 10 लोग आपकी जगह लेने को तैयार खड़े रहते हैं।
विवाह ऐसा संबंध हैं, जिसमें एक व्यक्ति हमेशा सही होता है और दूसरा पति होता है।
शिक्षा, वेश्या की तरह होती है। यह पैसा और कड़ी मेहनत दोनों मांगती है।
आप प्यार खरीद नहीं सकते, फिर भी आपको इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ती है।
सफलता, गर्भ धारण जैसी होती है। आपको सभी बधाई देते हैं लेकिन यह कोई नहीं पूछता कि इसके लिए आप कितने लुटे- पिटे।
वैवाहिक जीवन में पति और पत्नी दोनों को समझौता करना पड़ता है, पति को हमेशा मानना पड़ता है कि वह गलत है और पत्नी को हमेशा पति की इस बात पर हां कहना पड़ता है।
भाषा को सारी दुनिया में मातृभाषा कहा जाता है, इसका मतलब पूरी दुनिया में पिता को कभी बोलने का मौका नहीं मिलता।
इसीलिए बाबा इलाहाबादी कहते हैं कि मानव जीवन सर्वाधिक मादक और उत्तेजक होता है।
Sunday, April 10, 2011
सपने में देखा सपनी...
बीती रात सपनों में खोया था, तभी एक सपनी आ गई। सपनी में पहले तो बॉबी फिल्म का गीत हम तुम जंगल से गुजरें और शेर आ जाए, सुनाई पड़ा। इसके बाद जो दिखाई पड़ा वह रोमांचित करने वाला और यादगार था। बियाबान जंगल हैं। अंधेरी रात है। सिर से सिर जोडक़र पेड़ इस तरह खड़े हैं कि आकाश का एक भी तारा नहीं दिख रहा। रास्ता सूझ नहीं रहा। उजाले पर रोक है। शांति इतनी कि अपनी बातचीत भी शोर लगे। नीरवता भयावह हो उठी। खामोशी खाने को दौड़ रही। थोड़ी सी भी आवाज शरीर को थरथरा देती। डर से भरे पूरे माहौल में किसी भी तरफ से बाघ, तेंदुए से लेकर लोमड़ी और लकड़बग्घे के निकलकर सामने आ जाने का खतरा।
पूरी सपनी में हम ऐसे ही भयमिश्रित रोमांच से गुजरे। हम किसी हॉरर फिल्म की शूटिंग नहीं देख रहे थे। ना ही किसी सस्पेन्स में फंसे थे। हम सरिस्का अभ्यारण्य में थे। यह बात अलग है कि हम जहां थे, वह किसी हॉरर या सस्पेन्स फिल्म की शूटिंग के लिए उपयुक्त जगह थी। सरिस्का में हम बाघ देखने गए थे। बाघ की लोकेशन जानने के लिए हमारे साथ एंटीना था। दिन में हम खुली जिप्सी में घूमते रहे। रात को हमने बोलेरो ले ली। जंगल दिन में जितने खूबसूरत होते हैं, रात में उतने ही भयावह। यह सच उसी रात हमने जाना। जरा सी सरसराहट पर हम चौंक पड़ते और देखते गाड़ी के अगल-बगल भागती लोमडिय़ां और लकड़बग्घे।
रात हमने एक वन चौकी पर गुजारी। दो पहाडिय़ों के बीच एक झील और झील के किनारे बनी तीन मंजिली पत्थर की पुरानी इमारत। महाराजा जयसिंह की शिकारगाह। अब वन विभाग की सुरक्षा चौकी। किसी भुतहा किले जैसी। महज तीन वनकर्मियों वाली। रहस्यपूर्ण और खामोश। वन चौकी तक पहुंचने के लिए पहाड़ को काट कर बनाई गई चौड़ी सीढिय़ां। झील की तरफ बने इमारत के खुले छज्जे और छत। इन्हीं से कभी जानवरों का शिकार किया जाता था, आज यहीं से जानवरों की गतिविधियों पर नजर रखी जाती है। जंगल के जानवर दूर-दूर से पानी पीने यहां आते हैं। इसीलिए महाराजा जयसिंह से लेकर बाघ और तेंदुओं तक के लिए यह आदर्श शिकारगाह रही। झील के बीच बेतरतीबी से खड़े खजूर के पेड़ जल पक्षियों के आश्रय स्थल। खजूर के इन पेड़ों पर पक्षी विश्राम भी करते हैं और यहीं से मछलियों का शिकार भी। कुल मिलाकर शिकार और शिकारी दोनों के लिए आदर्श जगह।
बाघ की तलाश में हम दिन में खुली जिप्सी में जंगल में घूमे। हिरण, बारहसिंघा, चीतल, नीलगाय, लोमड़ी, लकड़बग्घे, साही, बंदर, लंगूर, मोर, तीतर, बटेर, तोते और ना जाने कितने जानवर और पक्षी हमने देखे, लेकिन नहीं दिखा तो सिर्फ वह जिसे हम देखने गए थे। शाम होने पर हमने बोलेरो ले ली। विशेष डिजाइन वाली इस गाड़ी के पीछे खुली जगह थी, जहां एंटीना लिए वनकर्मी खड़े हो गए। वे लगातार एसटी-2, एसटी-4 और 5 की टोह ले रहे थे। उनकी लोकेशन देख रहे थे। किसी बाघ की लोकेशन नहीं मिली। रात ज्यादा होने पर हमने सोचा बाघ तो अब दिखेगा नहीं, एक बार एंटीना की बीप ही सुन ली जाए। हम जंगल में भटकते हुए बाघ तलाशते रहे और बाघ गुफा में घुसकर आराम से सोते रहे। गुफा इसलिए कह रहे हैं कि वनकर्मियों ने हमें यही बताया कि गुफा के भीतर चले जाने पर बाघों के रेडियो कॉलर संकेत नहीं दे पाते।
अंत में थक हारकर हम वनचौकी आ गए। वनकर्मियों ने चूल्हे पर हाथ से बनी मोटी-मोटी रोटियां खिलाईं। अद्भुत स्वाद वाली लहसुन- टमाटर की चटनी के साथ। तीसरी मंजिल के कमरे में हम सोने गए। चूंकि, पूरा भवन पहाड़ी पर है, इसलिए तीसरी मंजिल के कमरे भी पहाड़ी के कुछ हिस्सों से जुड़ते हैं। इसलिए हमें निर्देश मिला कि हम खिडक़ी-दरवाजे अच्छी तरह से बंद करके ही सोएं। कुछ देर अंधेरे से रोमांस करने के बाद हम सो गए। अगली सुबह हमारी आंख जल्दी खुल गई। हमने खिडक़ी खोलकर देखा तो सुबह सचमुच रोमेंटिक थी। सामने की पहाड़ी पर उगते सूरज की हल्की लालिमा बिखरी थी। नीचे झील से मदिधम उजाले में हल्का-हल्का कोहरा उठ रहा था। पेड़ों के बगल से गुजरती हवा उन्हें गुदगुदा रही थी। पेड़ रह रहकर सिहर उठते।
अद्भुत रूप से खूबसूरत प्रकृति हमारे सामने थी। ओस से भीगी। मस्ती में डूबी। रससिक्त। मादक और अल्हड़। जागकर अलसाई नवपरिणीता सी। आनंदमयी और अनुपम। मोहक उड़ानों और किलोलों से रूपगर्विता को खुश करते पक्षी। कलरव में प्रणय गीत गाते हुए। भावविभोर हम। आश्चर्यचकित। रात में जो भयावह लग रही थी, सुबह अलौकिक सौंदर्य से भरी थी। रूप की रानी थी। प्रकृति के स्वर्गिक सुख में डूबे हमारी तंद्रा तब भंग हुई, जब साथी वनकर्मी ने कहा- सर, बकरी के दूध की चाय है। पी लीजिए। यहां और किसी का दूध नहीं मिलता। हम लौटने की तैयारी में जुट गए। जीवन में कभी न भूल सकने वाली रात और सुबह हमारे दिलोदिमाग पर छा चुकी थी। हमारी सपनी खतम हो चुकी थी।
नीचे सपनी के कुछ चित्र आप भी देखिए।
पूरी सपनी में हम ऐसे ही भयमिश्रित रोमांच से गुजरे। हम किसी हॉरर फिल्म की शूटिंग नहीं देख रहे थे। ना ही किसी सस्पेन्स में फंसे थे। हम सरिस्का अभ्यारण्य में थे। यह बात अलग है कि हम जहां थे, वह किसी हॉरर या सस्पेन्स फिल्म की शूटिंग के लिए उपयुक्त जगह थी। सरिस्का में हम बाघ देखने गए थे। बाघ की लोकेशन जानने के लिए हमारे साथ एंटीना था। दिन में हम खुली जिप्सी में घूमते रहे। रात को हमने बोलेरो ले ली। जंगल दिन में जितने खूबसूरत होते हैं, रात में उतने ही भयावह। यह सच उसी रात हमने जाना। जरा सी सरसराहट पर हम चौंक पड़ते और देखते गाड़ी के अगल-बगल भागती लोमडिय़ां और लकड़बग्घे।
रात हमने एक वन चौकी पर गुजारी। दो पहाडिय़ों के बीच एक झील और झील के किनारे बनी तीन मंजिली पत्थर की पुरानी इमारत। महाराजा जयसिंह की शिकारगाह। अब वन विभाग की सुरक्षा चौकी। किसी भुतहा किले जैसी। महज तीन वनकर्मियों वाली। रहस्यपूर्ण और खामोश। वन चौकी तक पहुंचने के लिए पहाड़ को काट कर बनाई गई चौड़ी सीढिय़ां। झील की तरफ बने इमारत के खुले छज्जे और छत। इन्हीं से कभी जानवरों का शिकार किया जाता था, आज यहीं से जानवरों की गतिविधियों पर नजर रखी जाती है। जंगल के जानवर दूर-दूर से पानी पीने यहां आते हैं। इसीलिए महाराजा जयसिंह से लेकर बाघ और तेंदुओं तक के लिए यह आदर्श शिकारगाह रही। झील के बीच बेतरतीबी से खड़े खजूर के पेड़ जल पक्षियों के आश्रय स्थल। खजूर के इन पेड़ों पर पक्षी विश्राम भी करते हैं और यहीं से मछलियों का शिकार भी। कुल मिलाकर शिकार और शिकारी दोनों के लिए आदर्श जगह।
बाघ की तलाश में हम दिन में खुली जिप्सी में जंगल में घूमे। हिरण, बारहसिंघा, चीतल, नीलगाय, लोमड़ी, लकड़बग्घे, साही, बंदर, लंगूर, मोर, तीतर, बटेर, तोते और ना जाने कितने जानवर और पक्षी हमने देखे, लेकिन नहीं दिखा तो सिर्फ वह जिसे हम देखने गए थे। शाम होने पर हमने बोलेरो ले ली। विशेष डिजाइन वाली इस गाड़ी के पीछे खुली जगह थी, जहां एंटीना लिए वनकर्मी खड़े हो गए। वे लगातार एसटी-2, एसटी-4 और 5 की टोह ले रहे थे। उनकी लोकेशन देख रहे थे। किसी बाघ की लोकेशन नहीं मिली। रात ज्यादा होने पर हमने सोचा बाघ तो अब दिखेगा नहीं, एक बार एंटीना की बीप ही सुन ली जाए। हम जंगल में भटकते हुए बाघ तलाशते रहे और बाघ गुफा में घुसकर आराम से सोते रहे। गुफा इसलिए कह रहे हैं कि वनकर्मियों ने हमें यही बताया कि गुफा के भीतर चले जाने पर बाघों के रेडियो कॉलर संकेत नहीं दे पाते।
अंत में थक हारकर हम वनचौकी आ गए। वनकर्मियों ने चूल्हे पर हाथ से बनी मोटी-मोटी रोटियां खिलाईं। अद्भुत स्वाद वाली लहसुन- टमाटर की चटनी के साथ। तीसरी मंजिल के कमरे में हम सोने गए। चूंकि, पूरा भवन पहाड़ी पर है, इसलिए तीसरी मंजिल के कमरे भी पहाड़ी के कुछ हिस्सों से जुड़ते हैं। इसलिए हमें निर्देश मिला कि हम खिडक़ी-दरवाजे अच्छी तरह से बंद करके ही सोएं। कुछ देर अंधेरे से रोमांस करने के बाद हम सो गए। अगली सुबह हमारी आंख जल्दी खुल गई। हमने खिडक़ी खोलकर देखा तो सुबह सचमुच रोमेंटिक थी। सामने की पहाड़ी पर उगते सूरज की हल्की लालिमा बिखरी थी। नीचे झील से मदिधम उजाले में हल्का-हल्का कोहरा उठ रहा था। पेड़ों के बगल से गुजरती हवा उन्हें गुदगुदा रही थी। पेड़ रह रहकर सिहर उठते।
अद्भुत रूप से खूबसूरत प्रकृति हमारे सामने थी। ओस से भीगी। मस्ती में डूबी। रससिक्त। मादक और अल्हड़। जागकर अलसाई नवपरिणीता सी। आनंदमयी और अनुपम। मोहक उड़ानों और किलोलों से रूपगर्विता को खुश करते पक्षी। कलरव में प्रणय गीत गाते हुए। भावविभोर हम। आश्चर्यचकित। रात में जो भयावह लग रही थी, सुबह अलौकिक सौंदर्य से भरी थी। रूप की रानी थी। प्रकृति के स्वर्गिक सुख में डूबे हमारी तंद्रा तब भंग हुई, जब साथी वनकर्मी ने कहा- सर, बकरी के दूध की चाय है। पी लीजिए। यहां और किसी का दूध नहीं मिलता। हम लौटने की तैयारी में जुट गए। जीवन में कभी न भूल सकने वाली रात और सुबह हमारे दिलोदिमाग पर छा चुकी थी। हमारी सपनी खतम हो चुकी थी।
नीचे सपनी के कुछ चित्र आप भी देखिए।
Sunday, February 27, 2011
परिंदों का स्वर्ग घना
ईश्वर ने फूलों और परिंदों के रूप में हमें अद्भुत तोहफे दे रखे हैं। इन्हीं से हमारी दुनिया खूबसूरत है। रंगीन है। सुरभित और जीवंत है। हमारी भावनाएं और अभिव्यक्तियां सजीव हैं। हमारी दुनिया रंग और रूप से सजी है। ये नहीं रहे तो हमारी दुनिया ही बेरौनक नहीं होगी, हमारी संस्कृति भी जीवंतता खो बैठेगी। लोक जीवन सूनेपन से भर जाएगा। कबूतर, कोयल, बुलबुल, मोर और चकोर को लेकर रचे गए हमारे असंख्य गीत बेमानी हो जाएंगे। दुखद यह है कि हम अपने में इतना उलझ गए हैं कि हमें आसपास रंग-रूप खोती अपनी दुनिया नहीं दिख रही है। विकास की दौड़ में हम अपने आसपास की बेरौनक, बेरंग और बेनूर होती दुनिया नहीं देख पा रहे हैं। हमने निरीह और निर्दोष परिंदों का बसेरा और खाना दोनों छीन लिया है। नतीजतन, बेजुबान परिंदे अपनी इन बुनियादी जरूरतों के लिए किसी से गिला शिकवा किए बिना दुनिया से विदा हो रहे हैं।
यह अहसास तब और घना हो जाता है, जब आप किसी पक्षी विहार में जाते हैं। पक्षियों का कलरव, उनकी खूबसूरती, उनके क्रिया कलाप, उनकी उड़ान, उनके खेल, उनकी मस्ती देखकर आप प्रकृति की खूबसूरती पर मुग्ध हो उठते हैं। प्रकृति के अद्भुत चितेरे की प्रतिभा के कायल हो जाते हैं। आपको लगता है कि इनमें से अधिकांश पक्षियों को आप जानते हैं। इनकी चारित्रिक विशेषताओं के बारे में आपको पता है, लेकिन इन्हें कब देखा था, यह याद नहीं आता। दरअसल, हमारा किताबी ज्ञान, हमारे प्रकृति प्रेम से मिलकर हमें जानकारी देने लगता है, जबकि हमने लंबे समय से इन्हें देखा नहीं होता।
पिछले दिनों हम केवलादेव राष्ट्रीय पक्षी उद्यान गए। झीलों और घने वृक्षों से कभी यह उद्यान इतना भरा था कि इसका नाम ही घना (यानी सघन) पड़ गया। बोलचाल में इसे घना पक्षी विहार ही कहते हैं। राजस्थान के भरतपुर जिले में स्थित यह उद्यान प्रवासी पक्षियों का स्वर्ग है। रूस, चीन, श्रीलंका से लेकर हिमालय तक के पक्षी यहां प्रजनन हेतु आते हैं। देश के अन्य हिस्सों से भी आए पक्षियों की यहां भरमार रहती है। प्रवासी पक्षी दिसंबर- जनवरी में प्रजनन करके मार्च तक बच्चों के साथ वापस लौट जाते हैं। प्रवासी पक्षियों के लौटने के बाद देशी पक्षियों का प्रजनन काल शुरू होता है। देशी पक्षी मार्च-अप्रैल में प्रजनन करते हैं। जाड़ों में यहां पक्षियों की 370 प्रजातियां मिलती हैं। यानी भारतीय पक्षियों की कुल 1300 प्रजातियों में से लगभग एक तिहाई।
इस शानदार पक्षी विहार में देशी कम विदेशी पर्यटक ज्यादा आते हैं। पक्षियों की दिनचर्या में बाधा नहीं पड़े, इसके लिए यहां साइकिल, रिक्शा और बैटरी चालित गाड़ी से ही घूमने की अनुमति है। दूर झील में और पेड़ों पर बैठे पक्षियों को सुगमता से देखने के लिए दुरबीन की व्यवस्था यहां हो जाती है। दुरबीन से जब आप किसी पक्षी को देखते हैं तो पक्षी की गतिविधियां, उसके पंखों का रंग, रंगों के शेड्स आपको ऐसे बांधते हैं कि आप देर तक टकटकी लगाए उसे ही देखते रह जाते हैं। बैटरी चालित गाड़ी से घूमते हुए हम सैकड़ों पक्षियों के पारिवारिक प्रेम के साक्षी बने। उनके किलोल, उनकी रूपगर्विता, उनके नृत्य, उनके आहार-विहार, बच्चों के लालन-पालन के प्रति उनकी सजगता, उनके उत्तरदायित्व, परिवार के प्रति उनके समर्पण ने हमें मोहा।
घना पक्षी विहार में हम लोगों के लिए एक और बात विशेष महत्व की रही। सुबह पक्षी देखने के लिए हमने जंगल के भीतर बने गेस्ट हाउस में रात गुजारी। वन कर्मियों ने हमें बताया कि हम जिस विश्राम कक्ष में रुके हैं, उसमें पूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी रात्रि विश्राम कर चुकी हैं। यही नहीं, इसी कक्ष में फिल्म अभिनेत्री रेखा भी रात गुजार चुकी हैं। रेखा एक फिल्म की शूटिंग के दौरान घना अभ्यारण्य आईं थीं। वन कर्मियों की बात सुनकर हमें थोड़ा रोमांच हुआ, लेकिन बहुत जल्दी ही हम यह बात भूल गए। कारण, जिस रात हम घना में थे, उस रात पूरा जंगल दूधिया चांदनी में नहाया हुआ था। पूर्णिमा की चांदनी में पूरा जंगल अद्भुत रूप से सुंदर लग रहा था। गेस्ट हाउस के लॉन में हम देर रात तक पूर्ण चांद (फुल मून) का आनंद लेते रहे।
प्रकृति और पक्षियों के प्रति संवेदनशीलता उत्पन्न करने के लिए यहां प्रख्यात पक्षी प्रेमी सलीम अली की स्मृति में विजिटर एन्टरप्रेटेशन सेंटर खोला गया है। सेंटर का मुख्य आकर्षण पारे का बना भारतीय सारस का एक खूबसूरत जोड़ा है। साठ लाख रुपए की लागत वाला यह जोड़ा भारतीय सारस की खूबसूरती ही नहीं उसके पारिवारिक प्रेम और निष्ठा को भी बताता है। सेंटर में पानी और झीलों का महत्व, घना आने वाले पक्षियों के रूट आदि को भी दर्शाया गया है। आसपास के स्कूली बच्चे यहां अक्सर आते हैं और चिडिय़ों के बारे में जानकारियां हासिल करते हैं। बच्चों के जरिए सेंटर कोशिश करता है कि प्रकृति के प्रति संवेदनशीलता बचपन से ही व्यक्ति में आए।
प्रकृति के प्रति बच्चों को संवेदनशील बनाना अच्छा प्रयास है, लेकिन इसके परिणाम भविष्य में मिलेंगे। संकट आज खड़ा है। हमारे संसार से जिस तरह पक्षी विलुप्त हो रहे हैं, उसे देखते हुए हमें अपने उत्तरदायित्व को समझना होगा। संवेदनशीलता दिखानी होगी। अन्यथा बच्चों के बड़े होने तक पक्षी बचेंगे ही नहीं। चूंकि इस संकट के हम जिम्मेदार हैं, इसलिए हमें ही सोचना होगा। प्रयास करना होगा। परिंदों के दाना-पानी की ही नहीं, उनके बसेरों के बारे में भी चिंता करनी होगी। अपने जीवन में परिंदों को जगह देनी होगी। परिंदों को बचाने की दिशा में किया गया हमारा प्रयास पर्यावरण संतुलित तो करेगा ही, हमारे अपने सौंदर्यबोध और मानवीयता को भी दर्शाएगा। हम अपने बच्चों को विरासत में एक खूबसूरत और रंगीन दुनिया देकर जाएंगे। परिंदों को बचाने के प्रयासों से हम न केवल अपनी भूल सुधार सकेंगे, अपितु अपनी आकर्षक दुनिया की खूबसूरती भी बचा सकेंगे। सबसे बड़ी बात यह कि हमारी यह कोशिश उस अद्भुत चित्रकार के प्रति हमारा एक विनम्र आभार भी प्रदर्शित करेगी, जिसने इतनी खूबसूरत, रंगबिरंगी और जीवंत सृष्टि रचकर हमें मुफ्त में दी है।
नीचे घना पक्षी विहार के कुछ चित्र आप भी देखिए :-
यह अहसास तब और घना हो जाता है, जब आप किसी पक्षी विहार में जाते हैं। पक्षियों का कलरव, उनकी खूबसूरती, उनके क्रिया कलाप, उनकी उड़ान, उनके खेल, उनकी मस्ती देखकर आप प्रकृति की खूबसूरती पर मुग्ध हो उठते हैं। प्रकृति के अद्भुत चितेरे की प्रतिभा के कायल हो जाते हैं। आपको लगता है कि इनमें से अधिकांश पक्षियों को आप जानते हैं। इनकी चारित्रिक विशेषताओं के बारे में आपको पता है, लेकिन इन्हें कब देखा था, यह याद नहीं आता। दरअसल, हमारा किताबी ज्ञान, हमारे प्रकृति प्रेम से मिलकर हमें जानकारी देने लगता है, जबकि हमने लंबे समय से इन्हें देखा नहीं होता।
पिछले दिनों हम केवलादेव राष्ट्रीय पक्षी उद्यान गए। झीलों और घने वृक्षों से कभी यह उद्यान इतना भरा था कि इसका नाम ही घना (यानी सघन) पड़ गया। बोलचाल में इसे घना पक्षी विहार ही कहते हैं। राजस्थान के भरतपुर जिले में स्थित यह उद्यान प्रवासी पक्षियों का स्वर्ग है। रूस, चीन, श्रीलंका से लेकर हिमालय तक के पक्षी यहां प्रजनन हेतु आते हैं। देश के अन्य हिस्सों से भी आए पक्षियों की यहां भरमार रहती है। प्रवासी पक्षी दिसंबर- जनवरी में प्रजनन करके मार्च तक बच्चों के साथ वापस लौट जाते हैं। प्रवासी पक्षियों के लौटने के बाद देशी पक्षियों का प्रजनन काल शुरू होता है। देशी पक्षी मार्च-अप्रैल में प्रजनन करते हैं। जाड़ों में यहां पक्षियों की 370 प्रजातियां मिलती हैं। यानी भारतीय पक्षियों की कुल 1300 प्रजातियों में से लगभग एक तिहाई।
इस शानदार पक्षी विहार में देशी कम विदेशी पर्यटक ज्यादा आते हैं। पक्षियों की दिनचर्या में बाधा नहीं पड़े, इसके लिए यहां साइकिल, रिक्शा और बैटरी चालित गाड़ी से ही घूमने की अनुमति है। दूर झील में और पेड़ों पर बैठे पक्षियों को सुगमता से देखने के लिए दुरबीन की व्यवस्था यहां हो जाती है। दुरबीन से जब आप किसी पक्षी को देखते हैं तो पक्षी की गतिविधियां, उसके पंखों का रंग, रंगों के शेड्स आपको ऐसे बांधते हैं कि आप देर तक टकटकी लगाए उसे ही देखते रह जाते हैं। बैटरी चालित गाड़ी से घूमते हुए हम सैकड़ों पक्षियों के पारिवारिक प्रेम के साक्षी बने। उनके किलोल, उनकी रूपगर्विता, उनके नृत्य, उनके आहार-विहार, बच्चों के लालन-पालन के प्रति उनकी सजगता, उनके उत्तरदायित्व, परिवार के प्रति उनके समर्पण ने हमें मोहा।
घना पक्षी विहार में हम लोगों के लिए एक और बात विशेष महत्व की रही। सुबह पक्षी देखने के लिए हमने जंगल के भीतर बने गेस्ट हाउस में रात गुजारी। वन कर्मियों ने हमें बताया कि हम जिस विश्राम कक्ष में रुके हैं, उसमें पूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी रात्रि विश्राम कर चुकी हैं। यही नहीं, इसी कक्ष में फिल्म अभिनेत्री रेखा भी रात गुजार चुकी हैं। रेखा एक फिल्म की शूटिंग के दौरान घना अभ्यारण्य आईं थीं। वन कर्मियों की बात सुनकर हमें थोड़ा रोमांच हुआ, लेकिन बहुत जल्दी ही हम यह बात भूल गए। कारण, जिस रात हम घना में थे, उस रात पूरा जंगल दूधिया चांदनी में नहाया हुआ था। पूर्णिमा की चांदनी में पूरा जंगल अद्भुत रूप से सुंदर लग रहा था। गेस्ट हाउस के लॉन में हम देर रात तक पूर्ण चांद (फुल मून) का आनंद लेते रहे।
प्रकृति और पक्षियों के प्रति संवेदनशीलता उत्पन्न करने के लिए यहां प्रख्यात पक्षी प्रेमी सलीम अली की स्मृति में विजिटर एन्टरप्रेटेशन सेंटर खोला गया है। सेंटर का मुख्य आकर्षण पारे का बना भारतीय सारस का एक खूबसूरत जोड़ा है। साठ लाख रुपए की लागत वाला यह जोड़ा भारतीय सारस की खूबसूरती ही नहीं उसके पारिवारिक प्रेम और निष्ठा को भी बताता है। सेंटर में पानी और झीलों का महत्व, घना आने वाले पक्षियों के रूट आदि को भी दर्शाया गया है। आसपास के स्कूली बच्चे यहां अक्सर आते हैं और चिडिय़ों के बारे में जानकारियां हासिल करते हैं। बच्चों के जरिए सेंटर कोशिश करता है कि प्रकृति के प्रति संवेदनशीलता बचपन से ही व्यक्ति में आए।
प्रकृति के प्रति बच्चों को संवेदनशील बनाना अच्छा प्रयास है, लेकिन इसके परिणाम भविष्य में मिलेंगे। संकट आज खड़ा है। हमारे संसार से जिस तरह पक्षी विलुप्त हो रहे हैं, उसे देखते हुए हमें अपने उत्तरदायित्व को समझना होगा। संवेदनशीलता दिखानी होगी। अन्यथा बच्चों के बड़े होने तक पक्षी बचेंगे ही नहीं। चूंकि इस संकट के हम जिम्मेदार हैं, इसलिए हमें ही सोचना होगा। प्रयास करना होगा। परिंदों के दाना-पानी की ही नहीं, उनके बसेरों के बारे में भी चिंता करनी होगी। अपने जीवन में परिंदों को जगह देनी होगी। परिंदों को बचाने की दिशा में किया गया हमारा प्रयास पर्यावरण संतुलित तो करेगा ही, हमारे अपने सौंदर्यबोध और मानवीयता को भी दर्शाएगा। हम अपने बच्चों को विरासत में एक खूबसूरत और रंगीन दुनिया देकर जाएंगे। परिंदों को बचाने के प्रयासों से हम न केवल अपनी भूल सुधार सकेंगे, अपितु अपनी आकर्षक दुनिया की खूबसूरती भी बचा सकेंगे। सबसे बड़ी बात यह कि हमारी यह कोशिश उस अद्भुत चित्रकार के प्रति हमारा एक विनम्र आभार भी प्रदर्शित करेगी, जिसने इतनी खूबसूरत, रंगबिरंगी और जीवंत सृष्टि रचकर हमें मुफ्त में दी है।
नीचे घना पक्षी विहार के कुछ चित्र आप भी देखिए :-
Tuesday, February 22, 2011
चिड़ीमारों की शौर्यगाथा
आपने शूरवीरों के तमाम किस्से सुने होंगे। वीर बहादुरों के विजय स्तंभ देखें होंगे। रणबांकुरों की याद में लगे शिलालेख पढ़े होंगे। शहीद स्मारकों पर सिर भी झुकाया होगा, लेकिन क्या आपने चिड़ीमारों का कीर्तिस्तंभ देखा है? या उनकी शौर्यगाथा सुनी है? किस चिड़ीमार ने कितनी गन से कितनी चिडिय़ा मार गिराई, इसका शौर्य स्तंभ देखा है? आइए, हम एक ऐसे ही शौर्य स्तंभ से आपका परिचय कराते हैं। शिलालेख की शक्ल में यह चिड़ीमारों की कीर्ति गाथा है।
केवलादेव राष्ट्रीय पक्षी विहार (घना) में गुलाबी रंग के 8 पत्थर एक प्लेटफार्म पर खूबसूरती से सजाकर लगाए गए हैं। इन पत्थरों में चिड़ीमारों की शौर्यगाथा अंकित है। सभी पत्थर आदमकद साइज के हैं। इन पत्थरों पर लिखी इबारत को जब आप पढ़ते हैं तो पता चलता है कि मासूम चिडिय़ों को गोली से भूनना भी वीरता का काम माना जाता है। प्राचीन इतिहास की किताबों में आपको भले ही ऐसी शूरवीरता के किस्से पढऩे को नहीं मिलें, लेकिन घना अभ्यारण्य में आकर आप देख सकते हैं कि सन 1901 से 1964 तक कितने विशिष्ट लोगों ने मासूम और खूबसूरत पक्षियों को बेरहमी से गोलियों का शिकार बनाया।
यह पत्थर इसलिए लगाए गए हैं कि ताकि पर्यटक जान सकें कि भारत में अंगे्रज बहादुरों और देशी राजा- महाराजाओं के खेल कैसे होते थे। किसने कितनी कम गोली खर्च कर अधिक से अधिक पक्षी मारने का रिकॉर्ड बनाया। पत्थरों पर महज 64 वर्ष का रिकॉर्ड अंकित है, लेकिन इन 64 वर्षों में ही लगभग एक लाख पक्षियों की मौत इनमें दर्ज है। यह तो विशिष्टजनों द्वारा की गई है। इतिहास में दर्ज होने की योग्यता नहीं रखने वाले छुटभइयों द्वारा इस दौरान कितने पक्षी मारे गए उसका तो अनुमान लगाना कठिन है।
चिड़ीमारों की इस शौर्यगाथा में सबसे ऊपर चेलिस फोर्ड का नाम है। चेलिस भारत के वायसराय थे। वे सन 1916 में घना पक्षी विहार आए। चेलिस ने 50 गन से 4206 पक्षी मार गिराने का अटूट रिकॉर्ड ही नहीं बनाया, बल्कि अपने पूर्ववर्ती वायसराय लार्ड हार्डिंग्स का रिकॉर्ड भी तोड़ा। हार्डिंग्स ने 49 गन से 4062 पक्षियों को मौत की नींद सुलाने का रिकॉर्ड बनाया था। चेलिस के रिकॉर्ड बनाने के बाद हार्डिंग्स चिड़ीमारों के दूसरे पायदान पर आ गए। हार्डिंग्स 1914 में घना आए थे।
पत्थरों पर अंकित रिकॉर्ड के अनुसार सन 1964 में अंतिम चिड़ीमार के रूप में भारत के चीफ ऑफ द आर्मी स्टाफ जनरल जेएन चौधरी घना आए। भारतीय होने के नाते इन्होंने गन तो अंगे्रज बहादुरों से ज्यादा चलाईं, लेकिन अंग्रेजों के पासंग भी पक्षी नहीं मार पाए। जनरल ने 51 गन से महज 556 पक्षी मारे। जनरल की इज्जत बचाने के लिए पत्थर पर नीचे संकेत किया गया है कि यह वीरता महज आधे दिन की है। यानी जनरल जल्दी में थे, वरना वे कई दिन तक गोली चलाते रहते और अंग्रेजों का रिकॉर्ड तोडक़र ही दम लेते।
चिड़ीमारों के इस शिलालेख में लार्ड कर्जन से लेकर भारत में तैनात रहे लगभग सभी वायसरायों की वीरगाथा अंकित है। देशी महाराजाओं में महाराजा फरीदकोट, महाराजा पटियाला से लेकर महाराजा भोपाल और महाराजा रतलाम तक के नाम शामिल हैं। महाराजा अलवर, भरतपुर और धौलपुर के नाम तो हैं हीं। चिड़ीमारों का यह शौर्यस्तंभ पक्षी विहार में इतने सम्मान के साथ क्यों लगाया गया है? और पर्यटकों को क्यों दिखाया जाता है, इसका समुचित उत्तर कोई नहीं जानता।
चिड़ीमारों की कीर्तिगाथा के शिलालेख नीचे के चित्र में आप भी देखिए :-
केवलादेव राष्ट्रीय पक्षी विहार (घना) में गुलाबी रंग के 8 पत्थर एक प्लेटफार्म पर खूबसूरती से सजाकर लगाए गए हैं। इन पत्थरों में चिड़ीमारों की शौर्यगाथा अंकित है। सभी पत्थर आदमकद साइज के हैं। इन पत्थरों पर लिखी इबारत को जब आप पढ़ते हैं तो पता चलता है कि मासूम चिडिय़ों को गोली से भूनना भी वीरता का काम माना जाता है। प्राचीन इतिहास की किताबों में आपको भले ही ऐसी शूरवीरता के किस्से पढऩे को नहीं मिलें, लेकिन घना अभ्यारण्य में आकर आप देख सकते हैं कि सन 1901 से 1964 तक कितने विशिष्ट लोगों ने मासूम और खूबसूरत पक्षियों को बेरहमी से गोलियों का शिकार बनाया।
यह पत्थर इसलिए लगाए गए हैं कि ताकि पर्यटक जान सकें कि भारत में अंगे्रज बहादुरों और देशी राजा- महाराजाओं के खेल कैसे होते थे। किसने कितनी कम गोली खर्च कर अधिक से अधिक पक्षी मारने का रिकॉर्ड बनाया। पत्थरों पर महज 64 वर्ष का रिकॉर्ड अंकित है, लेकिन इन 64 वर्षों में ही लगभग एक लाख पक्षियों की मौत इनमें दर्ज है। यह तो विशिष्टजनों द्वारा की गई है। इतिहास में दर्ज होने की योग्यता नहीं रखने वाले छुटभइयों द्वारा इस दौरान कितने पक्षी मारे गए उसका तो अनुमान लगाना कठिन है।
चिड़ीमारों की इस शौर्यगाथा में सबसे ऊपर चेलिस फोर्ड का नाम है। चेलिस भारत के वायसराय थे। वे सन 1916 में घना पक्षी विहार आए। चेलिस ने 50 गन से 4206 पक्षी मार गिराने का अटूट रिकॉर्ड ही नहीं बनाया, बल्कि अपने पूर्ववर्ती वायसराय लार्ड हार्डिंग्स का रिकॉर्ड भी तोड़ा। हार्डिंग्स ने 49 गन से 4062 पक्षियों को मौत की नींद सुलाने का रिकॉर्ड बनाया था। चेलिस के रिकॉर्ड बनाने के बाद हार्डिंग्स चिड़ीमारों के दूसरे पायदान पर आ गए। हार्डिंग्स 1914 में घना आए थे।
पत्थरों पर अंकित रिकॉर्ड के अनुसार सन 1964 में अंतिम चिड़ीमार के रूप में भारत के चीफ ऑफ द आर्मी स्टाफ जनरल जेएन चौधरी घना आए। भारतीय होने के नाते इन्होंने गन तो अंगे्रज बहादुरों से ज्यादा चलाईं, लेकिन अंग्रेजों के पासंग भी पक्षी नहीं मार पाए। जनरल ने 51 गन से महज 556 पक्षी मारे। जनरल की इज्जत बचाने के लिए पत्थर पर नीचे संकेत किया गया है कि यह वीरता महज आधे दिन की है। यानी जनरल जल्दी में थे, वरना वे कई दिन तक गोली चलाते रहते और अंग्रेजों का रिकॉर्ड तोडक़र ही दम लेते।
चिड़ीमारों के इस शिलालेख में लार्ड कर्जन से लेकर भारत में तैनात रहे लगभग सभी वायसरायों की वीरगाथा अंकित है। देशी महाराजाओं में महाराजा फरीदकोट, महाराजा पटियाला से लेकर महाराजा भोपाल और महाराजा रतलाम तक के नाम शामिल हैं। महाराजा अलवर, भरतपुर और धौलपुर के नाम तो हैं हीं। चिड़ीमारों का यह शौर्यस्तंभ पक्षी विहार में इतने सम्मान के साथ क्यों लगाया गया है? और पर्यटकों को क्यों दिखाया जाता है, इसका समुचित उत्तर कोई नहीं जानता।
चिड़ीमारों की कीर्तिगाथा के शिलालेख नीचे के चित्र में आप भी देखिए :-
Sunday, February 20, 2011
ऐसे बनाएं चिडिय़ों को दोस्त
क्या आपके लॉन और आंगन में चिडिय़ा आती हैं? अगर आती भी हैं तो क्या वे नाचती गाती आपको लुभाती हैं? आपका जवाब, हां या नहीं, कुछ भी हो। आप चिडिय़ों से दोस्ती कीजिए। फिर देखिए, रंगबिरंगी और मन को लुभाने वाली चिडिय़ां कैसे आपके घर आंगन में नाचते गाते आपका मनोरंजन करती हैं। आपका सारा तनाव, सारी थकान दूर कर देती हैं। सबसे बड़ी बात यह कि आपको प्रकृति प्रेमी और प्रकृति का रखवाला बना देती हैं। चिडिय़ों को दोस्त बनाने के लिए इन टिप्स को आजमाइए।
- घर के लॉन और आंगन में फूलों के पौधे लगाइए। कोशिश कीजिए कि पौधे देसी हों। पौधों पर फूलों के आते ही उनका पराग चिडिय़ों को आमंत्रित करने लगेगा और आपके घर कई तरह की चिडिय़ा आने लगेंगी।
- घर के आस नीम, आम, पीपल, बड़ जैसे कई तरह के देसी वृक्ष लगाइए। यह वृक्ष पक्षियों के प्राकृतिक निवास स्थल होते हैं। इन वृक्षों के बड़े होने पर यह आपके मकान की शोभा और पहचान तो बनेंगे ही, आपको छाया और पक्षियों को आश्रय देंगे।
- पक्षियों को नहा धोकर साफ रहना अच्छा लगता है। इसलिए अपने लॉन और आंगन में एक बड़ा लेकिन छिछला मिट्टी का पात्र रखिए। इस पात्र में रोज साफ पानी भरिए। आप देखेंगे कि तमाम तरह के पक्षी नहाने के लिए आपके घर आने लगेंगे। इस पात्र का पानी रोज बदलिए क्योंकि पक्षियों को साफ और ठंडे पानी में नहाना अच्छा लगता है।
- घर के आसपास शोर होता हो तो उसे कम करने की कोशिश कीजिए। पक्षियों को शांत वातावरण पसंद होता है। शांत वातावरण में ही वे नाचते गाते हैं।
- घर के आसपास अनजानी या डरावनी चीजें हों तो उसे हटा दीजिए, ताकी पक्षी निश्चिंतता से घर में आ जा सकें।
- यह सब करने के लिए आप अपने पड़ोसियों को भी प्रेरित कीजिए। आसपास के तमाम घर मिलकर एक अच्छा बड़ा बाग या फुलवारी जैसा माहौल बना देंगे और पक्षियों को एक घर से दूसरे घर में फुदकने में मजा आने लगेगा।
- घर या आंगन की एक निश्चित जगह पर रोज दाना डालिए। उसी के आसपास पीने के लिए पानी की व्यवस्था कीजिए। फिर देखिए चिडिय़ा आपकी कैसे दोस्त बनती हैं।
- घर के लॉन और आंगन में फूलों के पौधे लगाइए। कोशिश कीजिए कि पौधे देसी हों। पौधों पर फूलों के आते ही उनका पराग चिडिय़ों को आमंत्रित करने लगेगा और आपके घर कई तरह की चिडिय़ा आने लगेंगी।
- घर के आस नीम, आम, पीपल, बड़ जैसे कई तरह के देसी वृक्ष लगाइए। यह वृक्ष पक्षियों के प्राकृतिक निवास स्थल होते हैं। इन वृक्षों के बड़े होने पर यह आपके मकान की शोभा और पहचान तो बनेंगे ही, आपको छाया और पक्षियों को आश्रय देंगे।
- पक्षियों को नहा धोकर साफ रहना अच्छा लगता है। इसलिए अपने लॉन और आंगन में एक बड़ा लेकिन छिछला मिट्टी का पात्र रखिए। इस पात्र में रोज साफ पानी भरिए। आप देखेंगे कि तमाम तरह के पक्षी नहाने के लिए आपके घर आने लगेंगे। इस पात्र का पानी रोज बदलिए क्योंकि पक्षियों को साफ और ठंडे पानी में नहाना अच्छा लगता है।
- घर के आसपास शोर होता हो तो उसे कम करने की कोशिश कीजिए। पक्षियों को शांत वातावरण पसंद होता है। शांत वातावरण में ही वे नाचते गाते हैं।
- घर के आसपास अनजानी या डरावनी चीजें हों तो उसे हटा दीजिए, ताकी पक्षी निश्चिंतता से घर में आ जा सकें।
- यह सब करने के लिए आप अपने पड़ोसियों को भी प्रेरित कीजिए। आसपास के तमाम घर मिलकर एक अच्छा बड़ा बाग या फुलवारी जैसा माहौल बना देंगे और पक्षियों को एक घर से दूसरे घर में फुदकने में मजा आने लगेगा।
- घर या आंगन की एक निश्चित जगह पर रोज दाना डालिए। उसी के आसपास पीने के लिए पानी की व्यवस्था कीजिए। फिर देखिए चिडिय़ा आपकी कैसे दोस्त बनती हैं।
Tuesday, February 15, 2011
इलाहाबाद और इलाहाबादी
अपने से प्यार करना व्यक्ति की मूल वृत्ति है। इसी कारण हम तब तक किसी से प्यार नहीं करते, जब तक वह अपना नहीं हो जाता। उदाहरण के लिए अपनी मां, अपने बेटे-बेटी, अपने पति, अपने प्रेमी, अपनी गर्लफ्रेंड से ही हम प्यार करते हैं। कार, लैपटॉप, मोबाइल से भी अपना शब्द जुड़ते ही हम प्यार करने लगते हैं। यानी जीवित हो या निर्जीव, जिसके साथ अपना शब्द जुड़ जाता है, वह प्यारा हो जाता है। यही नहीं, वैधता हासिल कर लेता है। दूसरे से प्यार करना दुनिया के लगभग हर देश में अच्छा नहीं माना जाता। इसलिए अवैध कहा जाता है। अपने से प्यार करने की इस सहज मूल वृत्ति को फिल्म कलाकार कटरीना कैफ ने बड़ी खूबसूरती से शीला की जवानी में व्यक्त किया है। किसी और की मुझे जरूरत क्या, मैं तो खुद से प्यार जताऊं। माई नेम इज शीला।
इस आलेख में भारतीय नारी (शीला) के रूप में काम करने वाली विदेशी कटरीना का नाम, मैं उसी सम्मान के साथ ले रहा हूं, जिस सम्मान के साथ बुदिधजीवीनुमा लोग अपनी बकवास को सही साबित करने के लिए विदेशी विद्वानों के नाम लेते हैं। इसे मेरी या बुद्धिजीवीनुमा लोगों की आत्महीनता ना समझी जाए। ना ही इसे यह कहकर खारिज किया जाए कि हमने भारतीय ज्ञान के महासागर में गोतो नहीं लगाए। अन्यथा हमें और भी अच्छे उदाहरण मिल सकते थे। खैर, असली मुद्दे पर आइए। अपने से प्यार करने की इसी मूल वृत्ति के कारण तमाम लोगों को अपनी जन्मभूमि से प्यार हो जाता है। और वह भी दीवानगी की उस हद तक कि उन्हें अपनी जन्मभूमि स्वर्ग से सुंदर लगने लगती है। जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।
चूंकि अपने से प्यार करना आदमी की मूल वृत्ति है और जन्मभूमि से पहले अपनी शब्द जुड़ा है। इसलिए इस मामले में राइट या लेफ्ट की विचारधारा भेद नहीं डालती। राइट वाले को अपनी जन्मभूमि देश महान लगता है तो लेफ्ट वाले को अपनी जन्मभूमि क्षेत्र। इसी तरह किसी को अपना जंगल भला लगता है तो किसी को अपना शहर। किसी को अपनी जाति श्रेष्ठ लगती है तो किसी को अपना धर्म। कोई अपनी भारत माता पर हो रहे दुराचार को देखकर दुनिया बदलने की बात करने लगता है तो कोई जन्म देने वाली अपनी मां पर हुए अत्याचार के कारण व्यवस्था बदलने की बात शुरू कर देता है। दरअसल, अपने से प्यार एक तरह का नशा है, जिसे सभी पीते हैं और यह सभी को भ्रमित करता है।
अब इलाहाबादियों को देखिए। इलाहाबादी कुछ करता हो या नहीं, अपने इलाहाबादी होने का गौरव नहीं छोड़ता। अपने साथ इलाहाबादी शब्द जुडऩा उसे गर्वित करता है। अपना इलाहाबाद। यानी इलाहाबादी। यानी अद्भुत भाईचारा। यानी गजब की ठसक। यानी दुनिया से अलग। यानी सारे चुतियापे का परमिट। मेरे एक मित्र हैं। इलाहाबादी ठसक से क्षुब्ध होकर एक दिन बोल पड़े - सुनो, तुम मुझसे काबिल नहीं हो, लेकिन मेरी दिक्कत यह है कि मैं बांसवाड़ा का हूं और तुम इलाहाबाद के। इलाहाबाद युनिवर्सिटी के प्रोडक्ट होने के नाते तुम पहली नजर में काबिल मान लिए जाते हो और मुझे हर जगह, हर बार काबिलियत साबित करनी पड़ती है। यानी इलाहाबादी चूतियापों की भी जय-जय।
अपने इलाहाबाद से प्यार का गर्व जब हिलोरे लेने लगता है तो लोगों के नाम के साथ इलाहाबादी बिल्ला चिपक जाता है। नाम के साथ चिपके इलाहाबादी बिल्ले को लोग उसी तरह सम्मान देते हैं और वह उसी तरह उनकी रक्षा करता है, जैसे कुली और दीवार फिल्म में अमिताभ बच्चन का बिल्ला करता है। अंग्रेजों के जमाने में एक मजिस्ट्रेट साहब थे। प्रगतिशील विचार वाले थे। मजिस्ट्रेट साहब अपनी कौम से प्यार करने के नशे में डूबे तो उन्हें अंग्रेजों का चाल-चलन बुरा लगने लगा। उन्होंने तत्काल अपने नाम के पीछे इलाहाबादी तखल्लुस जोड़ा और अंग्रेजों की बखिया उधेडऩी शुरू कर दी। अपनी कौम और शहर से प्यार के नशे ने उन्हें महान शायर बना दिया। आज दुनिया उन्हें अकबर इलाहाबादी के नाम से सम्मान देती है। अपने शहर के प्यार से जुड़ा यह नाम इतना लोकप्रिय हुआ कि तमाम कव्वालों ने इस नाम का भरपूर इस्तेमाल किया। भले ही इलाहाबाद से उनका कोई नाता रिश्ता नहीं रहा। अमर, अकबर, एंथनी फिल्म में ऋषि कपूर ने, मेरे सपनों की शहजादी, मैं हूं अकबर इलाहाबादी, गाकर बच्चे-बच्चे की जबान पर इस नाम को चढ़ा दिया।
खैर, इलाहाबादियों का अपने इलाहाबाद से कुछ ज्यादा ही अपनापन है। विश्वास नहीं हो तो किसी भी सर्च इंजन पर इलाहाबादी लिखकर खोज लीजिए। आपको सैकड़ों ऐसे नाम मिल जाएंगे, जिनके पीछे इलाहाबादी लिखा होगा। इन नामों में कवि भी हैं और कव्वाल भी। डॉक्टर भी हैं, खिलाड़ी भी। देश के किसी कोने में रहने वाले लोग हैं तो विदेश में बसे लोग भी। हिन्दू और मुसलमान हैं तो ईसाई भी। पुरुष हैं तो महिलाएं भी। बुजुर्ग हैं तो युवा भी। सुलभ संदर्भ के लिए आप इन कुछ नामों पर गौर कीजिए। बिस्मिल इलाहाबादी, असरार इलाहाबादी, पुरनाम इलाहाबादी, बहार इलाहाबादी, नजर इलाहाबादी, राज इलाहाबादी, ललित इलाहाबादी, चंदू इलाहाबादी, तेग इलाहाबादी, विशेष इलाहाबादी, कनिका इलाहाबादी, लता इलाहाबादी, चारु इलाहाबादी, आदि-आदि। ऐसा नहीं है कि यह सब कवि या शायर हैं और इलाहाबाद में ही रहते हैं। इन्हें तो बस अपने इलाहाबाद से बेइंतहा प्यार है। क्यों है, फिर पूछा तो सुन लीजिए कि सिर्फ इसीलिए कि इलाहाबाद अपना है। यह भी देखिए कि नाम के साथ इलाहाबादी जुड़ते ही नाम कितना खूबसूरत हो गया।
इस आलेख में भारतीय नारी (शीला) के रूप में काम करने वाली विदेशी कटरीना का नाम, मैं उसी सम्मान के साथ ले रहा हूं, जिस सम्मान के साथ बुदिधजीवीनुमा लोग अपनी बकवास को सही साबित करने के लिए विदेशी विद्वानों के नाम लेते हैं। इसे मेरी या बुद्धिजीवीनुमा लोगों की आत्महीनता ना समझी जाए। ना ही इसे यह कहकर खारिज किया जाए कि हमने भारतीय ज्ञान के महासागर में गोतो नहीं लगाए। अन्यथा हमें और भी अच्छे उदाहरण मिल सकते थे। खैर, असली मुद्दे पर आइए। अपने से प्यार करने की इसी मूल वृत्ति के कारण तमाम लोगों को अपनी जन्मभूमि से प्यार हो जाता है। और वह भी दीवानगी की उस हद तक कि उन्हें अपनी जन्मभूमि स्वर्ग से सुंदर लगने लगती है। जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।
चूंकि अपने से प्यार करना आदमी की मूल वृत्ति है और जन्मभूमि से पहले अपनी शब्द जुड़ा है। इसलिए इस मामले में राइट या लेफ्ट की विचारधारा भेद नहीं डालती। राइट वाले को अपनी जन्मभूमि देश महान लगता है तो लेफ्ट वाले को अपनी जन्मभूमि क्षेत्र। इसी तरह किसी को अपना जंगल भला लगता है तो किसी को अपना शहर। किसी को अपनी जाति श्रेष्ठ लगती है तो किसी को अपना धर्म। कोई अपनी भारत माता पर हो रहे दुराचार को देखकर दुनिया बदलने की बात करने लगता है तो कोई जन्म देने वाली अपनी मां पर हुए अत्याचार के कारण व्यवस्था बदलने की बात शुरू कर देता है। दरअसल, अपने से प्यार एक तरह का नशा है, जिसे सभी पीते हैं और यह सभी को भ्रमित करता है।
अब इलाहाबादियों को देखिए। इलाहाबादी कुछ करता हो या नहीं, अपने इलाहाबादी होने का गौरव नहीं छोड़ता। अपने साथ इलाहाबादी शब्द जुडऩा उसे गर्वित करता है। अपना इलाहाबाद। यानी इलाहाबादी। यानी अद्भुत भाईचारा। यानी गजब की ठसक। यानी दुनिया से अलग। यानी सारे चुतियापे का परमिट। मेरे एक मित्र हैं। इलाहाबादी ठसक से क्षुब्ध होकर एक दिन बोल पड़े - सुनो, तुम मुझसे काबिल नहीं हो, लेकिन मेरी दिक्कत यह है कि मैं बांसवाड़ा का हूं और तुम इलाहाबाद के। इलाहाबाद युनिवर्सिटी के प्रोडक्ट होने के नाते तुम पहली नजर में काबिल मान लिए जाते हो और मुझे हर जगह, हर बार काबिलियत साबित करनी पड़ती है। यानी इलाहाबादी चूतियापों की भी जय-जय।
अपने इलाहाबाद से प्यार का गर्व जब हिलोरे लेने लगता है तो लोगों के नाम के साथ इलाहाबादी बिल्ला चिपक जाता है। नाम के साथ चिपके इलाहाबादी बिल्ले को लोग उसी तरह सम्मान देते हैं और वह उसी तरह उनकी रक्षा करता है, जैसे कुली और दीवार फिल्म में अमिताभ बच्चन का बिल्ला करता है। अंग्रेजों के जमाने में एक मजिस्ट्रेट साहब थे। प्रगतिशील विचार वाले थे। मजिस्ट्रेट साहब अपनी कौम से प्यार करने के नशे में डूबे तो उन्हें अंग्रेजों का चाल-चलन बुरा लगने लगा। उन्होंने तत्काल अपने नाम के पीछे इलाहाबादी तखल्लुस जोड़ा और अंग्रेजों की बखिया उधेडऩी शुरू कर दी। अपनी कौम और शहर से प्यार के नशे ने उन्हें महान शायर बना दिया। आज दुनिया उन्हें अकबर इलाहाबादी के नाम से सम्मान देती है। अपने शहर के प्यार से जुड़ा यह नाम इतना लोकप्रिय हुआ कि तमाम कव्वालों ने इस नाम का भरपूर इस्तेमाल किया। भले ही इलाहाबाद से उनका कोई नाता रिश्ता नहीं रहा। अमर, अकबर, एंथनी फिल्म में ऋषि कपूर ने, मेरे सपनों की शहजादी, मैं हूं अकबर इलाहाबादी, गाकर बच्चे-बच्चे की जबान पर इस नाम को चढ़ा दिया।
खैर, इलाहाबादियों का अपने इलाहाबाद से कुछ ज्यादा ही अपनापन है। विश्वास नहीं हो तो किसी भी सर्च इंजन पर इलाहाबादी लिखकर खोज लीजिए। आपको सैकड़ों ऐसे नाम मिल जाएंगे, जिनके पीछे इलाहाबादी लिखा होगा। इन नामों में कवि भी हैं और कव्वाल भी। डॉक्टर भी हैं, खिलाड़ी भी। देश के किसी कोने में रहने वाले लोग हैं तो विदेश में बसे लोग भी। हिन्दू और मुसलमान हैं तो ईसाई भी। पुरुष हैं तो महिलाएं भी। बुजुर्ग हैं तो युवा भी। सुलभ संदर्भ के लिए आप इन कुछ नामों पर गौर कीजिए। बिस्मिल इलाहाबादी, असरार इलाहाबादी, पुरनाम इलाहाबादी, बहार इलाहाबादी, नजर इलाहाबादी, राज इलाहाबादी, ललित इलाहाबादी, चंदू इलाहाबादी, तेग इलाहाबादी, विशेष इलाहाबादी, कनिका इलाहाबादी, लता इलाहाबादी, चारु इलाहाबादी, आदि-आदि। ऐसा नहीं है कि यह सब कवि या शायर हैं और इलाहाबाद में ही रहते हैं। इन्हें तो बस अपने इलाहाबाद से बेइंतहा प्यार है। क्यों है, फिर पूछा तो सुन लीजिए कि सिर्फ इसीलिए कि इलाहाबाद अपना है। यह भी देखिए कि नाम के साथ इलाहाबादी जुड़ते ही नाम कितना खूबसूरत हो गया।
Thursday, February 3, 2011
एक इलाहाबादी का कीर्तिमान
उम्र 51 वर्ष, किताबें प्रकाशित 1024, सम्मान पुरस्कार मिले 40, सोलह पत्र-पत्रिकाओं का संपादन, दिनमान से लेकर भूभारती तक 26 पत्र-पत्रिकाओं में स्तंभ लेखन, अनेक राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय आयोजनों में भागीदारी। यह सारा कमाल एक आदमी का। उपलब्धियों का यह खजाना देखकर भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम बोल उठे - ओ मेरे प्यारे युवा दोस्त। तुम्हारी उपलब्धियों को देखकर मैं हैरान हूं। कोई विश्वास नहीं कर सकता। तुम्हारे भाषा, साहित्य, व्याकरण, विज्ञान, समसामयिक विषयों और बाल साहित्य के ज्ञान को देखकर मैं हतप्रभ हूं। तुम्हारी श्रेष्ठता को छूना किसी के लिए भी कठिन है।
ऐसा कमाल कौन कर सकता है? आप सही समझे, कोई इलाहाबादी ही यह करिश्मा कर सकता है। आइए, हम उससे आपको मिलवाते हैं। यह हैं- डॉ. पृथ्वीनाथ पांडेय। ठेठ इलाहाबादी। लेखन को समर्पित एक अप्रतिम हस्ताक्षर। तीन विषयों हिन्दी, अंग्रेजी और प्राचीन इतिहास में एमए। पीएच-डी। हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेजी और उर्दू चार भाषाओं के जानकार। पत्रकारिता से लेकर साहित्य लेखन तक में समान अधिकार । दुनिया की लगभग सभी कृतिकार परिचय निर्देशकाओं में शीर्षस्थ लेखक के रूप में स्थापित। दि अमेरिकन बॉयोग्राफिक्स इंस्ट्टियूट तथा दि रिसर्च बोर्ड ऑफ एडवाइजर्स के मानद सदस्य। सम्प्रति इलाहाबाद स्थित पत्रकारिता एवं जनसंचार संस्थान के निदेशक।
डॉ. पृथ्वीनाथ पांडेय का जन्म 1 जुलाई 1959 को बलिया में हुआ। उनके पिता एजी ऑफिस, इलाहाबाद में कार्यरत थे। इसलिए पृथ्वीनाथ होश संभालने के पहले ही इलाहाबाद आ गए और इलाहाबाद के ही होकर रह गए। डॉ. पांडेय इलाहाबाद में ही पले, इलाहाबाद में ही पढ़े और यहीं बस गए। उनके कृतित्व पर दैनिक जागरण, जनवार्ता, हिन्दुस्तान, युनाइटेड भारत, अमृत प्रभात, स्वतंत्र भारत, दि पायनियर, हिन्दुस्तान टाइम्स और नार्दर्न इंडिया पत्रिका सहित तमाम पत्र-पत्रिकाओं में आलेख प्रकाशित हो चुके हैं। तो आइए बोलें- सरस्वती से वरदान प्राप्त इस इलाहाबादी की जय हो।
ऐसा कमाल कौन कर सकता है? आप सही समझे, कोई इलाहाबादी ही यह करिश्मा कर सकता है। आइए, हम उससे आपको मिलवाते हैं। यह हैं- डॉ. पृथ्वीनाथ पांडेय। ठेठ इलाहाबादी। लेखन को समर्पित एक अप्रतिम हस्ताक्षर। तीन विषयों हिन्दी, अंग्रेजी और प्राचीन इतिहास में एमए। पीएच-डी। हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेजी और उर्दू चार भाषाओं के जानकार। पत्रकारिता से लेकर साहित्य लेखन तक में समान अधिकार । दुनिया की लगभग सभी कृतिकार परिचय निर्देशकाओं में शीर्षस्थ लेखक के रूप में स्थापित। दि अमेरिकन बॉयोग्राफिक्स इंस्ट्टियूट तथा दि रिसर्च बोर्ड ऑफ एडवाइजर्स के मानद सदस्य। सम्प्रति इलाहाबाद स्थित पत्रकारिता एवं जनसंचार संस्थान के निदेशक।
डॉ. पृथ्वीनाथ पांडेय का जन्म 1 जुलाई 1959 को बलिया में हुआ। उनके पिता एजी ऑफिस, इलाहाबाद में कार्यरत थे। इसलिए पृथ्वीनाथ होश संभालने के पहले ही इलाहाबाद आ गए और इलाहाबाद के ही होकर रह गए। डॉ. पांडेय इलाहाबाद में ही पले, इलाहाबाद में ही पढ़े और यहीं बस गए। उनके कृतित्व पर दैनिक जागरण, जनवार्ता, हिन्दुस्तान, युनाइटेड भारत, अमृत प्रभात, स्वतंत्र भारत, दि पायनियर, हिन्दुस्तान टाइम्स और नार्दर्न इंडिया पत्रिका सहित तमाम पत्र-पत्रिकाओं में आलेख प्रकाशित हो चुके हैं। तो आइए बोलें- सरस्वती से वरदान प्राप्त इस इलाहाबादी की जय हो।
Tuesday, February 1, 2011
बूझिए राजस्थानी पहेली
राजस्थान निवासी और देश के विख्यात लेखक विजयदान देथा की बहुचर्चित कहानी है- दुविधा। इस कहानी पर हिन्दी में फिल्म बन चुकी है। फिल्म का नाम था- पहेली। फिल्म का नाम जानने के बाद आपको याद आ ही गया होगा कि शाहरूख खान और रानी मुखर्जी अभिनीत इस फिल्म में एक पत्नी और दो पतियों की रहस्यपूर्ण कहानी है। वैसे तो यह राजस्थान की लोककथा है, लेकिन राजस्थानी जीवन आए दिन ऐसी रहस्यपूर्ण घटनाओं से दो चार होता है।
अलवर में पिछले दिनों मैंने भी एक ऐसी रहस्यपूर्ण, किन्तु सच्ची कहानी का सामना किया। हालॉकि इस कहानी (सत्य घटना) का संबंध मुझसे नहीं है, लेकिन कहानी सुनाने वाले ने शायद मुझे पहेली फिल्म का बूढ़ा गड़ेरिया (अमिताभ बच्चन) समझा और इसलिए मुझसे सहायता मांगी। इस नाते मुझे यह कहानी पता चली। अब इस नई पहेली को आप भी सुनिए। आपके पास इसका हल हो तो बताइए ताकि कहानी सुनाने वाले की मदद की जा सके। कहानी सुनिए।
लाइफ इंश्योरेंस कॉरपोरेशन (एलआईसी) के अफसर इन दिनों इस बात को लेकर परेशान हैं कि किसी की मौत के पहले अखबार वाले कैसे जान जाते हैं कि अमुक मर गया और इस तरह मरा। मौत की खबर जैसे छपती है, कुछ दिनों बाद वैसे ही आदमी की मौत हो जाती है। यह रहस्य क्या है? क्या अखबार वालों ने भगवान का दर्जा हासिल कर लिया है? या यमराज के दफ्तर में अखबार वालों ने सोर्स खड़ा कर लिया है, जो यमराज की योजनाओं को लीक करता रहता है। हालॉकि विज्ञान और तकनीक के जमाने में अखबार वालों के लिए कुछ भी मुश्किल नहीं है, लेकिन इस पर विश्वास करना लोगों के लिए बहुत कठिन है।
अपने इन्हीं सवालों के साथ एक दिन मेरे पास एलआईसी के एक सीनियर मैनेजर आए। सामान्य बातचीत के बाद उन्होंने मुझसे कहा कि मैं आपसे कुछ जानकारी चाहता हूं। कृपया मेरी मदद कीजिए। मैंने सहजता से कहा- बताइए। उन्होंने कहा कि राजस्थान के दो अखबारों दैनिक भास्कर और राजस्थान पत्रिका में 4 नवंबर को खबर छपी कि अमुक गांव के एक बच्चे की गांव के तालाब में डूबकर मौत हो गई। राजस्थान पत्रिका ने इस खबर को सिंगल कॉलम छापा, जबकि दैनिक भास्कर ने वैल्यू एडीशन के साथ उस तालाब की फोटो भी छापी, जिसमें बालक डूबकर मरा था। भास्कर ने तालाब की फोटो के नीचे कैप्शन लिखा- वह तालाब जिसमें डूबकर बालक की मौत हुई।
अगले दिन 5 नवंबर को उस बालक का 2 लाख रुपए का जीवन बीमा हुआ और कुछ दिनों बाद उसका क्लेम दावा प्रस्तुत हो गया। दावे के साथ पंचायत द्वारा दिया गया बालक का मृत्यु प्रमाण पत्र और पुलिस द्वारा दी गई एफआईआर की कॉपियां लगाईं गईं। इन दोनों कागजातों में बालक की मौत 8 नवंबर को हुई बताई गई। इंश्योरेंस कंपनी ने जब इस क्लेम को फर्जी करार देते हुए दावा अमान्य कर दिया तो याची अदालत पहुंच गया। अदालत ने इंश्योरेंस कंपनी से बालक की मौत का प्रमाण पत्र मांगा। इंश्योरेंस कंपनी ने घटना के संबंध में दैनिक भास्कर और राजस्थान पत्रिका में छपी खबरों की कटिंग पेश की तो अदालत ने कहा कि अखबारों में छपी खबरें प्रमाण नहीं होतीं। आप पुख्ता प्रमाण लाइए।
इंश्योरेंस कंपनी के अफसर प्रमाण की तलाश में गांव पहुंचे। ग्रामीणों ने घटना की पुष्टि करते उन्हें यह तो बताया कि अमुक का बालक तालाब में डूबकर मरा था, लेकिन उन्हें यह याद नहीं कि वह 3 तारीख थी या 8। बेचारे इंश्योरेंस कंपनी के अफसर गांव से लौट आए। अब वे प्रमाण जुटाने के लिए चारों ओर भटक रहे हैं। वह जानना चाहते हैं कि अगर पंचायत द्वारा दिया गया मृत्यु प्रमाण पत्र और पुलिस की एफआईआर सच है तो अखबार वालों को मौत की जानकारी पांच दिन पहले कैसे हो गई। पांच दिन पहले अखबार वालों ने जिस बालक के जिस तरह तालाब में डूबने की घटना छापी, पांच दिन बाद उसी तरह वह बालक तालाब में डूबकर मरा। उनका सवाल है कि किसी के मरने और मरने के तरीके की जानकारी अखबार वालों को हफ्तों पहले कैसे हो जाती है? अखबार वाले अपना सोर्स नहीं बताएं पर अपनी टेक्नीक तो बता ही सकते हैं।
इस पहेली को आप भी बूझिए। आपके पास हल हो तो बताइए, ताकि इंश्योरेंस कंपनी के बेचारे अफसरों की कुछ मदद की जा सके।
Sunday, January 23, 2011
इलाहाबाद के संदर्भ में कुछ पंक्तियां
वो सिविल लाइंस की शाम,
वो चौक का जाम,
वो नैनी पुल की हवा,
वो सरस्वती घाट की मस्ती,
वो हीरा हलवाई के समोसे,
वो सीसीडी की कॉफी,
वो कटरा का क्राउड,
वो एसएमसी का गरूर,
वो जीएचएस की फुलझडिय़ां,
वो सिविल लाइंस की सडक़ें,
जहां न जाने से दिल धडक़े।
इलाहाबाद रॉक्स।
आलोक शुक्ला
वो चौक का जाम,
वो नैनी पुल की हवा,
वो सरस्वती घाट की मस्ती,
वो हीरा हलवाई के समोसे,
वो सीसीडी की कॉफी,
वो कटरा का क्राउड,
वो एसएमसी का गरूर,
वो जीएचएस की फुलझडिय़ां,
वो सिविल लाइंस की सडक़ें,
जहां न जाने से दिल धडक़े।
इलाहाबाद रॉक्स।
आलोक शुक्ला
पूर्वोत्तर के रंग से रंगा सिंहद्वार
सोचिए , राजस्थान की चमकदार संस्कृति पर नॉर्थ ईस्ट की चटकीली लोक संस्कृति के रंग भर जाएं तो कैसा होगा? सचमुच अद्भुत। अविस्मरणीय। अभिभूत कर देने वाला। अवर्णनीय अनुभव वाला। कल्पना से अधिक सुंदर। मादकता भरा। राजस्थान का सिंहद्वार कहा जाने वाला अलवर पिछले दिनों इसी यादगार अनुभव से गुजरा। अवसर था ऑक्टेव-2011 का। उत्तर मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केन्द्र, इलाहाबाद और जिला प्रशासन के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित कार्यक्रम। पूर्वोत्तर के 8 राज्यों के 300 लोक कलाकारों की प्रस्तुति। देश के वरिष्ठ रंगकर्मी बंशी कौल की कोरियोग्राफी। कैसे दो घंटे बीत गए पता ही नहीं चला। लगा जैसे राजस्थान का सिंहद्वार पूर्वोत्तर के रंग से रंग उठा। नीचे के चित्रों में आप भी देखिए, ऑक्टेव-2011 के कुछ रंग।
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